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*हरे कृष्ण* जप चर्चा, पंढरपुर धाम, १० जनवरी २०२१ 773 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। हरि हरि। कैसे वासुदेव नम: को नमस्कार भगवते वासुदेव भगवान को, वासुदेव जो भगवान है उनको नमस्कार। ऐसा ही साक्षात्कार हुआ अर्जुन उवाच, भगवत गीता अध्याय 10 श्लोक संख्या याद है आपको? 11वा श्लोक, कुछ को याद है और भगवत गीता है आपके पास? अर्जुन ने कहा उवाच मतलब कहा एक संस्कृत का शब्द हम सीख भी सकते है। तो उवाच मतलब कहा। एक बार समझ लिया उवाच का अर्थ तो फिर वेदिक वांडमय में कितने जगह हजारों जगह उवाच उवाच गीता में भागवत में पुराणों में उपनिषदों में उवाच उवाच चलता है मतलब कहा। अर्जुन उवाच *परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।। आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥* (श्री मद् भगवतगीता १०-१२.१३) अनुवाद:-अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं। अर्जुन ने कहा और भी कहा है दो श्लोक साथ में लिखे हैं। इससे पहले श्लोक में अर्जुन ने अपना साक्षात्कार हमें सुना रहे हैं। मैं आपको कब से सुन रहा हूं। ज्यादा समय तो नहीं लिया अर्जुन ने यह बातें समझने में। कुछ 20-25 मिनट बीत चुके हैं इतने में अर्जुन को साक्षात्कार भी हुआ। हमें तो 20-25 साल ही नहीं, 20-25 जन्म बीत भी सकते है। इसलिए कृष्ण ने कहा है *बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |* *वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः || १९ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 7.19) अनुवाद अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है | तो हम तो लगाते हैं किंतु सदियां बीत जाती है। कई जन्म जन्मांतर के उपरांत वासुदेव सब कुछ है। ऐसा ज्ञान, ऐसा अनुभव, ऐसा साक्षात्कार होता है। हरि हरि। ऐसे अर्जुन श्रोता है। ऐसे अर्जुन शिष्य हैं। ऐसी श्रद्धा है अर्जुन की। *श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः |* *ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति || ३९ ||* अनुवाद - जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त होता है | व्यक्ति श्रद्धालु है, श्रद्धालु को ही ज्ञान प्राप्त होता है। हम संशय करेंगे तो विनाश होगा। श्रद्धा है तो हम ज्ञानवान बनेंगे। अर्जुन श्रद्धालु है, शिष्य बने हैं और उन्होंने निवेदन भी किया था। *कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः* *पृच्छामि त्वां धर्म सम्मूढचेताः |* *यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे* *शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां* *प्रपन्नम्* *|| ७ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 2.7) अनुवाद - अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें | हे प्रभु, जिन जिन बातों में मेरा कल्याण है, उन बातों को कहिए। मैं आपकी शरण में आया हूं मुझे उपदेश दीजिए। तो ऐसे मन की स्थिति कृष्ण को सुने हैं अर्जुन। वैसे इस श्लोक को पूरा समझाए तो नहीं किंतु मेरा ध्यान इस बात पर आ गया। जैसा मैं कह रहा हूंतो उसका संबंध अक्ल ऐसे अगले श्लोक के साथ है। श्लोक संख्या 14 में अर्जुन कहते हैं। *सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव |* *न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः || १४ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 10.14) अनुवाद - हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ | हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं | ऐसे ही श्रद्धालु है अर्जुन। आप जो भी कह रहे हो, आप सच ही कह रहे हो। ऐसी श्रद्धा है अर्जुन की आप जो भी कह रहे हो, कैसे क्या कह रहे हो। *सर्वम एतत* मतलब जो जो कहा है आपने। *ऋतम्* मतलब सत्य ऋतम् शब्द का अर्थ है सत्य। *मन्ये* मुझे मंजूर है, 100 प्रतिशत। *यन्मां वदसि* जो आप सत्य मुझे सुना रहे हो। यह तो सत्य है। आप भी सत्य हो और आप जो भी कहते हो वो भी सत्य है। ऐसी श्रद्धा के साथ अर्जुन श्रवण कर रहे हैं। कृष्ण को सुन रहे हैं और उसी का ही तो परिणाम है उसी के फल स्वरुप अब उनको यह अनुभव हो रहा है और वह अनुभव क्या है? परम ब्रह्म - अर्जुन कृष्ण को कह रहे हैं। अर्जुन अर्जुन है उनके समक्ष श्री कृष्ण है। दोनों ही रथ पर विराजमान है, दोनों सेना के मध्य में है। तो अर्जुन एक और श्रीकृष्ण एक है। दो एक नहीं है। स्पष्ट है उस लीला में, यह लीला है भगवत गीता का उपदेश जो श्रीकृष्ण सुना रहे हैं यह लीला है श्रीकृष्ण की। ऐसी लीला रची है भगवान ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में। भगवान लीला खेल रहे हैं। उस लीला में, लीला किसी के साथ खेली जाती है और भक्त चाहिए और जीव चाहिए और भगवान फिर उनके साथ मिलकर लीला खेलते हैं। आदान-प्रदान होता हैं कुछ कार्यकलाप होता है। तो बोलना, कहना भी कार्य है। तो यह बोल रहे हैं श्रीकृष्ण *श्रीभगवान उवाच*, फिर *अर्जुन उवाच* उस लीला के मध्य में संवाद हो रहा है यह लीला है। कृष्ण भी है और अर्जुन भी है। यहां अर्जुन को साक्षात्कार हुआ *अहम ब्रह्मस्मी* आप भी ब्रह्म हो और मैं भी ब्रह्म हूं। तो ब्रह्म में ब्रह्मलीन हुआ ऐसा साक्षात्कार नहीं हो रहा है। जो अद्वैतवादियों का मायावादियों का साक्षात्कार होता है। जो अधूरा होता है। हरि हरि। ऐसे साक्षात्कार की पुष्टि, समर्थन गीता और भागवत नहीं करते। यह साक्षात्कार भगवत साक्षात्कार है। अर्जुन को आत्म साक्षात्कार हो रहा है। मैं भी हूं और आप भी हो। अर्जुन भी है और भगवत साक्षात्कार और आप भी हो। आप परम ब्रह्म हो। हरि हरि। *ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |* *मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति || ७ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 15.7) अनुवाद - इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है । आपने कहा है मैं आपका अंश हूं। तो ठीक है मैं भी ब्रह्म हूं। लेकिन आप परमब्रह्म हो। मैं केवल ब्रह्म ही हूं। परमब्रह्म का अंश ब्रह्म हूं। मैं भी आत्मा हूं आप भी आत्मा हो। आप परमात्मा हो मैं आत्मा हूं। आप विभु आत्मा हो और मैं अनु आत्मा हूं। अनु मतलब छोटा सा और विभु मतलब महान आत्मा। यह इसीलिए सब हम कह रहे हैं ताकि मायावादियों का निर्गुण वादी जो होते हैं उनके साक्षात्कार की पुष्टि या नहीं हो रही है, वैसे साक्षात्कार अर्जुन का नहीं हो रहा है। अर्जुन के साक्षात्कार को तो समझो। तभी तो हमको भी साक्षात्कार होगा। हम सीखना चाहते हैं अर्जुन का क्या है साक्षात्कार। क्या अनुभव है अर्जुन का। इस श्लोक के तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद लिखे हैं दूसरी पंक्ति में तात्पर्य। इस अध्याय के चार महत्वपूर्ण श्लोकों को सुन। अर्जुन की सारी शंकाएं जाती गई और उसने भगवान को स्वीकार कर लिया। भगवान श्रीकृष्ण को भगवान स्वीकार कर लिया। उसने तुरंत ही उद्घोष किया आपको परब्रह्म हो। मैं आपका ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट करने का विचार है।