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जप चर्चा 19 मई 2020 पंढरपूर धाम.. श्री श्री गुरू गौरांग जयत: .. आप सभी का स्वागत और अभिनंदन है । कल भी आपने जप किया ही होगा , किया ही होगा की बात नहीं है , मैं सोच रहा था कि आपने 64 राउंड भी किए होंगे । जिन्होंने किए हैं वह अंत मे अपना रिपोर्टिंग कर सकते हैं । और कैसा रहा आपका कल का दिन , कल का जप और आपके सारे कृष्णभावनाभावित विचार , कर्म और खास करके स्मरण और श्रवण , माया से आपने उपवास कैसा किया , कैसे बचे आप माया से यह सब आप अंत में लिख लेना । अभी मत लिखना अभी तो यह जप चर्चा का प्रतिलेखन हो रहा है । किसी ने लिखा है मैंने 112 माला कि , गोंडसे से हो सकते हैं यह पंढरपुर के , नाम तो लिखा नहीं हैं लेकिन 112 माला करने वाले यह तो पंढरपुर के गणेश गोंडसे ही हो सकते हैं । देखना है जप कैसे करते हैं , संख्या तो बहुत बताते हैं । ओर किसी ने 25 मालाये की , अभी मत लिखो , अभी ठहर जाओ । आपने कितनी माला कि इसका रिपोर्ट अभी नहीं अंत में दिजिए ,थोड़ा समय आपको दे देंगे , आप उस समय लिख लेना । वैसे कुछ दिन पहले 16 मई को जब सोचा था कि अब लॉकडाउन समाप्त होने वाला है , तो आपसे पुछा था , "कैसा रहा आपका यह कालावधी लॉकडाउन मे आपने क्या किया ? , कैसे विचार रहे ?, कैसी साधना की और क्या करते रहोगे लॉकडाउन मे ओर लॉकडाउन नही होगा तब आप क्या करते रहोगे ?" तो उस समय आप भक्तों ने आपका बहुत सारे अनुभव बताये है , लिखे है , संपादन के बाद भी 30 पन्ने भर गए । उसको भी प्रकाशित किया गया है । आप उसको पढ़ लेना कई महत्वपूर्ण साक्षात्कार आये , आँख खोल देने वाले कहो या स्फूर्ति प्रदान करने वाले कहो , आप भक्तों ने अपने साक्षात्कार , अनुभव , संकल्प लिखे हैं । एक भक्त ने लिखा है , वह हमारे पद्मावली प्रभु ही है । वह लिखते हैं लॉकडाउन के समय में मैंने लॉकडाउन ओर कोरोना के संबंंध मे मैंने एक भी समाचार पढ़ा नही । ना पढ़ा , ना सोचा , ना सुनाया , यह बड़ी दुर्लभ बात है । ऐसा अगर कोई कर सकता है तो बहुत बड़ी बात है , पद्मावली प्रभुजी ने तो किया है । हो सकता है आप में से और भक्तों ने भी ऐसा किया होगा । आपने परवाह नहीं कि इसकी , आप साधना में और सेवा में मस्त रहें । उन्होंने कुछ सुना नहीं , पढ़ा नही, ना ही चर्चा की । अब इस कोरोना वायरस के माहौल से कहो या वातावरण से कहो प्रभावित भी नहीं हुए ।कुछ बात बिगड़ गई उनके जीवन में ? ,कुछ अभाव रहा ? , कुछ त्रुटि रही ? बिल्कुल नहीं । उन्होंने जो किया बहुत अच्छा है । वैसे कई साक्षात्कार ,भक्तों के अनुभव पढ़ने योग्य है , लोकसंग में ओर फेसबुक पेज पर आप पढ लेना ।जप चर्चा के बाद कल की एकादशी की कोई रिपोर्टिंग हो तो आप लिख सकते हो , कितनी माला किए ? क्या किया ? 835 स्थानो से जप हो रहा है , तो संख्या ठीक चल रही है , लॉकडाउन चालू है कि बंद है ? आपको कैसे पता मतलब आप पढ़ ही रहे हो । ठीक है , अब हम आज की जप चर्चा शुरु करते हैं । जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभू नित्यानंद । श्री अद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्त वृंन्द।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।। जब हम जप करते हैं तब एक मुलाकात जैसे बात होती है , हम भगवान के साथ मुलाकात करते हैं , हम भगवान को संबोधित करते हैं तब भगवान के साथ एक संवाद होता है । या फिर दिन मे भी प्रार्थना करते हैं प्रार्थना करते रहते हैं , सेवा करते रहते हैं । यह संवाद तो होता ही है लेकिन भगवान तुरंत हमारे सामने ही प्रत्यक्ष कुछ नहीं कहते । यह प्रार्थना की तो उसका क्या उत्तर है भगवान ? प्रभु ? हे राधा पंढरीनाथ ? हे गोपीनाथ ? भगवान के उत्तर प्रत्यक्ष नहीं होेते , भगवान के उत्तर पर परोक्ष में होते हैं । भगवान के दरबार में देर होती है , अंधेर नहीं होती । कल मैं चैतन्य चरितामृत पढ रहा था , तो भगवान की कार्यशैली कहिए या भगवान सभी जीवो के साथ कैसे व्यवहार करते हैं । कैसा लेनदेन होता है , क्या उत्तर देते हैं कि नहीं देते उसके संबंध में बहुत सुंदर ओर सच भी , केवल सुंदर ही नहीं सच भी होगा ही क्योंकि चैतन्य चरितामृत में जो भी लिखा है सच ही लिखा है सच के अलावा ओर कुछ नहीं लिखा । ऐसा विश्वास हमें शास्त्रों में होना चाहिए । शास्त्र का वचन भगवान का ही वचन होता है । अंतर्यामी ईश्वरेर यही रीति होय बहिर ना कहे वस्तु प्रकाशे हृदय। (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.265) अनुवाद : अंतर्यामी ईश्वर के यहां यही रीति चलती है जहां वे बाहर से कुछ नहीं कहते परन्तु हृदय के भीतर प्रकाश देते हैं। भगवान कैसे हैं ? अंतर्यामी है ।अंतर्यामी मतलब अंदर की बात जानने वाले , हमारे विचारों को परमात्मा जानते हैं । वह सब कुछ जानते हैं वही अंतर्यामी ईश्वर है । यही रिति हये , इस पद्धती से भगवान सब उत्तर देते हैं । सब के साथ व्यवहार करते हैं । क्या उत्तर देते हैं ? क्या रिती है ? बाहिरेन न कहे बाहर से कुछ नही कहते । तभीं कुछ नहीं कहा उन्होंने , उसी क्षण तो उनका कुछ चल रहा है । मुरली बजा रहे हैं । उन्होने मुरली को बगल में रखकर कुछ कहा नहीं हमसे । हमने कुछ प्रार्थना की , कुछ जवाब तो दीजिए प्रभु , तो मुरली बज ही रही है । तो यह सोचते हैं कि भगवान उत्तर नहीं दे रहे । हमने बहुत कुछ कहा , बहुत कुछ मांगा या कुछ प्रार्थना की , लेकिन उत्तर क्यों नहीं दे रहे । भगवान अपनीे मुरली बजाने में मस्त है । बाहीरेन न कहे बाहर से नहीं कहते । कैसे कहते हैं ? प्रकाशे हृदय हृदय में प्रकाशित करते हैं । ओर हो सकता है अब आज प्रकाशित करें , कल प्रकाशित करें या भविष्य में प्रकाशित करें अगले जन्म में प्रकाशित करें । प्रकाशित करें तब हम कनेक्शन जोड़ सकते हैं , हांँ ! मैंने वह प्रार्थना की थी उसका उत्तर भगवान ने अब दिया , अब मुझे समझ में आया । आप सभी ने ऐसा अनुभव किया होगा । हमने उन्हें प्रार्थना की , हमने भक्ती की , जप किया , हमने सेवा की और फिर भगवान ने हमारे साथ ऐसा व्यवहार किया , वैसा व्यवहार किया , यह दिया , यह नहीं दिया । अगर हम सोचेंगे , स्मरण करेंगे , चिंतन करेंगे या अंतरमुख होंगे । अंतरमुखता तथा बहिर्मुखता तो चलती रहती है । भगवान को समझना है , भगवान के विचारों को समझना है , भगवान क्या कहना चाहते हैं , क्या चाहते हैं नहीं वह क्या कह रहे हैं यह सुनने के लिए भी हमको अंतर्मुखी होना होगा । अंतर्मुखी होकर मन में कुछ शांति की स्थापना भी करनी पड़ेगी । जब मन शांत होगा तो भगवान के जो विचार है , उद्गार है या कथन है , भगवान क्या कहना चाह रहे हैं उसको हम सुन पाएंगे । क्योंकि भगवान स्वयं ही कैसे हैं शांताकारं है । भगवान शांत आकार के है । ओम शांति ही ।