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*जप चर्चा* *सच्चिदानंद प्रभु द्वारा!!!!* *दिनांक 21.05.2022* हरे कृष्ण!!! *नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते लोकनाथ – स्वामिन् इति नामिने।।* *नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।।* *नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे। निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।* हरे कृष्ण!!! आज हम संबंध ज्ञान के विषय में चर्चा करेंगे। हरिदास ठाकुर और श्रील भक्ति विनोद ठाकुर हरिनाम चिंतामणि में समझा रहे हैं कि जब तक हम संबंध ज्ञान में स्थित नहीं होंगे, तब तक हम शुद्ध रूप से हरि नाम नहीं ले सकते। हम जीव तटस्था शक्ति के हैं। हमें भगवान ने अल्प स्वतंत्रता दी है। सबसे पहली गलती जो हमसें हुई है, वह यह है कि हमनें अपनी अल्प स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया है। हमने कृष्ण की सेवा को ठुकराया है और माया का आलिंगन किया है। यह हमारी सबसे पहली गलती है और अभी भी वही गलती प्रतिदिन होती रहती है। हम सब जानते हैं कि हम सब कृष्ण के दास हैं लेकिन हमारे भजन और हमारी सेवा में भगवान को प्रसन्न करने का जो भाव है, वह अनेक बार टिका नहीं रहता क्योंकि अधिकतर हम अपनी पहचान देहात्मबुद्धि के स्तर से करते हैं अर्थात हम अपनी पहचान शरीर से करते हैं। इसलिए श्रील प्रभुपाद जी ने जन्म मृत्यु से परे ( बियोंड बर्थ एंड डेथ) में बताया है। केवल सैद्धांतिक यह ज्ञान होना कि हम शरीर नहीं आत्मा है, नहीं चलेगा। व्यवहारिक होना चाहिए, हमें अपने जीवन को इस प्रकार से बनाना होगा कि हम शारीरिक सुख से विचलित ना हो जाए। यदि हम शारीरिक सुख से बीच-बीच में विचलित होते रहेंगे तो संबंध ज्ञान में स्थिरता नहीं आएगी। जैसे 11 वें स्कंध में भगवान, उद्धव जी को समझाते हैं कि जो व्यक्ति भौतिक इंद्रियों को वश में नहीं रखता है तो उसके अंदर भौतिक इच्छा/ इंद्रिय तृप्ति की इच्छा का वेग होता है और वह रजोगुण में ग्रस्त हो जाता है। इसीलिए हमें जो अल्प स्वतंत्रता मिली है, हमें उसका सही सही उपयोग हर क्षण करना पड़ेगा। हम केवल( खाली) बोलेंगे, अथवा प्रवचन देंगें। जैसे भगवद्गीता के श्लोक 2.13 में बताते हैं- *देहिनोस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।* ( श्रीमद भगवद्गीता २.१३) अर्थ:- जिस तरह शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरंतर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता। लेकिन उस समय भी हम देहात्मबुद्धि के स्तर पर हो सकते हैं। हमारी यह इतनी सूक्ष्म बीमारी है। इसीलिए वहां पर बताया है कि जिस व्यक्ति को पूर्ण रूप से समझ में आ गया है कि मैं कृष्ण का नित्य दास हूं।ऐसा नहीं कि सुबह मॉर्निंग प्रोग्राम के समय कृष्ण का दास हूं और फिर पूरा दिन अपने पूरे शरीर और मन इंद्रियों का दास बनता हूं। ऐसा नहीं चलेगा। हमें अपनी सभी क्रियाओं को भगवान की सेवा के साथ जोड़ना पड़ेगा। बोलना आसान है लेकिन यदि हमें भजन में स्थिरता चाहिए तो इसको करना पड़ेगा। हरिनाम चिंतामणि में यह स्पष्ट लिखा है, जब तक एक गुरु अपने शिष्य को संबंध ज्ञान में स्थित नहीं करता है। वह शुद्ध रूप से, नित्य रूप से हरि नाम नहीं ले सकता। इसीलिए देखिए, प्रभुपाद