श्रील प्रभुपाद लिखे है, इस अध्याय के यानी 10वे अध्याय के 4 महत्वपूर्ण श्लोक को सुनकर। चार महत्वपूर्ण श्लोक कौन से हैं? श्लोक संख्या 8,9,10 और 11। इसको हम चतुश्लोकी ऐसा कह रहे थे परिभाषित श्लोक। तो उन श्लोकों को सुनकर। वैसे अर्जुन ने और भी श्लोक सुने हैं। पूरे 9 अध्याय सुने हैं और फिर दसवें अध्याय के चार महत्वपूर्ण श्लोक श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं। ऐसे जो आठवां श्लोक उसको अर्जुन सुने, भगवान ने सुनाया। तो भगवान कहते हैं और भगवान ने जैसे ही कहा उसका अनुभव, उस ज्ञान का हो रहा है। उस ज्ञान के सत्य वचनों को सुन सुन का उसका अनुभव अर्जुन करते हैं और कह रहे हैं। आप परब्रह्म हो, आप परमधाम हो। धाम मतलब आश्रय या स्थान भी होता है। वृंदावन धाम की जय। पंडरपुर धाम की जय। मायापुर धाम की जय। यह धाम ही है। लेकिन भगवान को भी धाम कहा है। मूल धाम तो भगवान है। उस धाम के धामी है भगवान। आश्रय स्थानों में आप सर्वोपरि हो। आप ही आधार हो, आश्रय हो,धाम हो। हरि हरि। परमधाम आप आधार हो। श्रील प्रभुपाद धाम का शब्दार्थ, धाम शब्द का अर्थ आधार कहते है। *पवित्रम परमम भवान* हर बात के साथ परम्म का उपयोग हो रहा है। परम्म का मतलब सर्वश्रेष्ठ। आप ब्रह्म हो तो कैसे ब्रह्म हो परम ब्रह्म। आप धाम हो तो कैसे धाम हो परम धाम। आप पवित्र हो तो कैसे पवित्र हो परम पवित्र हो। यहां भवां भी महत्वपूर्ण है। मैं भी हूं और आप भी हो। अब यहां मेरा अस्तित्व समाप्त नहीं हो रहा है साक्षात्कार के साथ। मैं मैं हूं और आप आप भी हो मेरे समक्ष। इस बात का साक्षात्कार हो रहा है अर्जुन संबोधित कर रहे हैं। पूरे हावभाव के साथ कहते हैं बॉडी लैंग्वेज के साथ क्योंकि आत्मा की बात है! अर्जुन पूरे भाव भक्ति और दृढ़ श्रद्धा के साथ कृष्ण को संबोधित कर रहे है कि, आप परम पवित्र हो, आप स्वयं तो पवित्र हो और आपके संपर्क में जो भी आता है वह भी पवित्र हो जाता है, आप उसे पवित्र बना देते हो! *पतित पावन हेतु तव अवतार* चैतन्य महाप्रभु को कहते है, नरोत्तमदास ठाकुर थे उनसे पूछा गया कि, चैतन्य महाप्रभु को कैसे संबोधित करते हैं तो उन्होंने बताया *पतित पावन हेतु तव अवतार* आपका अवतार किस लिए हुआ है? पतित को पवित्र बनाने के लिए आप प्रकट होते हो। आप के संपर्क में जो भी आता है वह पवित्र हो जाता है, आपकी ऐसी ख्याति है। हरि हरि। हम कृष्ण को सूर्यसम कहते ही है, जैसे कि सूर्य की किरने जहां भी गिरती है वह स्थान अगर गंदा है तो उसके ऊपर भी सूर्य की किरने गिरती है तो स्वयं सूर्य की किरने अपवित्र नहीं होती। और मल मूत्र विसर्जन का स्थान भी है, तो वहां भी सूर्य की किरने पहुंचकर उस स्थान को पवित्र कर देती है, शुद्ध करती है! और स्वयं किरने कभी अशुद्ध नहीं होती। तो वैसे ही भगवान भी पवित्र है! हम जैसे ही उनके संपर्क में आते है, तो भगवतगीता के वचन में भगवान है और गीता भगवान से अभिन्न नहीं है। तो जेसे ही हम गीता को वचनों को सुनते है, इन वचनों के संपर्क में आते है या फिर भगवतगीता सुनी और सुनने वाला कौन है? आत्मा सुनता है! आत्मा के जो भाव और विचार कलुषित हो चुके है, उसमें दोष आया है, उसमें काम, क्रोध, लोभ, भरा