ओम मतलब भगवान ।ओम , भगवान कैसे हैं ? शांत है । जब हम भी उनके जैसे ही होंगे , मन में शांति होगी तो उनको जो कहना है उसे तभी हम समझ पाएंगे , सुन पाएंगे । भगवान इस प्रकार बड़े शांत चित्त व्यक्ति से फिर वार्तालाप करते हैं , बात करते हैं । इसको भगवान ने कहा है , तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।। (भगवद् गीता 10.10) अनुवाद : जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं , उन्हे मैं ज्ञान प्रदान करता हूंँ , जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते है । ऐसे व्यक्ति को मैं क्या करता हूं ? बुद्धि देता हूं । ऐसे व्यक्ति को फिर भगवान ने शर्ते दे रखी है । तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।। (भगवद् गीता 10.10) फुकट की बुद्धि नहीं मिलेंगी ।मुफ्त खिचड़ी का वितरण होता है , मुफ्त प्रसाद का वितरण होता है , वैसे भगवान बुद्धी नहीं बांटते । भगवान बुद्धि देते रहते हैं । विनाश काले विपरीत बुद्धि भी देते हैं । वह बुद्धि भी भगवान ही देते हैं । ददामी बुद्धियोगं। बुद्धि के भी दो प्रकार है , एक सतबुद्धि और दूसरी ओर असतबुद्धि , विनाशकारी बुद्धि । विनाश काले विपरीत बुद्धि । भगवान तो हमसे बोलते रहते हैं बस हम भगवान को सुन नही सकते हैं । वैसे भगवान बिना कहे ही कह रहे हैं , भगवान ने ऐसी कुछ परिस्थितिया निर्माण की है । कुछ कहा तो नहीं , लेकिन भगवान ने कुछ क्रिया कर ली ओर उसी के जरिए भगवान कह रहे हैं , समझा रहे हैं । हमे इससे उससे कुछ सबक सीखना होगा । अंतर्यामी ईश्वरेर यही रीति होय बहिर ना कहे वस्तु प्रकाशे हृदय।(च .च मध्य लीला 8.265) मैं भगवान को जानता हूं ।मैं सोच रहा हूं कि इस बात को जानना है, जो बात लिखी और कहीं है हम आपको सुनायेगे भी । जिससे हम जानेंगे भगवान ऐसे हैं , वैसे हैं , कैसे हैं । उसमें एक एक बात बड़ी महत्वपूर्ण बात है , भगवान ऐसे हैं ,इसको जानना भी भगवान को जानने जैसे ही बात है । कई साल पुरानी बात है , मायापुर का उत्सव था । मंगल आरती के उपरांत हम जप कर रहे थे , साथ में कई सारे भक्त या वरिष्ठ भक्त थे , हम लोग जप कर रहे थे । बड़ी ठंडक थी तो कई लोगों ने अपनी चादर भी ओढ ली थी । जप करते समय मैं भी अपनी चादर की ओर तथा अन्य भक्तों के चादर की और देख रहा था कि , मेरी चादर कुछ मैली चादर थी और पुरानी थी , औरों की चादर बढ़िया थी , चमक-धमक थी कुछ नई थी । तब ऐसे मन में विचार आया, नहीं आना चाहिए था लेकिन आ गया कि , अच्छा होता कि मुझे भी ऐसी चादर मिलती , या मेरी भी ऐसी चादर होती । उस सुबह के कार्यक्रम के बाद नाश्ता करने के बाद एक भक्त आए । उनका नाम विश्वंभर , वह विश्वंभर नहीं दुसरे विश्वंभर । मेरे कमरे में आए दरवाजा खोला ओर कहा, "महाराज आपके लिए मेरे पास चादर है ।" इस प्रकार प्रातः काल में मैंने केवल सोचा ही था , किसी से कहा तो नहीं था , मेरी मांग या सोच का उत्तर भगवान ने इस प्रकार दे दिया । इससे पहले मैं 20-30 बार मायापुर उत्सव में गया था शायद हो सकता है, पहले कभी ऐसी चादर होती तो ऐसा होता ऐसा सोचा नहीं होगा , लेकिन इस दिन सोचा तो मिल गई । फिर उस शाम को एक कार्यक्रम हुआ प्रभुपाद नाइट करके उत्सव था । लगभग कुछ 20 वर्ष पुरानी की बात है । प्रभुपाद के संबंध में संस्मरण अलग-अलग भक्त सुनाया करते थे । एक नाईट मायापुर उत्सव के दरम्यान प्रभुपाद नाइट थी । सारे वरिष्ठ भक्त थे तमाल कृष्ण गोस्वामी महाराज भी थे । प्रभुपाद नाइट संपन्न हुई फिर रात्रि को हम अपने कमरे में लौटे। ओर कैसे लौटे ? बिना चादर के । जो नई चादर हमे विश्वंभर ने दी थी वह चादर वही मंच पर छूट गई । भागे दौड़े हम देखने गए लेकिन चादर मिली नहीं , इससे मैं थोड़ा नाराज हुआ । उस दिन मेरे कमरे में चैतन्य चरितामृत मध्यलीला का एक ही ग्रंथ था । उस ग्रंथ मे था चैतन्य महाप्रभु वाराणसी में है और सनातन गोस्वामी आए हैं , सनातन गोस्वामी ने बढ़िया कंबल ओढ़ा हुआ है और चैतन्य महाप्रभु बारंबार कंबल की ओर देख रहे हैं और प्रसन्न नहीं दिख रहे हैं फिर सनातन गोस्वामी जाते हैं नदी के तट पर और अपनी बढ़िया मूल्यवान चद्दर के बदले में किसी और की फटी पुरानी चद्दर ले आते हैं तो उसको देखकर चैतन्य महाप्रभु बड़े प्रसन्न होते हैं तो वह प्रसंग मैंने पढ़ा। मैंने खोला तो प्रसंग वहीं था। मैं समझ गया भगवान का संदेश मेरे लिए क्या था। राधा माधव ने बाहर तो कुछ नहीं कहा मुझे लेकिन यह सारा घटनाक्रम जो हुआ उसके माध्यम से भगवान ने मुझे समझाया। मेरा उनके साथ व्यवहार और लेनदेन चल रहा है। चादर दे दी, चादर गुम भी हो गई और चादर गुम होने के बाद जो कमरे में ग्रंथ था उसको पढ़ा मैंने और समझा । ऐसी कई सारी बातें हैं। हम जब पदयात्रा में थे 1985 में, तो दक्षिण भारत में पदयात्रा संपन्न हो रही थी कन्याकुमारी होते1 हुए द्वारका से मायापुर तक। तब हम कांचीपुरम में थे वहां एक शिवकांची है और एक विष्णु कांची हैं। जब हम विष्णु कांची में थे हम वहां भगवान विष्णु के दर्शन के लिए गए। वहां भगवान का नाम है वरदराज वर देने वालों में राजा। हमने सोचा थोड़ा फायदा उठाते हैं, वरदराज के दरबार में आए हैं तो कुछ वर मांगते हैं तो हमने प्रार्थना की ,हमने वर मांगा ।वर यह था कि प्रभु मेरे कई सारे वरिष्ठ गुरु भाइयों और गुरु बहनों को तो बहुत सारी सेवा दे दी आपने, वह बहुत व्यस्त हैं। तो आप अधिक सेवा उनको दे देते हो पर मुझे तो इतनी सेवा नहीं दी है, जितनी आप औरों को सेवा देते हो। गोपाल कृष्ण महाराज जी को इतनी सेवा या तमाल कृष्ण महाराज जी को इतनी सेवा ।ऐसा मैं सोच रहा था।"सोच कर सोचो "साथ में क्या जाएगा। तो हमने जब यह प्रार्थना की तो उसके उपरांत कुछ महीने की जो काल अवधि रही साल दो साल फिर भगवान ने इतनी सेवा दी ,बहुत सारी और जिम्मेदारियां.। अंतर्यामी ईश्वरेर यही रीति होय बहिर ना कहे वस्तु प्रकाशे हृदय।च .च मध्य लीला 8.265 अन्तर्यामी कृष्ण की यही रीति है,वो बाहर से कुछ नही कहते परंतु हृदय में प्रकाशित करते है। हम उसको संभाल नहीं पा रहे थे ।