Hindi

जप चर्चा 3 फरवरी, 2022 श्री मान उद्धव प्रभु द्वारा ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः। हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ॥ तपत-कांचन गौरांगी, राधे वृन्दावनेश्वरी । वृषभानु सुते देवी, प्रणमामि हरी प्रिये ॥ नमो महा - वदान्याय कृष्ण - प्रेम - प्रदाय ते । कृष्णाय कृष्ण - चैतन्य - नाम्ने गौर - त्विषे नमः ।। वांछा-कल्पतरूभयशच कृपा-सिंधुभय एव च । पतितानाम पावने भयो वैष्णवे भयो नमो नमः ॥ नमः ॐ विष्णु पादय, कृष्ण पृष्ठाय भूतले, श्रीमते लोकनाथ स्वामिन इति नामिने । नमः ॐ विष्णु पादय, कृष्ण पृष्ठाय भूतले, श्रीमते भक्ति वेदांत स्वामिन इति नामिने । नमस्ते सरस्वते देवे गौर वाणी प्रचारिणे, निर्विशेष शून्य-वादी पाश्चात्य देश तारिणे ।। जय श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद, श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द ।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। हरे कृष्णा सभी भक्तों के चरण कमलों में दंडवत प्रणाम। आदरणीय श्री गुरु महाराज जी के चरणों में सादर दंडवत प्रणाम। मेरा परम सौभाग्य है कि आप सभी परम वैष्णव के चरणों में कुछ भगवत चर्चा करने का सुअवसर महाराज श्री के द्वारा, भक्तों के द्वारा प्रदान किया गया है, साथ ही साथ इस बात का खेद है कि इतने वरिष्ठ सन्यासी राधारमण महाराज जी उनका संग हम लोगों को प्राप्त नहीं हो पा रहा है लेकिन फिर भी उनकी अनुपस्थिति में जो भी कुछ गुरु महाराज, वैष्णवों से जो भी आस्वादन किया हैं, श्रवण किया है उसीको आप लोगों के समक्ष रखने का प्रयास करूंगा। आदरणीय परम पूज्य राधारमण स्वामी महाराज जी से ही मैं एक बार चर्चा कर रहा था तो उन्होंने बड़ा सुंदर एक प्रसंग बताया। एक बंगाली कवि थे उन्होंने ऐसी एक कृति लिखी तो उसमें भी बता रहे थे कि एक बार सूरज ने पूछा कि मैं तो अस्त हो रहा हूँ, सूर्य अस्ताचल पर जा रहे थे तो उन्होंने पूछा कि मेरी अनुपस्थिति में कौन ऐसा व्यक्ति है जो इस सारे संसार को प्रकाश देने का कार्य करेगा तो वहां पर बहुत सारे नक्षत्र, तारे गण और ग्रह इत्यादि उपस्थित थे। हर कोई सोच में डूबा हुआ था कि सूर्य की अनुपस्थिति में कौन है जो संसार को प्रकाश प्रदान करेगा तो महाराज श्री अपनी सुंदर सी मुस्कुराहट के साथ यह बात बताया करते थे कि उस भीड़ में से एक छोटा सा जो दीया है वह आगे बढ़ता है, सबको हटाता हुआ, सबको पीछे छोड़ता हुआ और आगे आकर कहने लगता है कि मैं हूं मैं हूं जब आप चले जाएँगे जब तक आप पुनः उदय नहीं होंगे तब तक इस संसार को वो दीया है वो कहता हैं कि मैं प्रकाश देने का कार्य करूंगा। अचानक से यह प्रसंग याद आ गया तो यह आप लोगों के समक्ष रख रहा हूं और ऐसी कुछ परिस्थिति अभी यहाँ पर बनी हुई है परम पूज्य श्रील गुरु महाराज जी उनका भी स्वास्थ्य थोड़ा सा अभी इतना ठीक नहीं है, उन्ही के अनुपात में या उन्ही को रीप्रजेंट करते हुए पिछले कुछ दिनों से काफी सारे भक्त अपने – अपने भावों को रख रहे हैं। उसी श्रंखला में परम पूज्य राधारमण स्वामी महाराज का मार्गदर्शन भी हमें मिलना चाहिए था लेकिन किसी कारणवश हमें वह नहीं मिल पाया तो उनकी अनुपस्थिति में ये छोटा सा दिया, मैं जो भी कुछ स्मरण आ रहा है आप लोगों के समक्ष रखने का प्रयास करूंगा। एक विशेष श्लोक है। उस श्लोक के ऊपर चर्चा करने का मैंने