हुआ है, अंतःकरण में! जो आच्छादित करता है, तो ऐसी आत्मा जब भगवान को सुनती है जैसे अर्जुन सुन रहे है, तो वैसे ही जब हम भगवतगीता को सुनते है जैसे कि अर्जुन में सुना था अब हमारी बारी है! हमारी आत्मा सुन रही है तो उसी के साथ हम जागृति आती है, और हम पवित्र हो जाते है। चेतो दर्पण मार्जन हो जाता है जब हम भगवान के संपर्क में आते है या उन्हें सुनते है, उनके वचन सुनते है, हरि कथा सुनते है, या गीता के अमृत का पान करते है, या फिर जैसे गीता महात्म में के कहा गया है, *भारतामृतसर्वस्वं विष्णुववक्त्राव्दिनि:सृतम् |* *गीता-गङ्गोदकं पित्वा पुनर्जन्म नविद्यते ||* (गीता महात्म्य ५) अनुवाद:- जो गंगाजल पीता है उसे मुक्ति मिलतीहे ! अतएव उसके लियए क्या कहा जाय जोभगवद्गीता का अमृत पान करता हो?भगवद्गीता महाभारतका अमृत है ओर इसे भगवान् कृष्ण (मूल विष्णु ) ने स्वयं सुनाया है| *गीता-गङ्गोदकं पित्वा* यहां पर गीता की तुलना की है, किसके साथ? गंगा के उदक यानि जल के साथ! *गंगा तेरा पानी अमृत* गंगा के जल का पान करो तो व्यक्ति पवित्र हो जाता है। अमृत! अमर हो जाता है, मरता नहीं है। तो वैसे ही यह गीता अमृत है, तो इसका अगर पान और श्रवण करेंगे और चिंतन करेंगे, सुनी हुई बातों को हृदयंगम करेंगे तो उसी के साथ हम भी पवित्र हो जाएंगे। ऐसे भी श्रद्धा होनी चाहिए! अर्जुन पवित्र हुआ, अर्जुन मोह से मुक्त हुआ, ममता से मुक्त हुआ, उन्होंने घोषित किया तो हमारा भी ऐसा ही अवश्य हो सकता है। *अवश्य रक्षीते कृष्ण*। वैसे श्रद्धा के साथ हम भी सुनेंगे तो पवित्र हो जाएगा। हे भगवान आप पवित्र हो और हम आपके है तो आप हमें भी पवित्र बनाइए। आप चाहते है कि, हम भी पवित्र हो इसीलिए तो हे प्रभु, आप भगवत गीता का संदेश सुनाएं है! तो ऐसा हम विचार कर सकते है। *अर्जुन उवाच* *परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।* *पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।१२* *आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।* *असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।।१३* भगवतगीता १०.१२-१३ अनुवाद:- अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं। आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे है। *परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।* *पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।* तो ऐसे हर एक वचनों का साक्षात्कार कैसे हो? यह भी बहुत बड़ा साक्षात्कार है कि, आप पुरुष हो! पुरुष के साथ जुड़े हुए कई साक्षात्कार है, गोविंद आदि पुरुष, आपका एक व्यक्तित्व है क्योंकि आप पुरुष हो। और फिर हम हैं प्रकृति! ऐसी भी एक समझ है। आप पुरुष हो और हम आप की प्रकृति है। यह प्रकृति कह रही है कि, जैसे अर्जुन भी कृष्ण की प्रकृति है। पुरुष की तटस्थ शक्ति है। तो अर्जुन कह रहा है कि मैं तटस्थ शक्ति हूं और आप पुरुष हो! और पुरुष कहने से यह भी समझ में आना चाहिए कि, भोक्तरम यज्ञ तपसा, पुरुष को ही अधिकार होता है क्योंकि पुरुष ही भोक्ता होता है। पुरुष भोक्ता होता है और प्रकृति भोज्य होती है। पुरुष के सुख और उपभोग के लिए प्रकृति होती है। और माया क्या करती है? प्रकृति पुरुष बनना चाहती है। *असौ मया हत: शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।* *ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥* भगवतगीता १६.