फिर पुनः मैं वरदराज के पास गया और मैंने कहा 'बहुत हुआ बहुत हुआ " फिर भगवान ने कुछ कृपा की और कुछ सेवा कम कर दी । उतनी सेवा जितनी मैं संभाल सकता था। यहां जो कहा है अंतर्यामी कृष्ण यही रीति होय।श्रील प्रभुपाद भी जब झांसी में थे तब एक टेलीग्राम मिला ।टेलीग्राम का मैसेज था कि आपका जो नौकर है प्रयागराज में( इलाहाबाद ) प्रभुपाद तब फार्मेसी चलाते थे ,वह नौकर सारी की सारी धनराशि लेकर फरार हो गया। तो टेलीग्राम मैसेज प्रभुपाद के पहले शिष्य प्रभाकर मिश्र ने श्रील प्रभुपाद को पढ़कर सुनाया और प्रभुपाद के चेहरे की ओर देखा, तो उन्हें लगा कि प्रभुपाद रोएंगे ,आंसू बहाएंगे ऐसा सुनकर, ऐसा समाचार सुनकर दुखी होंगे ,पर उल्टा ही हुआ। प्रभुपाद तो हंस रहे थे और उस समय श्रीमद्भागवतम का उन्हें एकवचन याद आया । श्रीभगवानुवाच : यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनै: । ततोऽधनं त्यजन्त्यस्य स्वजना दु:खदु:खितम्॥ श्रीमद भागवतम 10.88.8 ॥ अनुवाद : जब भगवान किसी पर कृपा करते हैं तोह उसका धन छीन लेते है।और उसकी इस हालत में उसके मित्र संबंधी भी उसे त्याग देते हैं। श्रील प्रभुपाद को भगवान ने ऐसी बुद्धि दी, ऐसा स्मरण दिलाया ,कि भगवान कभी-कभी क्या करते हैं ?अनुग्रह करते हैं। विशेष कृपा करते हैं। उसका धन हड़प लेते हैं एक चोर के माध्यम से चोरी होती है। यह भगवान की विशेष कृपा है। हमारे सुदामा ब्राह्मण द्वारका गए क्योंकि उनकी पत्नी चाहती थी सुदामा वहां से कुछ लेकर आएं।उनके बच्चे भूखे मर रहे थे ।ना पहनने के लिए कोई वस्त्र थे।न ठीक से रहने के लिए कोई जगह, झोपड़ी भी ऐसी टूट रही थी। उनकी पत्नी का नाम सुशीला था,वह चरित्रवान थी । उसने सुदामा को कहा जाओ जाओ अपने मित्र के पास जाओ वह जरूर आपकी सहायता करेंगे तो सुदामा गए फिर उनका वहां पर बहुत बढ़िया तरीके से स्वागत हुआ और एक रात उन्होंने वहां द्वारका में बिताई। वह अपने घर से तंदुल( पोहे)लेकर गए थे। वह भी वो कृष्ण को देना नहीं चाहते थे । फिर अगले दिन लौट रहे हैं थे सुदामापुरी (पोरबंदर) आजकल का पोरबंदर उस समय का सुदामापुरी (गुजरात ) हैं ।तो भगवान ने तो कुछ भी नहीं ,दिया लंगोटी भी नहीं दी, सुदामा तो फटे पुराने वस्त्रों में थे, गमछा भी नहीं दिया। तो सुदामा लौट रहे थे और उन्हें रास्ते में याद आया कि जिस उद्देश्य मेरी पत्नी ने मुझे भेजा था कुछ मांगने के लिए, मैंने तो कुछ मांगा ही नहीं । मैं मांगना भूल गया। ऐसा जब विचार आया तो सुदामा पुनः द्वारिका की ओर लौटे या दौड़े नहीं। उल्टा वह सोचने लगे "बहुत बढ़िया सुदामा शाबाश"" तुमने कुछ नहीं मांगा तुमने कुछ नहीं मांगा ,यह काम बढ़िया किया", सुदामा सोच रहे थे मैंने मांगा भी नहीं और भगवान ने दिया भी नहीं। हां हां मैं जानता हूं क्यों नहीं दिया। अगर वे देते तो शायद मैं बिगड़ जाता। सारी धनराशि और संपत्ति के उपभोग में मस्त हो जाता और भगवान को भूल जाता। जब हमारे पास बहुत धन संपदा होगी तो हम बहुत व्यस्त हो जाएंगे,बहूत भोग करेंगे। फिर मंगला आरती के लिए नहीं उठेंगे या दुबई जाएंगे शॉपिंग के लिए। तो भगवान ने बढ़िया किया जानकर भगवान ने मुझे कुछ नहीं दिया। ऐसा सुदामा सोच रहे थे ।तो इससे सुदामा का भी परिचय मिलता है हमको सुदामा की सोच के बारे में । न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥४॥ हे जगत के ईश्वर! मैं धन, अनुयायी, स्त्रियों या कविता की इच्छा न रखूँ। हे प्रभु, मुझे जन्म जन्मान्तर में आपसे ही अकारण प्रेम हो॥४॥ चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.29 शिक्षाष्टकं वहां प्रत्यक्ष कुछ हाथ में तो नहीं दिया ना थैली में ना बंडल में किंतु जब सुदामा ,सुदामापुरी पहुंचे तो उन्होंने देखा और अनुभव किया कि भगवान ने तो छप्पर फाड़ के दे दिया, जैसा वैभव द्वारिकापुरी का वैसा ही वैभव सुदामापुरी का हो गया।रत्ती भर का भी अंतर नही था । तो यह देने की पद्धति है भगवान् की। कभी देंगे भी नहीं । जैसे प्रभुपाद को दिया भी पर वह चोरी हुआ ।फिर भी भक्त प्रसन्न रहते हैं। सुदामा को कुछ नहीं दिया तो भी वह प्रसन्न थे ,और जब दिया भी तो भी वह अपने साधना भक्ति करते रहे। 16 माला 64 माला। वहां महल थे नरम पलंग था ,लेकिन ......कुकड़ू कु कु......प्रातः काल में जब मुर्गे बोलते थे तो वह छलांग मार के उस मुलायम बिस्तरे से अलग होते ,उठते और संसार दावानल (मंगल आरती)करते ..... तो धन है या धन नहीं है कोई फर्क नहीं है ।भगवान के भक्तों का धन तो "हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे" ये ही धन है । कृष्ण भावनामृत ही धन है । क्यों नहीं लक्ष्मीपति जो प्राप्त हुए तो साथ में लक्ष्मी भी है। एक था राजा ,रानी भी होंगी वह शिकार के लिए गए तो बाण को तीखा बना रहे थे ,तो उनकी उंगली कट गई । मंत्री ने कहा भगवान जो करते हैं अच्छे के लिए करते हैं। "क्या???(नाराज़ राजा ने कहा) अच्छे के लिए करते हैं? गिरफ्तार करो इसे" तो राजा ने मंत्री के वचन सुनकर उसे कारागार में डाल दिया। तो पुनः कुछ महीनों के बाद जब वही राजा शिकार पर गया तो उन्होंने देखा कुछ लोग चंडी महायज्ञ में बलिदान करने के लिए किसी को ढूंढ रहे थे।तो जंगल में तो अधिकतर पशु ही होते हैं पर वह मनुष्य को ढूंढ रहे थे और सामने से राजा आ गए ।राजा को उन्होंने पकड़ लिया और खींचकर ले जा रहे थे। राजा ने पूछा कहां ले जा रहे हो, उन लोगों ने कहा बलिदान के लिए ।तो जाते समय रास्ते में उन्होंने राजा को देखा कि शरीर तो ठीक-ठाक है ना, कहीं लंगड़ा या पंगु तोह नही।कहीं कुछ उसके शरीर में कुछ क्षति तो नहीं पहुंची है ना? तो फिर बलिदान नहीं दे पाएंगे। थोड़ी जांच पड़ताल हुई तो देखा कि अरे इसकी उंगली नहीं है। बेकार है यह इसकी बली नहीं चढ़ा सकते।और राजा को जाने दिया। राजा ने तुरंत आदेश दिया मंत्री को कैद से मुक्त करो और उसे पुरस्कार दिया यह कहने के लिए कि भगवान जो भी करते हैं अच्छे के लिए करते हैं ।राजा ने ये बात बाद में अनुभव की, उस समय तो बात समझ नहीं आई थी ।जो मंत्री ने बात कही थी पर जब यह घटना घटी तो राजा को बात समझ आई।यही कि भगवान जो करते हैं हमारे कल्याण के लिए करते हैं । नारद मुनि ने भक्तिवेदांतो की कथा सुनी, नारद मुनि एक साक्षात्कार पुरुष हो गए ।उनको सर्वत्र भ्रमण करना चाहते थे , परिवराजकाचार्य बनते लेकिन मां की ममता है, घर भी है कुटिया है तो कैसे सोचे उससे कैसे छोड़ेंगे? तो सर्प के डसने से मां की मृत्यु हुई ।एक दृष्टि से ठीक नहीं भी हुआ लेकिन यह बंधन तो था ही, उस बंधन को हटाया भगवान ने।तो ऐसा पड़ा हमने कि नारद मुनि ने अपने कुटिया में ही अपनी मां का अंतिम संस्कार संपन्न किया तो कुटिया को जलाया तो कुटिया भी जाली और मां के शरीर का भी अंतिम संस्कार हुआ। एक ही साथ दोनों बंधन समाप्त हुए। घर कभी बंधन और अपने इष्ट मां,उनकी ममता का भी तो एक बंधन ही है।दोनों एक ही झटके में सारे भव बंधन काट लिए और नारद मुनि मुक्त हो गए प्रचार करने के लिए। तो इस प्रकार भगवान हर जीव के साथ, आपके साथ ,आपने जो किया और कहा, प्रार्थना की जप किया ,आपने सेवा की ,साधना की तो उसका कुछ भगवान उत्तर दे रहे हैं। कुछ कह रहे हैं, कुछ आशीर्वचन या वरदान। ऐसा कहते हुए तो हम प्रत्यक्ष देखते सुनते नहीं पर भगवान की रीति कुछ ऐसी ही है। बाहर से कुछ कहते नहीं हृदय में प्रकाशित करते हैं वस्तु प्रकाशय हृदय।। हरे कृष्ण