जी ने ज्यादा प्रवचनों में " हम शरीर नहीं हैं, हम आत्मा हैं।" के ऊपर बहुत जोर दिया है, जब व्यक्ति यह स्वीकारता है, केवल विचारों से नहीं अपितु क्रियाओं से स्वीकारता है। अपने पूरे 24 घंटे की क्रिया से, कि मैं कृष्ण का नित्य दास हूं। कृष्ण मेरे शाश्वत स्वामी हैं और यह माया मुझे लात मार मार कर सिखा रही है कि तू दास है, तू बॉस नहीं है। यह संबंध ज्ञान है, जब किसी को यह जागृति आती है, यह स्वीकार करता है और अपने जीवन में ऐसे परिवर्तन लाता है कि इस स्तर पर वह रह सके तब वह कीर्तनीय सदा हरि: शुद्ध रूप से कर पाएगा। हम इसको हल्के से ले लेते हैं कि हम हरि नाम ले रहे हैं। चार नियमों का पालन कर रहे हैं। लेकिन यह भी लाना जरूरी है इस में स्थित होना जरूरी है। संबंध ज्ञान में *कृष्णार्थे अखिल चेष्टा, तत्कृपावलोकन। जन्म- दिनादि-महोत्सव लञा भक्त गण।।* ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.१२६) अनुवाद:- भक्त को चाहिए कि वह कृष्ण के लिए सारी चेष्टाएँ करे। उनकी कृपा के लिए लालायित रहे। भक्तों के साथ मिलकर विभिन्न उत्सवों में- यथा कृष्ण जन्माष्टमी या रामचंद्र के जन्मोत्सव में भाग लें। हमारी हर चेष्टा कृष्ण वाली होनी चाहिए। कृष्ण को प्रसन्न करने वाली होनी चाहिए। हर क्षण, हम कोई भी अपना व्यक्तिगत कार्य कर रहे हैं उसको भी भगवान की सेवा से जोड़ना है। वह क्रिया कैसे कर सकते है? जैसे हम सो रहे हैं। भगवान कहते हैं- *ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।* ( श्रीमद भगवद्गीता १८.६१) अर्थ:- हे अर्जुन!परमेश्वर प्रत्येक जीव के ह्रदय में स्थित है और भौतिक शक्ति से निर्मित यंत्र में सवार की भाँति बैठे समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा (भरमा) रहे हैं। हम शरीर को आराम दे रहे हैं जिससे हमारा शरीर सुबह अच्छी साधना करेगा और फिर अच्छी सेवा करेगा। हम शरीर नहीं हैं, यह भी समझना है। सोने के समय, सोने के बाद भी... हमें इसका अभ्यास करना पड़े़गा। हमारी सारी झूठी पहचान है कि मैं पति हूं, मैं मालिक हूं, मैं यह हूं, मैं वह हूं.. इन सब उपाधियों को त्यागना होगा क्योंकि जब तक उपाधि लेकर बैठेंगे, यह अहम ममेति भाव बना रहेगा, मैं और मेरा। फिर उसमें मिश्र भक्ति होगी, शुद्ध भक्ति नहीं होगी। इसीलिए इसका अनुशीलनं अर्थात इसका अभ्यास करना पड़ेगा। देखिए! हरि नाम लेने के लिए कितना सारा कुछ करना पड़ता है। तुम सोचते हैं कि माला झोली में हाथ डाल दिया और हरे कृष्ण हरे कृष्ण ... और भगवत प्राप्ति हो गई। नहीं! इतना आसान नहीं है। प्रभुपाद जी कहते हैं- साधना से साध्य को सिद्ध करना है। अगर हमारी सेवा में या हमारी साधना में, हमारा उद्देश्य अपनी संतुष्टि का है तो उसको भौतिक माना गया है। अगर हम हरे कृष्ण कर रहे हैं ताकि हमें बहुत सुख शांति मिले तो यह भी भौतिक स्तर की चेंटिंग है। जब हम भगवान की प्रसन्नता के लिए जप कर रहे हैं। कीर्तन का मतलब कीर्ति। भगवान की कीर्ति का यशोगान कर रहे हैं। भगवान को प्रसन्नता दे रहे हैं। इसी प्रकार अगर हर सेवा में हम यह दिखाना चाहते हैं कि हम बहुत शक्तिशाली हैं, बहुत दक्ष हैं। यदि लाभ, पूजा प्रतिष्ठा की इच्छा आ जाती है तो वह सेवा भी दूषित हो जाती है। इस प्रकार से हमें भाव बनाए रखना है कि हम कृष्ण के नित्य दास हैं। मुक्ति की व्याख्या क्या है *मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः।।