१४ अनुवाद:- "मैं ईश्वर हूँ और भोगी हूँ", "मैं सिद्ध पुरुष हूँ", "मैं बलवान और सुखी हूँ",।। आसुरीसंपदा और देवीसंपदा नामक अध्याय में, आसुरी संपदा वाले व्यक्ति के विचार बताए है, जिसमें वह सोचता है कि, अहम भोगी या फिर अहम ईश्वर यहीं से शुरूआत होती है, मैं ईश्वर हूं, मैं स्वामी हूं, इस प्रकृति या इस देश का, इस परिवार का मैं मालिक हूं। जिसमें अहम और मम यानी में और मेरा के साथ ईश्वर अहम! अगर मैं ईश्वर हूं तो मैं क्या करूंगा? मैं भोगूंगा! किंतु यहां जब अर्जुन कह रहे हैं कि, आप पुरुष हो मतलब इसी के साथ वे स्वीकार कर रहे है कि, मैं प्रकृति हूं और आप पुरुष हो। मेने स्वयं का पुरुष बनने के कई सारे विफल प्रयास किए लेकिन अब ऐसा पुरुष बनने का और ईश्वर होने का प्रयास नहीं करूंगा। क्योंकि आप पुरुष हो और मैं प्रकृति हूं! और आप शाश्वत हो। आप सदा के लिए हो। गोविंदम आदि पुरुषम! आप पुरुष थे, है और रहोगे! आप पुरुषोत्तम हो। दिव्य, अलौकिक और अप्राकृतिक आपका व्यक्तित्व है। आप दिव्य जगत के हो। आप दिव्य जगत के निवासी हो। आपका लोग कभी दिव्य है और आप भी दिव्य हो! और आप आदिदेव हो। वैसे कई सारे देव देवता है जिनकी संख्या 33 करोड़ बताई है, लेकिन आप कौन हो? आप आदि देव हो, देवों के देव हो, देवों के स्रोत हो! देवों को आप ने बनाया है, देवी देवताओं को आप ने अलग-अलग सेवाओं में नियुक्त किया हुआ है। तो आप आदि देव हो और आप अज हो, अ मतलब नहीं और ज मतलब जन्म। आपका कभी जन्म नहीं होता क्योंकि आप शाश्वत हो और अगर आप जन्म लेते हो तो वह आप की लीला है लेकिन वैसे तो आप अजन्मा हो और आप वैभव से पूर्ण हो सर्वोच्च हो। हरि हरि। तो ऐसे धीरे-धीरे यह साक्षात्कार अर्जुन ने कहे है ही तो और फिर अर्जुन १० वे अध्याय में कहने वाले है कि आप मुझे कहिए अर्जुन कहेंगे कि, *वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।* *याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥* (१६) भगवतगीता १०.१६ अनुवाद : हे कृष्ण! कृपा करके आप अपने उन अलौकिक ऎश्वर्यपूर्ण स्वरूपों को विस्तार से कहिये जिसे कहने में केवल आप ही समर्थ हैं, जिन ऎश्वर्यों द्वारा आप इन सभी लोकों में व्याप्त होकर स्थित हैं। आपकी विभूतियां कहिए! आपको मैंने विभूत कहा, आप सर्वोच्च हो, तो आप की विभूतियों को मुझे सुनाइए। इन विभूतियों का वर्णन कीजिए ताकि मैं स्मरण कर पाऊंगा। *विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।* *भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥* भगवतगीता १०.१८ अनुवाद:- हे जनार्दन! अपनी योग-शक्ति और अपने ऎश्वर्यपूर्ण रूपों को फिर भी विस्तार से कहिए, क्योंकि आपके अमृत स्वरूप वचनों को सुनते हुए भी मेरी तृप्ति नहीं हो रही है। *विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।* मैं आपके विभूतियों के ऐश्वर्य के संबंध में और सुनना चाहता हूं। थोड़ा आपने बताया है और थोड़ा विस्तार में बताइए! तो फिर श्री कृष्ण १० वे अध्याय के श्लोक संख्या 19 से इस अध्याय के अंत तक अलग-अलग विभूतियों का उल्लेख करेंगे। यह भी मैं हूं यह भी मैं हूं ऐसी मेरी पहचान है। तो उन विभूतियों को हम कल के सत्र में चर्चा करेंगे। कृष्ण तो उसी समय कहे थे ऐसा नहीं कहा कि, अब हम आगे का कल सुनाएंगे। यह विभूतियों का वर्णन बहुत ही महत्वपूर्ण है, तो हम इसे कल चर्चा करेंगे। हरि हरि। हरे कृष्ण!

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