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19 May 2020 Antaryami Krsna always reciprocates with His devotees Chanting is taking place from 835 locations. This is lock down period. We will talk now. You would have chanted yesterday also. Many would have chanted 64 rounds. You can report this at the end. How did you fast from Maya yesterday? What were your Krishna Conscious thoughts and activities? We will give you time at the end. Please write it down at the end. I had asked on 16 May that how your lock down period was and what you will keep on doing. Even after editing a 32 page report has been published. There are eye opener realisations, bracing experiences and resolutions. Padmamali Prabhu said that he didn't read or share a single thought about Coronavirus and he was not influenced. Do you think he's lacking something or there is any flaw there? Absolutely not! This is rare. There are many such experiences by devotees which should be read by all of us. You can write down about your Ekadashi report at the end. When we chant, we have an interview with the Lord and we keeping addressing the Lord the whole day. We keep on serving during the day. The Lord doesn't answer our prayers immediately. The Lord's answers are not direct (pratyaksha), but indirect (paroksha). It maybe delayed, but it will surely come. I was reading Caitanya-caritamrta yesterday. It is the Lord's working style, His dealings with every jiva whether He answers our prayers or not. Indeed there's a very beautiful and accurate section in this context in Caitanya-caritamrta. Whatever is written in Caitanya-caritamrta is absolutely true. We should have firm faith in scriptures because it is spoken by the Lord. The Lord is antaryami. The Lord knows our thoughts and this is the way by which He answers everyone and interacts with them. We think He is not answering our prayers and He is playing His flute. He doesn't put His flute aside, but He is still playing His flute even though we ask many things. He won't say it externally, but He will enlighten us from within after some time or ink the next life. Bahire na kahe means He will not say anything from externally. Prakashe hrdaye means He will enlighten us from within. You would have experienced this - we chanted, served and then the Lord responded to us. He gave us such and such things and not other things. We need to think, contemplate and be introvert so that we can understand what the Lord wants to say. We all are extroverts. To understand what the Lord wants to say, for that we need to be introvert. We need to keep a peaceful mind by becoming introvert then we can listen to the Lord. When the mind is peaceful, then we can understand. Lord Himself is shantakaram. Om means the Lord. The Lord is peaceful and we can also become peaceful like Him. The Lord speaks with a person with a peaceful mind. He gives intelligence to such a devotee. teṣāṁ satata-yuktānāṁ bhajatāṁ prīti-pūrvakam dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ yena mām upayānti te Translation: To those who are constantly devoted to serving Me with love, I give the understanding by which they can come to Me. [BG 10.10] This is like a condition that needs to be fulfilled. The condition is to those who are constantly devoted to serving Me with love. Then He will give the understanding. He's not distributing intelligence to everyone like prasada or khichadi distribution. We won't get intelligence for free. The Lord keeps on giving intelligence. There are 2 types of intelligence sat and viparita (reverse). There's an idiom "As (one's) doom approaches,( the person's) intellect works against (his/her) best interest.” We can listen to the Lord. He says without saying anything. The Lord has created a situation, but He is not saying anything. The Lord takes some actions and is trying to teach some lessons from that. antaryāmī īśvarera ei rīti haye bāhire nā kahe, vastu prakāśe hṛdaye Translation: The Supersoul within everyone’s heart speaks not externally but from within. He instructs the devotees in all respects, and that is His way of instruction. [CC Madhya Lila 8.265] People say I know God. Knowing means knowing the Lord. This is just like knowing the Lord. This is one important thing to know about the Lord. There was a Mayapur festival few years ago. After Mangal aarti we were chanting. Many senior devotees were there. As it was winter many have taken their blankets. I also put on my blanket. While Chanting, I observed the blankets of other devotees. My blanket was a little dirty compared to the others. Other