विचार किया। श्लोक इस प्रकार से है आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता । श्रीमद भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतामिदं तत्रादशे नः परः ।। (चैतन्य मंज्जुषा) अनुवाद : भगवान व्रजेन्द्रन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है । व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी , वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है । श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्दप्रमाण है एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ है - यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय है। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी द्वारा रचित यह बड़ा ही सुन्दर यह श्लोक है। एक ही श्लोक में सारे वैष्णव जो रागानु मार्ग के भक्त हैं, वैष्णव भक्त हैं, राधा कृष्ण के उपासक भक्त है। उन लोगों का जो सिद्धांत है, संपूर्ण सिद्धांत इस एक श्लोक में बताया गया है। महाराज श्री के मुखारविंद से मैं यह सुन रहा था और उसी की चर्चा हम लोग यहां पर करने का प्रयास करेंगे। इस श्लोक में कहा गया है कि आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता। इसका अर्थ है कि हम जो वैष्णव वृंद है भगवान की जो उपासना करते हैं, भक्ति करते हैं तो हम लोगों के जो आराध्य स्वरूप है जिनकी हम आराधना करते हैं, पूजा अर्चना करते हैं, वंदन अर्चन इत्यादि करते हैं तो वह हमारे जो प्रभु है ब्रजेशतनय ब्रज के जो ईश्वर है नंद बाबा उनके सुपुत्र भगवान श्री नन्द नंदन श्यामसुंदर कृष्ण जो है वह हमारे उपासक है, आराध्य है, पूज्य हैं। उनकी हम आराधना करते हैं। आराधना का स्थान क्या है तो कहते हैं धाम वृंदावन। हम वृंदावन धाम में, वैसे तो कई काफी सारे भगवान के धाम है तीर्थ है उनमें भी वृंदावन बहुत विशेष महत्व रखता है। वृंदावन धाम में स्थित होकर हम ब्रजेशतनय भगवान की हम आराधना करते हैं। स्थान यदि वृंदावन है तो हमारी पूजा की जो विधि है वह गोपियों के द्वारा प्रस्थापित विधि है। भक्ति का अवलंबन हम किनके चरणों का अनुगमन करके करते हैं। तो कहा गया है कि गोपियों के द्वारा व्रजवधू का अर्थ हैं वृन्दावन कि वधु गोपियों जो हैं उन्होंने जिस प्रकार भगवान की भक्ति की है। यह हमारी भगवान कि भक्ति करने की विधि है। प्रमाण है ग्रन्थ राज श्रीमद्भागवत महापुराण जो है यह हमारा आधारभूत ग्रंथ है। इन साडी चीजों के द्वारा हम जो पुरुषार्थ प्राप्त करना चाहते हैं वो भगवान श्री कृष्ण का प्रेम है। किसने निर्धारित किया है तो कहते हैं ये जो विधि हैं इसका अनुमोदन करने वाले व्यक्ति जो है वे श्री चैतन्य महाप्रभु है। इसलिए कहते हैं कि आप इन चीजों का अवलंबन कीजिए, आदर कीजिए। इसके अलावा और किसी चीज की आवश्यकता नहीं है। ये चीजे एक वैष्णव के जीवन में बहुत अधिक महत्व रखती है। इस प्रकार से कुछ गीने चुने वाक्यों में ही हमारे सारे वैष्णव सार को, वैष्णव सिद्धांत को यहां पर हमारे आचार्य हमको बता रहे हैं। पिछली बार कुछ कथा का वर्णन किया गया था। मुझे जब मुझे सेवा करने का अवसर मिला था। इस बार मुझे लगा कुछ थोड़ा शास्त्रीय चर्चा, चिंतन किया जाए। काफी वरिष्ठ भक्त और वैष्णव यहां पर उपस्थित है। महाप्रभु एक जगह कहते हैं कि सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस। इहा हुइते