* ( श्रीमद्भागवतं २.१०.६) अनुवाद:- परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति मुक्ति है। मुक्ति की व्याख्या है कि हम अपने स्वरूप में स्थित रहे और हमारा स्वरूप क्या है? *जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास* यह दास का भाव अर्थात दास्य भाव सभी रसों में है। चाहे दास्य रस ले लो, साख्य रस ले लो, वात्सल्य रस ले लो, या माधुर्य रस ले लो। जो गोपियां है, यशोदा मां है, यह भी कृष्ण को प्रसन्न करने का भाव सदा बना कर रखती है। यह अभ्यास धीरे-धीरे.. इसलिए आप देखते हैं जो ब्राह्मण दीक्षित भक्त हैं, जब वे आल्टर में पूजा करने के लिए जाते हैं तो पूजा करने से पहले भूत शुद्धि करते हैं। *नाहं विप्रो न च नर पतिर्नापि वैश्यो न शुद्रो। नाहं वर्णीं न च गृह- पतिर्नो वनस्थो य़तिर्वा।। किन्तु प्रोद्यन्निखिल परमानंद पूर्नामृताब्धेर्। गोपी- भर्तुः पद-कमलयोर्दास-दासानुदासः।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला अध्याय १३. ८०) अनुवाद:- "मैं न तो ब्राह्मण हूं, न क्षत्रिय, न वैश्य, न ही शुद्र हूँ। न ही मैं ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यासी हूं। मैं तो गोपियों के भर्ता भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के दास के दास का भी दास हूँ। वे अमृत के सागर के तुल्य हैं और विश्व के दिव्य आनंद के कारणस्वरूप हैं। वे सदैव तेजोमय रहते हैं।" मैं यह नहीं हूं, मैं वह नहीं हूं। इस प्रकार से यह होते ही रहना चाहिए। जब भी हमारे अंदर ऐसा भाव आए अर्थात दास्य भाव हटकर इंद्रिय तृप्ति का भाव आ जाए तो सबसे पहले बोलना चाहिए *न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि॥4॥* अनुवाद:- हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे। उसके बाद बोलना चाहिए - नाहं विप्रो न च नर-पति.. इस प्रकार से वापिस अपना ट्यूनिंग..., जैसे स्टेरिंग होता है, गाड़ी थोड़ी ऐसी हो गयी तो उसको हम फिर ट्रैक पर लाते हैं। यह श्लोक हमें ट्रैक पर रखेंगे। यह एक केवल एक बार नहीं करना होता है, जब भी इसकी जरूरत हो तब इसका उपयोग कर सकते हैं। हमें ज्ञान में स्थित होना चाहिए। *वैराग्य- विद्या- निज- भक्ति- योग-शिक्षार्थमेकः. पुरुष: पुराण:। श्री कृष्ण चैतन्य शरीर धारी कृपाम्बुधिर्य़स्तमहं प्रपद्ये।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला ६.२५४) अर्थ:- मैं उन पूर्ण पुरषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करता हूँ, जो हमें वास्तविक ज्ञान, अपनी भक्ति तथा कृष्णभावनामृत के विकास में बाधक वस्तुओं से विरक्ति सिखलाने के लिए श्रीचैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। वे दिव्य कृपा के सिंधु होने के कारण अवतरित हुए हैं, मैं उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ। जिसमें ज्ञान नहीं है वैराग्य नहीं है, वह भक्ति किस प्रकार की??? *वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजितः। जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम्।।* (श्रीमद्भागवतं १.२.