devotees had a new, clean blanket. This thought should not have come, but it came, “It would be nice if I also had a new blanket like them or my blanket would be as new as other devotees’ blankets.” Then after morning program, one devotee came to my room Vishwambhar Prabhu. Vishwambar Prabhu said, “Maharaja, I have blanket for you." Early in the morning I just had a thought and had not even shared this with anyone and the Lord answered me immediately. I have been to Mayapur Festival before also, but hadn't thought in such a way. Then in the evening, there was a program known as Prabhupada nights. I am talking about 20 years ago. In that program everyone would share experiences or remembrances of Prabhupada. All senior devotees were there like HH Tamala Krsna Goswami Maharaja. After the program, we returned to our rooms without the blanket. It was left on the stage. We did not find the blanket. I went back, but it was not there. I was a little upset. Then on that day, I had only one book in my room which was the Madhya lila volume from Caitanya-caritamrta in which Caitanya Mahaprabhu is in Varanasi and Sanatana Goswami reached Varanasi with a blanket wrapped around himself. Mahaprabhu is constantly observing his new shining blanket. Definitely Mahaprabhu was not pleased with this. Then Sanatana Goswami realised this and went near a river and he exchanged his valuable blanket for a torn quilt. Now Caitanya Mahāprabhu was very pleased with him. I read that pastime and I understood what was the Lord's message. Radha Madhava didn't say anything to me externally, but They responded to me. They gave me a blanket, it was lost and then They made me read that pastime from Caitanya-caritamrta. So I realised they're dealing with me. From within Radha Madhava said to me "Did you get it?" I said, “Yes.” There are many incidents like this. Once we were on Padayatra in 1985 - Padayatra was from Dvaraka to Mayapur via Kanyamkumari. We were in Kanchipuram. There is Sivakanchi and Visnukanchi. We were in Vishnukanchi. We went there to have darsana of Lord Visnu. The name of the Lord over there is Varadaraj which means the greatest amongst benediction bestowers. Var means benediction and raj means greatest. We thought to take advantage of this. The blessing which I asked for was that my senior god brothers and godsisters have so many services and they're very busy, but I don't have so many services in comparison to them. I thought you have given so many services to Gopal Krsna Maharaja, Tamala Krsna Maharaja, but I don’t have so many services. I thought like that. We think so many things. Think on what will go with you. Then in the next few months or years, the Lord gave me so many services and responsibilities and I was not able to handle. Then again I went back to Varadaraj and said, “nough is enough. This is enough.” Then Lord blessed me and reduced some of the services or gave me only that many services which I could manage. antaryāmī īśvarera ei rīti haye bāhire nā kahe, vastu prakāśe hṛdaye Translation: The Supersoul within everyone’s heart speaks not externally but from within. He instructs the devotees in all respects, and that is His way of instruction. [CC Madhya Lila 8.265] One day when Srila Prabhupada was in Jhansi he got a message on telegram that his servants in Prayaga pharmacy in Allahabad fled away all money. His first disciple Dr. Prabhakar was reading the letter and after that he was looking at Srila Prabhupada's face. He thought Prabhupada will get upset after hearing this news, but something else happened and Srila Prabhupada was smiling. And then Prabhupada remembered the verse from Srimad-Bhagavatam, śrī-bhagavān uvāca yasyāham anugṛhṇāmi hariṣye tad-dhanaṁ śanaiḥ tato ’dhanaṁ tyajanty asya svajanā duḥkha-duḥkhitam Translation: The Personality of Godhead said: If I especially favor someone, I gradually deprive him of his wealth. Then the relatives and friends of such a poverty-stricken man abandon him. In this way he suffers one distress after another. [SB 10.88.8] Lord takes away someone's wealth and this is the Lord's special mercy. Sudama brahmana went to Dvaraka as their children were hungry and their home was not in a good condition. Then his wife Sushila asked him to take help from his qfriend. Then he went to Dvaraka with chipped rice from Porbandar(at that time it was known as Sudamapuri in Gujarat). The Lord didn't give him anything. Sudama was in a bad condition. He was returning from Dvaraka and he thought he didn't ask the Lord for anything which his wife had sent him. He thought,“I didn’t ask for anything. I forgot to ask.” After this thought, he didn't go back to Dvaraka. Actually he was congratulating himself, “You did a good job by not asking for anything from Krsna.” He was thinking that it's good that Krsna also didn't give me anything as I might get bad habits or I might become proud. A proud person becomes mad after money and easily forgets about God. If I've money then I'll go for shopping, will get busy in meeting people and then won't be able to wake up for Mangal Arati.” This was the thinking of Sudama that the Lord intentionally did not gave him anything and actually he did the right thing. We should learn this from Sudama. This is na dhanaṁ na janaṁ na sundarīṁ kavitāṁ vā jagad-īśa kāmaye mama janmani