कृष्णे लागे सुदृढ़ मानस ।। (चैतन्य चरित्रामृत 2.117) अनुवाद - निष्ठापूर्ण जिज्ञासु को चाहिए कि ऐसे सिद्धान्तों की व्याख्या को बिवादास्पद मानकर उनकी उपेक्षा न करे, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं से मन दृढ़ होता है। इस तरह मनुष्य का मन श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त होता है। काफी जगह पर शास्त्रों में, भागवत में भी काफी सैधांतिक चर्चा की गई है। जब सिद्धांत की बात आती है, कथा कीर्तन हर किसी को अच्छा लगता है, भगवान की लीला को श्रवण करना भी, भगवान कि लीला मधुरतम होती है। हर किसी को यह लीला रास आती है, अच्छी लगती है। सुनने में भी अच्छी लगती है, आनंद आता है। लेकिन जहां पर सिद्धांत की बात होती है तो लोग जो है थोडा आनाकानी करने लगते है। महाप्रभु कहते हैं जब सिद्धांत की बात आती है तो हमें आलस नहीं करना चाहिए क्योंकि उसका लाभ यह हैं कि जब हम सैधांतिक चर्चा करते हैऔर किसी तत्व को अच्छी तरह से जानने लगते हैं, समझने लगते हैं तो दृढ़ता के साथ हम भगवान की भक्ति कर सकते है। दृढ़ता के साथ हमारा ह्रदय, हमारा चित्त भगवान के चरणों में लग सकता है। हमारा जो मानस है वह भगवान के चरणों में लग सकता है। बताया गया है कि दो प्रकार की श्रद्धा होती है एक तो कोमल श्रद्धा और दूसरी निष्ठा होती है दृढ़ श्रद्धा। जब हम नए-नए भक्ति में आते हैं तो हमारी श्रद्धा कोमल होती है और कोमल श्रद्धा का अच्छा है जिसके कारण हम लोग भगवान की भक्ति में तो लगते हैं। हमें ज्ञान प्राप्त होता है भक्ति में जुड़ जाते हैं। लेकिन जब तक ये श्रद्धा और निष्ठा में परिवर्तित नहीं होती है तब तक भक्ति में हमें बड़ा ही अल्प लाभ मिलता है। भक्ति का यह लाभ छूटने के चांसेस होते हैं। भक्ति से विमुख होने के हमारे चांसेस होते हैं। इसलिए हमारी कोमल श्रद्धा है उसे दृढ करना, निश्चित करना यह हमारा परम कर्तव्य है। उसके लिए सिद्धांत को समझना और जानना बहुत अधिक जरूरी होता है। इसीलिए शास्त्रों में भी भागवत जैसे परम रसमय, जो ग्रंथ रस का आगार, रसमालयम कहा गया है ऐसे भागवत ग्रन्थ में भी काफी जगह आप लोग देखेंगे तो सिद्धांत की चर्चा हम लोगों को सुनने को मिलती है। यह वैष्णवों का एकदम सरल सिद्धांत है इसको बड़ी आसानी से और बड़ी सरल भाषा में विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी यहां पर बता रहे हैं। यह कुछ बातें हैं जो इस्कॉन के हर एक भक्त को, व्यक्ति को जो इस्कॉन से जुड़े हुए हैं और खास करके जो प्रचारक हैं उनको इन बातों को बड़ी ही स्पष्टता के साथ जानना, समझना बहुत अधिक अत्यधिक आवश्यक है। उसमें सबसे पहली बात यह है कि हमारे जो आराध्य स्वरूप प्रभुहै, भगवान है जिसकी हम उपासना करते हैं। वे ब्रजेशतनय नन्द नंदन श्याम सुन्दर श्रीकृष्ण है। हम भगवान कृष्ण के उपासक है एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य। यारे यैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य ॥ (चैतन्य चरित्रामृत आदि लीला 5.142) अनुवाद - एकमात्र भगवान् कृष्ण ही परम नियन्ता हैं और अन्य सभी उनके सेवक हैं। वे जैसा चाहते हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं। और जो सभी शास्त्र जो है, सभी शास्त्रों में इसे प्रतिपादित किया है। भगवान श्री कृष्ण स्वयं गीता में कहते हैं कि सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च | वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || (श्री मद्भगवत गीता 15.15) अनुवाद - मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ | संस्कृत में वेद शब्द का अर्थ है विद धातु से ये शब्द बना है जिसका अर्थ होता है जानना । भगवान कहते कि संसार में जानने योग्य केवल मै हूं। किसी ने पूछा भगवान से कि आप यह कैसे बता सकते हैं तो भगवान ने कहा कि क्योंकि वेद का रचयिता मै हूं। ऐसा नहीं है कि मैंने रचना कर ली है तो कोई पढ़ कर समझ लिया होगा या जान लिया होगा। ऐसी भी बात नहीं है। भगवान कहते हैं ब्रह्मा जी जो आदी जीव है, भगवान के पुत्र हैं। हमारे संप्रदाय के जो बड़े आचार्य है। भागवत में ऐसा उदृत है कि ब्रह्मा जी को भी इतनी आसानी से वेद समझ में नहीं आए। उनको भी काफी बार वेदों का आवर्तन करना पड़ा तब जाकर कुछ भाग को वे समझ पाए। भगवान कहते हैं कि लिखने वाला तो मैं हूं ही, वेदों का रचयिता तो लेकिन वेदों को जानने वाला भी भगवान कहते हैं मैं ही हूं और फिर सारे वेद का सार - निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् । पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ॥ (श्रीमद्भागवतम 1.1.3) अनुवाद- हे विज्ञ एवं भावुक जनों , वैदिक साहित्य रूपी कल्पवृक्ष के इस पक्व फल श्रीमद्भागवत को जरा चखो तो । यह श्री शुकदेव गोस्वामी के मुख से निस्सृत हुआ है , अतएव यह और भी अधिक रुचिकर | गया है , यद्यपि इसका अमृत - रस मुक्त जीवों समेत समस्त जनों के लिए पहले से आस्वाद्य था । मैं बता रहा हूँ कि सारे वेद इसी बात को प्रतिपादित करते हैं कि भगवान श्री कृष्ण को हमें तत्वतः जानना चाहिए। जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || (श्री मद्भगवत गीता 4.9) अनुवाद - हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है | कहा गया है कि जब हम भगवान के जन्म कर्मों को जो दिव्य है, जानते है तो वही व्यक्ति भगवान कहते है कि मेरे पास आ सकता है। भगवान कहते है अच्छी तरह से जानना बहुत जरूरी है, आवश्यक है। हर एक व्यक्ति क्योंकि सभी शास्त्र इस बात को उदृत करते हैं जैसे तुकाराम महाराज जी के शब्दों में कहा जाए तो – वेद अनंत बोलिला । अर्थ इतुकाची साधला विठोबासी शरण जावें । निजनिष्ठे नाम गावें तुकाराम महाराज कहते हैं कि वेद तो वेसे बहुत बात करता है लेकिन उसमें से दो बातें मूलतः इस मंथन से बाहर आती है। वेदों के मंथन से इतनासा ही अर्थ निकलता है हमको भगवान के शरण जाना है और निष्ठा भाव से हमें भगवान के नामों का आश्रय लेना चाहिए। हमारे आराध्य स्वरुप भगवान जो है वे भगवान श्रीकृष्ण है इस बात को जानना बहुत ज्यादा जरूरी है कि हम भगवान श्री कृष्ण के भक्त हैं। और इस संसार का हर एक जीव भगवान का भक्त है। किसी कारणवश को भूल चुका है बाकी एक बार गुरु महाराज कह रहे थे काफी बार आप लोगों ने भी सुना होगा, महाराज जी कहते हैं कि भक्ति जो है वह केवल कृष्ण की की जाती है अन्य किसी देवी-देवताओं की भक्ति नहीं होती है। भक्ति केवल भगवान की होती है, भगवान श्री कृष्ण की होती है। इस बात को समझना बहुत ज्यादा जरूरी है आराध्यो भगवान् व्रजेशतनय। यहां पर आचार्य बताते हैं कि उन्होंने स्पष्ट रूप से भगवान श्री कृष्ण नहीं कहा है। उन्होंने कहा कि हम उन भगवान के भक्त हैं जो ब्रज के ईश्वर नंद बाबा है, वृंदावन के ब्रजेंद्र, वृंदावन के जो राजा है - नंद बाबा उनके तनय, उनके पुत्र के हम भक्त हैं। इतना विस्तार से कहने की और इतना स्पष्टता से कहने की क्या आवश्यकता पड़ी तो आचार्य लोग इस बात को बताते हैं कि भगवान श्री कृष्ण की, भगवान के वैसे तो काफी सारे अवतार है लेकिन साक्षात भगवान श्री कृष्ण में भी आचार्यों के द्वारा अपने अपने भाव के अनुसार भगवान की लीलाओं का भी वैसे तो व्यक्ति भेद नहीं है भगवान में लेकिन लीलाओं में भेद किया गया है और अलग-अलग लीलाओं के माध्यम से अलग अलग रस के जो भक्त है वे भगवान की उपासना करते हैं। इसका यदि और भी स्पष्ट रूप से यह भी पूछा जाए कि नहीं बताइए सही मायने में आप किनके भक्त हैं, कभी कोई यदि ऐसे पूछता है तो उसका जवाब यह है कि हम श्याम सुंदर कृष्ण, जो वृंदावन वाले कृष्ण हैं, जो नंद बाबा के पुत्र हैं, यशोमती नंदन है, नंद नंदन है, ऐसे श्यामसुंदर भगवान के हम भक्त हैं। जीव गोस्वामी आदि आचार्यों के द्वारा भगवान की लीलाओं में भी अलग-अलग प्रकार का भेद किया गया है जैसे ब्रज की लीलाएं अलग होती है, मथुरा की लीलाएं अलग होती है, द्वारका की लीलाएं अलग होती है और भगवान की कुछ लीलाओं से हमें ये बात समझ में भी आती है कि इनकी लीलाओं में काफी सारा भेद है। एक बार एक आचार्य, वर्तमान आचार्य बता रहे थे कि आप देख सकते हैं कि भगवान वृंदावन में जितने भी राक्षसों का वध करते हैं क्योंकि वृंदावन में असुर वध की जो लीला हैं वह मुख्य नहीं है वह गौण है ऐसा बताया गया है। असुरों के वध की या उनके उद्धार की लीलाएं जब भगवान करते हैं वृंदावन में तो आपने देखा होगा कि किसी भी प्रकार के शस्त्र अस्त्र का प्रयोग भगवान नहीं करते हैं कितने भी राक्षसों का चाहे पूतना हो, अघासुर हो, बकासुर हो, वत्रासुर हो, धेनुकासुर हो, सभी प्रकार के असुर। अलग-अलग प्रकार से उन्होंने खेलते खेलते उनका संघार किया है, उनका उद्धार किया हैं और जैसे ही भगवान वृंदावन छोड़कर मथुरा चले जाते हैं तो उसके बाद में उन्होंने जो - परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || (श्री मद्भगवत गीता 4.8) अनुवाद - भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ | यह कार्य अपने हाथ में लेते हुए फिर चक्र धारण किया और उसके बाद में जितने भी राक्षसों का वध होता है चाहे महाभारत हो या जरासंध वध की लीला हो बहुत सारे राक्षसों का उन्होंने वध किया दन्तवक्र, विदुरज, साल्व, पोंड्रक इत्यादि बहुत सारे राक्षसों का वध भगवान नें किया यहाँ पर हम देख सकते हैं कि उन्होंने इसके लिए अलग अलग शस्त्रों का प्रयोग, इस्तेमाल भगवान ने किया। वृन्दावन में हम देखते हैं कि वृंदावन में भगवान का एक अलग ही करैक्टर होता है जैसे ही वृंदावन छोड़ कर बाहर चले जाते हैं लीला के स्तर पर तो वहां पर भगवान का एक अलग ही स्वरूप आपको देखने को मिलता है। आचार्य कहते हैं कि हम लोग भी उन भगवान श्री कृष्ण के भक्त हैं जो नंद बाबा के पुत्र हैं। बृजेश तनय है। भगवान वैसे तो षड ऐश्वर्य संपन्न है लेकिन यहां पर एक विशेष रस पूर्ण लीला का उद्घाटन भगवान इस वृंदावन धाम में करते हैं। ऐसे भगवान श्री कृष्णा और इन बातों की चर्चा आचार्यों ने भागवत के अलग-अलग प्रसंगों में जैसे भगवान श्री कृष्ण के जन्मोत्सव नंदोत्सव लीला को देखते हैं। पहला ही श्लोक है श्रीशुक उआच नन्दस्त्वात्मज उत्पन्ने जाताहादो महामनाः । आहूय विप्रान्वेदज्ञानातः शुचिरलङ्कतः ॥ वाचयित्वा स्वस्त्ययनं जातकर्मात्मजस्य वै कारयामास विधिवत्पितृदेवार्चनं तथा ॥ (श्रीमद्भागवतम 10.5.1 & 2) अनुवाद - शुकदेव गोस्वामी ने कहा : नन्द महाराज स्वभाव से अत्यन्त उदार थे अत: जब भगवान् श्रीकृष्ण ने उनके पुत्र रूप में जन्म लिया तो वे हर्ष के मारे फूले नहीं समाए । अतएव स्नान द्वारा अपने को शुद्ध करके तथा समुचित ढंग से वस्त्र धारण करके उन्होंने वैदिक मंत्रों का पाठ करने वाले ब्राह्मणों को बुला भेजा । जब ये योग्य ब्राह्मण शुभ वैदिक स्तोत्रों का पाठ कर चुके तो नन्द ने अपने नवजात शिशु के जात - कर्म को विधिवत् सम्पन्न किए जाने की व्यवस्था की । उन्होंने देवताओं तथा पूर्वजों की पूजा का भी प्रबन्ध किया । इस श्लोक कि टिका में श्रील जीव गोस्वामी कहते हैं कि ये जो श्याम सुन्दर कृष्ण हैं ये नन्द बाबा के अपने पुत्र हैं। आत्मज है। आत्मज का अर्थ है कि यह मेरा बेटा है यह मेरा लड़का है जैसे कि प्रत्यक्ष रूप में साक्षात रुप से नंद बाबा यशोदा मैया के गर्भ से भगवान प्रकट हुए हैं और इस लीला का उद्घाटन करते हुए जीव गोस्वामी कहते हैं कि एक साथ गोकुल अष्टमी को रात में एक साथ दो जगह पर भगवान प्रकट हुए थे एक तो नन्द गोकुल में यशोदा मैया के गर्भ से और दूसरा देवकी माता के गर्भ से। जैसे ही वहां पर वसुदेव जी भगवान को ले आते हैं और वहां पर रखते हैं तो नंद नंदन श्यामसुंदर में वासुदेव कृष्ण हैं मथुरा वाले वह मिल जाते हैं और जब अक्रूर आते हैं यहां पर अक्रूर जी जैसे ही वृंदावन की व्रज कि पारी सीमा जो है उसकी सीमा को पार करके मथुरा जाने वाले होते हैं वहां पर अक्रूर घाट आप आज भी देख सकते हैं। वहां पर स्नान करने के लिए जब वे उतरे तो उनको भगवान के दर्शन चतुर्भुज नारायण के रूप में यमुना जल में प्राप्त हुआ तो आचार्य बताते हैं कि उस स्थान पर वृंदावन वासी कृष्ण है वे पीछे ही रह गए और उनके साथ जो आगे बढ़े हैं वह वासुदेव कृष्ण हैं। जो धर्म की स्थापना करने के लिए अपने आप को समय समय पर प्रकट करते है। जन्माष्टमी को वसुदेव जी लेकर आए थे वे वाले आगे बढ़ गए। एक जगह बड़ा सुंदर श्लोक आता है जहा पर भगवान के बारे में कहा गया हैं – वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति' वृन्दावन को छोड़कर कृष्ण एक पग भी बाहर नहीं जाते। भगवान श्री कृष्ण के बारे में कहा गया है कि भगवान वृंदावन को छोड़कर एक पैर भी वृंदावन के बाहर नहीं रखते हैं। हमेशा भगवान हमेशा वृंदावन में ही स्थित रहते हैं। प्रकट रूप से अप्रकट रूप से नित्य और नैमीतिक लीलाओं को भगवान करते रहते हैं और वृंदावन धाम में करते रहते हैं तो इसलिए आगे आचार्य कहते हैं बृजेश तनय जो हमारे भगवान हैं उनकी उपासना करने का जो हमारा स्थल है वह मुख्य रूप से वृंदावन ही है। हम भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं और वह भी वृंदावन धाम में करते हैं। इसको धाम निष्ठा कहते हैं। भगवान के जो रसिक भक्त हैं वो जितना आदर भगवान का करते हैंक्यों कि भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम इत्यादि में कोई भेद नहीं है। वृन्दावन के प्रति भी कई अनुरक्त भक्त आपको दिखाई देते है जिन्होंने धाम वास का प्रण लिया है, प्रतिज्ञा की है, अधिकतर धाम में ही रहते हैं। कई सारे भक्त ऐसे भी होते हैं जो एक बार आकर वृंदावन में