janmanīśvare bhavatād bhaktir ahaitukī tvayi Translation: "O Almighty Lord, I have no desire to accumulate wealth, nor to enjoy beautiful women. Nor do I want any number of followers. What I want only is the causeless mercy of Your devotional service in my life, birth after birth." [Cc. Antya 20.29, Śikṣāṣṭaka 4] The Lord didn't give him anything directly in his hand in a bundle, but when he returned he saw same opulence just like Dvaraka. Not even one percent less than Dvaraka. Sometimes the Lord doesn't give and sometimes He gives and then He takes back. Like in case of Srila Prabhupada, he took everything back. In both situations, devotees are happy. Even after getting so much opulence Sudama continued his strict sadhana. He continued with his 64 rounds. Even though he had soft bed, as soon as the cock crowed in the early morning, Sudama would get up for Mangala Arati and sing Samsara davanala lidha loka. Whether there is wealth or no wealth, it doesn't matter. For devotees, chanting Hare Krishna or service to Krsna is the real wealth. We attain laksmipati (husband of goddess of fortune), then laks mi (goddess of fortune) will also be there. Once a king cut his finger and as usual, the minister said that all happens by the Lords' good will. Hearing this, the king got quite angry and put the minister into prison. Even then the minister said that everything happens for the good! A few days later, the king went hunting in the jungle, by himself, since his minister was in prison. As the king was hunting, some tribesmen captured him. They decided to show him to their chieftain. But on the way, they saw that the cut on the king’s finger. They decided to release the king, saying that a person with a cut finger would not make a good offering to the tribe’s deity. Happy, due to the narrow escape from death, the king returned to his kingdom remembering his wise minister’s words that even the finger getting cut was for the good. Upon his return, he immediately ordered the minister’s release and welcomed him back. The king had a realisation that the Lord doesn't say externally, but he speaks from within. Narada Muni heard from bhaktivedantas and became self realised. Now he wanted to travel like parivrajakacaryas and to serve, but was bound by motherly affection and home. His mother passed away because of snake bite. This is not good in one sense. But Narada Muni was released from that bondage of mother and home. I heard that Narada Muni burnt his home along with his mother's body. Two in one! Both bonds were destroyed at a time. Maa, Mummy, Mom is actually a bond. This motherly affection is a bondage. In this way, the Lord cut the attachments of Narada muni in one stroke and made him free for preaching. This is the way of the Lord's response. With every living entity the Lord reciprocates like this. If you're chanting, serving and doing your sadhana, then the Lord must be saying something in return or giving some benediction. We can't see this directly happening in front of our eyes. He enlightens from within the heart. Vastu prakashye hrdaye Now members of the japa club can write their number of rounds.

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Наставления после совместной джапа сессии 19 мая 2020 г. АНТАРЙАМИ. КРИШНА ВСЕГДА ОТВЕЧАЕТ ВЗАИМНОСТЬЮ СВОИМ ПРЕДАННЫМ. Воспевание происходит из 835 мест. Это период карантина. Вы должны были вчера воспевать. Многие хотели повторить 64 круга. Вы можете написать об этом в конце. Как вы постились от майи вчера? Каковы были ваши мысли и действия в сознании Кришны? Мы дадим вам время в конце. Пожалуйста, напишите об этом в конце. 16 мая я спросил, как прошел ваш период карантина и чем вы будете продолжать заниматься. Даже после редактирования был опубликован 32-страничный отчет. Есть уникальные реализации, вдохновляющий опыт и решимость. Падмамали Прабху сказал, что он не читал и не обдумывал ни единой мысли о Коронавирусе, и на него это не повлияло. Как вы думаете, ему чего-то не хватает или есть какой-то недостаток? Точно нет! Это редкость. У преданных есть много таких реализаций, которые все мы должны прочитать. Вы можете написать свой отчет об экадаши в конце. Когда мы воспеваем, у нас происходит общение с Господом, и мы продолжаем обращаться к Господу весь день. Мы продолжаем служить в течение дня. Господь не сразу отвечает на наши молитвы. Ответы Господа не прямые (пратьякша), но косвенные (парокша). Это может быть не сразу, но ответ обязательно придет. Я вчера читал Чайтанья-чаритамриту. Это способ действий Господа, Его отношения с каждой дживой, независимо от того, отвечает Он на наши молитвы или нет. В этом контексте в Чайтанья-чаритамрите есть очень красивый и точный раздел. Все, что написано в Чайтанья-чаритамрите, абсолютная правда. Мы должны твердо верить в Священные Писания, потому что это говорит Господь. Господь это Антарйами (аспект Всевышнего Господа, Он находится в сердце чистого преданного там же, где находится и Вриндаван. Антарйами это Сам Кришна, тогда как Параматма лишь частичное Его проявление). Господь знает наши мысли, и именно таким образом Он отвечает нам и взаимодействует с нами. Мы думаем, что Он не отвечает на наши молитвы и играет на своей флейте. Он не откладывает Свою флейту, и Он все еще играет на Флейте, даже если мы просим у Него много вещей. Он не покажет этого