बस जाते हैं फिर कभी वृंदावन नहीं छोड़ते हैं। इस प्रकार से धाम निष्ठा काफी सारे भक्तों में देखी जाती है। एक बड़ा ही सुंदर पद है उसमें एक रसग्य भक्त हिंदी की कविता है उसकी एक पंक्ति है कहते हैं विपिन राज्य सीमा के बाहर हरि को नु निहार ऐसे कहते हैं कि भगवान के धाम के प्रति भक्त इतने अनुरक्त होते हैं, इतने आसक्त होते हैं धाम में कहा गया है कि वे भगवान श्री कृष्ण के दर्शन तो करना चाहते हैं, उनकी सेवा पूजा तो करना चाहते हैं, उनकी आराधना तो करना चाहते हैं लेकिन वृंदावन में रहते हुए करना चाहते हैं। वृंदावन के बाहर जाकर वो भगवान के दर्शन तक नहीं करना चाहते। इन पंक्तियों का यह अर्थ हैं - विपिन कहते हैं जंगल को वन को और विपिन राज कहते हैं वृंदावन को क्योंकि ये वनों का राजा है। विपिन राज्य सीमा के बाहर एक वन है वृंदावन उस वन को भी वृंदावन कहते हैं और ये द्वादश कानन है, बारह वन है। अलग-अलग प्रकार के वृंदावन में मुख्य रूप से छोटे-मोटे। कोकिला वन इत्यादि उपवन भी हैं लेकिन मुख्य रूप से बारह वन है। आप सब लोग जानते हैं जैसे यमुना जी है उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है उनके दो तट है पूर्वी तथा पश्चिमी तट है। भगवान ने इन बारह वनों में मुख्य रूप से लीलाएँ की हैं। इन बारह वनों का विभाजन यमुना मैया के कारण हुआ है। पूर्वी तट पर हमें पांच वन दिखाई देते हैं और पश्चिमी तट पर सात वन है। पूर्वी तट पर जो वन है कहा जाता है कि वह दाऊ दयाल बलराम जी के वन है और पश्चिमी तट के जो सात वन है वह भगवान श्री कृष्ण के हैं। मुख्य रूप से स्मरण हुआ है तो एक बार पुनः वनों का स्मरण करेंगे जो सबसे पहला वन है उसे मधुवन कहते हैं मधुवन, ताल वन, कुमुद वन, बहुला वन और पांचवे क्रमांक पर है वृंदावन। वृंदावन में जो आजकल नंद गांव है, बरसाना है, गोवर्धन है और आजकल का जो वृंदावन है वह सारा वृंदावन नामक जो बारह वनों के अंतर्गत एक वन है उसी वृंदावन का एक भाग है। यह पांचवा वन है। सामवन और खादिर वन यह जो सात वन है यह पश्चिमी तट के हैं और पूर्वी तट के जो वन है भद्र वन, भांडीरवन, बेल वन जहाँ पर लक्ष्मी जी या श्री वन भी कहते हैं जहां लक्ष्मी जी उपासना कर रही हैं। एक है लोहवन और महावन जहां पर गोकुल स्थित है तो इस प्रकार से इन बारह वनों को मिलकर जिसको हम ब्रिज कहते हैं ब्रज चौरासी कोस कहते हैं। इन सब को भी वृंदावन कहा जाता है। भगवान की हम उपासना करते हैं तो वृंदावन में रहते हुए करते हैं। वृंदावन के परिसीमन का परित्याग करके हम कहीं भी बाहर जाकर यदि भगवान खुद कहते हैं कि आओ मेरा दर्शन करो तभी धाम के प्रति इतने निष्ठावान भक्त होते हैं वे कहते हैं कि हम धाम छोड़कर प्रभु बाहर नहीं आएंगे हम आपका दर्शन करना चाहते हैं आपकी उपासना करना सेवा आराधना करना चाहते हैं लेकिन आपसे एक विनती है कि आप धाम के भीतर आइए। इस धाम में रहते हुए हम आपकी सेवा करना चाहते । हम इस वृंदावन की परिसीमन के बाहर जाकर हरि का भी दर्शन नहीं करना चाहते तो इस प्रकार से यह बड़ा ही सुंदर भगवान का धाम है और धाम क्या यह तो भगवान का अपना घर है। बृजेंद्र नंदन भगवान हमारे स्वामी है और हम उनकी आराधना करते हैं और वह भी वृंदावन में करते हैं। भगवान के भक्तों में सर्वोच्च क्रमांक यदि किसी का है राधा रानी सर्वश्रेष्ठ भक्त है, भक्त क्या वे तो साक्षात् भगवान का ही स्वयं प्रकाशित स्वरूप है। सनातन गोस्वामी के अनुसार व्रह्त भागवत रूप में देखते हैं तो पता चलता है कि उन्होंने भक्तों का क्रम बनाया है उसमें सबसे उच्च प्रथम क्रमांक पर जो भक्ता आती है वह गोपियां है। उनके नीचे नीचे उद्धवजी है धीरे-धीरे से क्रम आगे बढ़ता है। सबसे उच्च भक्त भगवान की गोपियां है। समय के अभाव में हम विस्तार से नहीं बता पाएंगे। आपने बड़ी प्रसिद्ध कथा सुनी होगी कि भगवान का सर दर्द हो रहा था तो नारद जी ने खूब प्रयास करने के किसी भक्त ने अपने चरणों की धूल नहीं प्रदान की वहीं पर सभी गोपियां बहुत सारी धूलि इकट्ठा करके नारद मुनि को दे रही थी ले जाइए और इसे भगवान के माथे पर लगा दीजिए ठीक हो जाएंगे तो नारद मुनि ने कहा आपके चरणों की धूलि यदि भगवान के मस्तक पर पड़ जाए तो आपको नरक यातना भोगनी पड़ेगी। वह साक्षात प्रभु है तो गोपियों ने कहा कि हमारे इस प्रयास से भगवान को किंचित क्षण के लिए यदि राहत मिलती है तो अनंतकोटी जन्मों-जन्मों तक हम लोग नर्क में वास करना स्वीकार करते हैं। इस प्रकार की उच्च कोटि की भावना गोपियों की है जो भगवान की प्रसन्नता के लिए किसी भी प्रकार का कष्ट कहो, उनके लिए वह कष्ट की बात नहीं है उनके लिए वह प्रेम का, भक्ति का एक तरीका है जिसको यहां पर महाप्रभु अनुमोदित कर रहे हैं गोपीकाओं के द्वारा जो त्याग मार्ग का अवलंबन किया गया है, यही हमारा वैष्णवों का मार्ग है। जिसके माध्यम से हम भगवान को प्रसन्न करते हैं। श्रीमद्भागवत हमारा मूल ग्रंथ है जिसमें प्रभुपाद जी भी कहते हैं हमारे ग्रंथ ही हमारे आधार स्वरूप है। इन ग्रंथों में श्रीमद्भागवत का एक विशेष महात्म्य है क्योंकि इसको महापुराण कहा गया है क्योंकि साक्षात भगवान का ही स्वरूप ग्रंथ है। वाक्य स्वरूप भगवान की मूर्ति है वान्गमयी मूर्ति उसे कहते हैं। भागवतम हमारा आधारभूत ग्रंथ है। श्रीमद् भागवत में ज्ञान वैराग्य मिश्रित नहीं है तो यह अमल पुराण है और इसको अनुमोदित करते हैं, प्रतिपादित करते हैं साक्षात् श्री चैतन्य महाप्रभु जो स्वयं राधा-कृष्ण है। इस विधि के द्वार जैसे कोई भी कार्य यदि व्यक्ति करता है तो किसी न किसी पुर्सार्थ को प्राप्त करना चाहता है तो मुख्यरूप से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को पुरुषार्थ कहा गया है यह पंचम पुरसार्थ कहा गया है। सर्वोच्च स्थिति इस मनुष्य जन्म का लाभ जो उठाना चाहता है तो उसे अपने जीवन काल में भगवान का प्रेम करना चाहिए और इस बात का अनुमान साक्षात् श्री चैतन्य महाप्रभु जो स्वयं भगवान हैं करते है । इन बातों का हम को ध्यान रखना चाहिए और इन्हीं का अवलंबन करना चाहिए। इन्ही का आदर करना चाहिए और आचार्य कहते हैं और फिर पुष्टिमार्गीय देवी देवताओं की या किसी प्रकार की विधि की हमें कोई आवश्यकता नहीं है। किसी अन्य चीजों की आवश्यकता हमको भक्ति मार्ग पर नहीं है। इन्ही बातों का यदि हम अवलंबन करते हैं तो हम भी मनुष्य जीवन का प्रमोद जो लक्ष्य कृष्ण प्रेम उसको हम बड़ी आसानी से प्राप्त कर सकते है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे राधा श्यामसुंदर भगवान की जय गौरांग महाप्रभु नित्यानंद प्रभु की जय जगद्गुरु श्रील प्रभुपाद की जय पतित पावन श्रील गुरु महाराज की जय समस्त वैष्णव वृन्द की जय निताई गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल

English

Russian