внешне, но через некоторое время Он просветит нас изнутри или покажет в дальнейшем. Бахире на кахе означает, что Он не скажет ничего извне. Пракаше хрдайе означает, что Он просветит нас изнутри. Вы можете почувствовать это - мы воспевали, служили, и тогда Господь ответил нам. Он дал нам именно эти вещи, а не другие. Нам нужно думать, обдумывать и быть интровертами, чтобы понять, что хочет сказать Господь. Мы все экстраверты. Чтобы понять, что хочет сказать Господь, для этого нам нужно быть интровертом. Нам нужно сохранять спокойствие, становясь интровертом, чтобы мы могли слушать Господа. Когда ум спокоен, тогда мы можем понять. Сам Господь умиротворен. Ом означает Господь. Господь смиренный, и мы можем стать такими же смиренными, как Он. Господь говорит с человеком со спокойным умом. Он дает разум такому преданному. тешам сатата-йуктанам бхаджатам прити-пурвакам дадами буддхи-йогам там йена мам упайанти те Перевод Шрилы Прабхупады: Тех, кто постоянно служит Мне с любовью и преданностью, Я наделяю разумом, который помогает им прийти ко Мне. (Б.Г. 10.10) Это как условие, которое должно быть выполнено. Это условие для тех, кто постоянно преданно служит Мне с любовью. Тогда Он даст разум. Он не дает разум всем, как прасад или хичади. Мы не получим разум бесплатно. Господь продолжает давать разум. Есть 2 типа разума сат и випарита (противоположный). Есть идиома: «По мере приближения гибели (человека) разум (человека) работает против (его / ее) наших интересов». Мы можем слушать Господа. Он говорит, ничего не сказав. Господь создал ситуацию, но Он ничего не говорит. Господь создает определенные ситуации и преподает при этом некоторые уроки. антарйами ишварера эи рити хайе бахире на кахе, васту пракаше хридайе Перевод Шрилы Пабхупады: Рамананда Рай продолжал: «Сверхдуша, пребывающая в сердце каждого, говорит с нами не извне, а изнутри. Именно так Она даёт преданным все необходимые наставления». (Ч.Ч. Мадхья Лила 8.265) Люди говорят, что я знаю Бога. Знать значит осознавать Господа. Это все равно что понимать Господа. Есть одна важная вещь, которую нужно знать о Господе. Несколько лет назад был фестиваль в Майяпуре. После мангала-арати мы воспевали. Там было много старших преданных. Поскольку это была зима, многие взяли свои теплые чадары. Я также взял теплый чадар. Во время воспевания я видел чадары других преданных. Мой чадар был немного испачкан по сравнению с другими. У других преданных были новые, чистые чадары. Эта мысль не должна была прийти, но пришла: «Было бы хорошо, если бы у меня был такой же новый чадар, как у них, или мой чадар был бы такой же новый, как чадары других преданных». Затем, после утренней программы, один преданный, Вишвамбхар прабху пришел ко мне в комнату. Вишвамбхар прабху сказал: «Махараджа, у меня есть для Вас чадар». Рано утром у меня просто возникла мысль, и я даже не поделился ею ни с кем, и Господь сразу же ответил мне. Я и раньше был на фестивале в Майапуре, но так не думал. Потом вечером была программа, известная как ночь Прабхупады. Я говорю о том, что было около 20 лет назад. В этой программе каждый делился опытом или воспоминаниями о Прабхупаде. Все старшие преданные были там и Его Святейшество Тамала Кришна Госвами Махараджа. После программы мы вернулись в свои комнаты без чадаров. Они остались на сцене. Мы не нашли чадары. Я вернулся, но его там небыло. Я был немного расстроен. Тогда в тот день у меня была только одна книга в моей комнате, это был том Мадхья лила Чайтанья-чаритамриты, в котором Чайтанья Махапрабху находился в Варанаси, а Санатана Госвами пришел в Варанаси с чадаром, обернутым вокруг себя. Махапрабху постоянно наблюдал за этим новым сияющим чадаром. Определенно Махапрабху не был доволен этим. Тогда Санатана Госвами понял это и подошел к реке, и он обменял свой дорогой чадар на поношеный. Теперь Чайтанья Махапрабху был очень доволен им. Я прочитал эту лилу и понял, что было посланием Господа. Радха Мадхава ничего не сказал мне внешне, но Он ответил мне. Он дал мне чадар, который был потерян, а затем Он заставил меня прочитать эту лилу из Чайтанья-чаритамриты. Я понял, что Он играет со мной. Изнутри Радха Мадхава сказал мне: «Ты понял?» Я сказал "Да." Есть много подобных случаев. Однажды мы были на Падаятре в 1985 году - Падаятра была из Двараки в Маяпур через Каньякумари. Мы были в Канчипураме. Есть Шива Канчи и Вишну Канчи. Мы были в Вишну Канчи. Мы пошли туда, чтобы получить даршан Господа Вишну. Имя Господа там - Варадарадж, что означает величайшее из дающих благословения. Вар означает благословение, а радж означает величайший. Мы думали воспользоваться этим. Благословение, о котором я просил, состояло в том, что у моих старших духовных братьев и сестер очень много служения, и они очень заняты, но у меня не так много служения по сравнению с ними. Я думал, что Вы дали так много служения Гопалу Кришна Махараджу, Тамале Кришна Махараджу, но у меня не так много служения. Я думал об этом. Мы так много думаем. Подумай вначале, что будет с тобой. Затем в следующие несколько месяцев или лет Господь дал мне так много служения и обязанностей, что я не мог справиться. Тогда я снова вернулся к Варадараджу и сказал: «Достаточно, достаточно, достаточно". После этого Господь благословил меня и забрал некоторое служение, дал мне столько служения, сколько я мог выполнять. антарйами ишварера эи рити хайе бахире на кахе, васту пракаше хридайе Перевод Шрилы Пабхупады: Рамананда Рай продолжал: «Сверхдуша, пребывающая в сердце каждого, говорит с нами не извне, а изнутри. Именно так Она дает преданным все необходимые наставления». (Ч.Ч. Мадхья Лила 8.265) Однажды, когда Шрила Прабхупада был в Джханси, он получил в телеграмме сообщение о том, что его работники в аптеке Праяга в Аллахабаде сбежали со всеми деньгами. Его первый ученик доктор Прабхакар прочитал письмо, и после этого он посмотрел на лицо Шрилы Прабхупады. Он думал, что Прабхупада расстроится, услышав эту новость, но произошло по-другому, Шрила Прабхупада улыбался. Затем Прабхупада вспомнил стих из «Шримад-Бхагаватам»: шри-бхагаван увача йасйахам анугр̣хнами харишйе тад-дханам шанаих̣ тато ’дханам тйаджантй асйа сваджана дух̣кха-духкхитам Перевод Шрилы Прабупады: Верховный Господь сказал: У того, к кому Я особо благоволю, Я постепенно забираю все богатство. Тогда все родные и друзья этого бедняка отворачиваются от него. Таким образом, беды обрушиваются на него одна за другой. (Ш.Б. 10.88.8) Господь забирает у кого-то богатство, и это особая милость Господа. Брахман Судама отправился в Двараку, поскольку его дети были голодны, а его дом был в плохом состоянии. Затем его жена Сушила сказала попросить помощи у своего друга. Затем он отправился в Двараку с колотым рисом из Порбандара (в то время он был известен как Судами Пури в Гуджарате). Господь ничего ему не дал. Судама был в плохом настроении. Он возвращался из Двараки и думал, что не попросил у Господа ничего, зачем посылала его жена. Он подумал: «Я ничего не попросил. Забыл попросить." После этой мысли он не вернулся в Двараку. На самом деле он хвалил себя: «Ты хорошо поступил, ничего не прося у Кришны». Он думал, что это хорошо, что Кришна также ничего не дал мне, потому что у меня могут появиться вредные привычки или я могу возгордиться. Гордый человек сходит с ума получив деньги и легко забывает о Боге. Если у меня будут деньги, я пойду за покупками, буду занят встречами с людьми, а потом не смогу проснуться к Мангал Арати». Судама думал о том, что Господь намеренно ничего ему не дал, и на самом деле он поступил правильно. Мы должны узнать это от Судамы. Это: на дханам на джанам на сундарим кавитам ва джагад-иша камайе мама джанмани джанманишваре бхаватад бхактир ахаитуки твайи Перевод Шрилы Прабхупады: „О Господь Вселенной, Мне не нужно материальных богатств, материалистичных последователей, красивой жены или ведических обрядов с их щедрыми обещаниями. Все, чего Я хочу, — это жизнь за жизнью бескорыстно преданно служить Тебе“. (Ч.Ч. Антья 20.29, Шикшаштакам 4) Господь ничего не дал ему прямо в руки в мешочке, но когда Судама вернулся, он увидел такое же богатство, как и в Двараке. Даже ни на один процент ни меньше, чем Дварака. Иногда Господь не дает, иногда Он дает, а затем Он забирает. Как и в случае со Шрилой Прабхупадой, он забрал все обратно. В обеих ситуациях преданные счастливы. Даже получив столько богатства, Судама продолжил свою строгую садхану. Он продолжил воспевать свои 64 круга. Несмотря на то, что у него была мягкая постель, как только петух закричал рано утром, Судама встал на Мангала Арати и спел Самсара даванала лидха лока. Неважно, есть ли богатство или нет. Для преданных воспевание Харе Кришна или служение Кришне - это настоящее богатство. Мы идем к Лакшмипати (муж богини процветания), тогда Лакшми (богиня процветания) также будет там. Однажды царь порезал палец и, как обычно, министр сказал, что все происходит по доброй воле Господа. Услышав это, царь разозлился и посадил министра в тюрьму. Уже тогда министр сказал, что все происходит на пользу! Через несколько дней царь сам отправился на охоту в джунгли, так как его министр был в тюрьме. Когда царь охотился, какие-то разбойники захватили его. Они решили показать его своему вождю. Но по дороге они увидели, что царь порезал палец. Они решили освободить царя, сказав, что человек с порезанным пальцем не будет хорошим подношением божеству племени. Счастливый из-за легкого спасения от смерти, царь вернулся в свое царство, вспомнив слова своего мудрого министра, что даже порез пальца был на пользу. По возвращении он немедленно приказал освободить министра и поприветствовал его. Царь осознал, что Господь не говорит извне, но он говорит изнутри. Нарада Муни слушал бхактиведант и осознал себя. После этого он хотел проповедовать как паривраджак ачарйа и служить, но был связан материнской любовью и домом. Его мать умерла от укуса змеи. Это не хорошо в каком-то смысле. Но Нарада Муни был освобожден от этой привязанности к матери и дому. Я слышал, что Нарада Муни сжег свой дом вместе с телом своей матери. Два в одном! Обе связи были уничтожены одновременно. Мама, мама, мама на самом деле связь. Эта материнская привязанность - это зависимость. Таким образом Господь одним ударом разорвал привязанности Нарады Муни и освободил его для проповеди. Так отвечает Господь. Каждому живому существу Господь отвечает подобным образом. Если вы воспеваете, служите и выполняете свою садхану, тогда Господь должен что-то сказать об этом или дать какое-то благословение. Мы не можем увидеть это, ничего не произойдет прямо на наших глазах. Господь говорит из сердца. васту пракаше хридае Теперь участники джапа-сессии могут написать количество своих кругов. (Перевод Кришна Намадхан дас)