७) अनुवाद:-भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरंत ही अहैतुक ज्ञान तथा संसार से वैराग्य प्राप्त के लेता है। वास्तव में अगर कोई भगवान को प्रसन्न करने के लिए भक्ति करता है , तब वह भक्ति योग होगा। वह भगवान के साथ जुड़ेगा। जब वह भगवान से जुड़ेगा तो उसके अंदर ज्ञान आएगा, ज्ञान आएगा तो वैराग्य भी आएगा। किसी के अंदर वैराग्य में संघर्ष हो रहा है उसका मतलब ज्ञान में कमी है। हो सकता है कि उसने बहुत कुछ कंठस्थ किया हो, बहुत सारे श्लोक पढ़कर वह पंडित बना हो लेकिन हजम नहीं हुआ है। उस ज्ञान का पाचन नहीं हुआ है, समझ में नहीं आया है। कभी-कभी हम प्रचार करने के लिए बहुत कुछ ऐसा ज्ञान इकट्ठा करते हैं लेकिन उसका अभ्यास नहीं करते। फिर ऐसा ही हो जाएगा और हमारी प्रगति अटक जाएगी। एक और महत्वपूर्ण बिंदु है कि हमें संबंध ज्ञान 24 घंटे बनाए रखना है। इससे व्यक्ति शुद्ध भक्ति में धीरे-धीरे आगे बढ़ेगा, धीरे-धीरे स्थिरता आ जाएगी। निष्ठा मध्यम अधिकारी का लक्षण है। यह ऑटोमेटिक नहीं होगा, इसके लिए अभ्यास करना होगा। क्योंकि हम बद्ध जीव है, हमारे अंदर बहुत सारे अनर्थ हैं। हमारे हृदय में षड् रिपु है। इसीलिए हम घड़ी-घड़ी विचलित होते हैं, भ्रमित होते रहते हैं। इसीलिए हमें प्रतिदिन इन चीजों का अभ्यास करना होगा। धीरे-धीरे हमें अपनी इंद्रियों को..जैसे कि भगवान भगवत गीता में कहते हैं *तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ। पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।* ( श्रीमद भगवद्गीता ३.४१) अनुवाद:- इसलिए हे भरत वंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! प्रारंभ में ही इंद्रियों को वश में करके इस पाप के महान प्रतीक ( काम) का दमन करो और ज्ञान तथा आत्म- साक्षात्कार के इस विनाशकर्ता का वध करो। इंद्रिया को वश में करना है, उसके बाद मन को वश में करना है। पहले जितेंद्रिय बनना है फिर विजित आत्मा बनना है। तत्पश्चात बुद्धि को सही रखना है तब जो आत्मा है, व्यवस्थित होगी। आध्यात्मिक जीवन में पूरी तरह से स्थिरता, निष्ठा, भक्ति आएगी। इसके लिए शास्त्रों को पढ़ना, साधु संग करना, बैठकर, चिंतन मनन करना, अपना स्तर अभी क्या है उसकी जांच करना, मार्गदर्शन लेना, यह बहुत बड़ा प्रोग्राम है। जो इस प्रकार से भक्ति नहीं करते हैं तो उनकी फिर क्या हालत होती है? जैसे एक डायलॉग है 20 साल से घास काट रहा हूं, 40 साल से घास काट रहा हूं। वैसे ही स्थिति हो जाती है, बहुत लोगों की ऐसी स्थिति होती है। वे शुरुआत में अपने से वरिष्ठ भक्तों का संग करते हैं। जब वे खुद प्रचारक बन जाते हैं, उसके बाद वे सोचते हैं कि हमें अभी संग करने की जरूरत इतनी अधिक नहीं है। हमें लोगों को संग देने की ज़्यादा जरूरत है। वे उसमें इतने लीन हो जाते हैं कि वे भूल जाते हैं अपनी बैटरी चार्ज करनी है। वे दस, बीस, तीस, चालीस साल तक एक ही स्तर पर रुके रहते हैं। इसलिए अपने आप को आगे बढ़ाते रहना है और दूसरे लोगों को भी जो हमें भगवान ने दिया है, वैष्णवों ने दिया है, शास्त्रों से मिला है वह दूसरों के साथ बांटना है लेकिन हमें हमेशा अपने आप को ऊपर उठाते रहना है। यह हरि नाम चिंतामणि के दो श्लोकों में लिखा है- यह बहुत महत्वपूर्ण है भजन में आगे बढ़ने के लिए। अगर हम सोचते हैं कि हम हरे कृष्णा कर रहे हैं, प्रसाद खा रहे हैं, 4 नियमों का पालन कर रहे हैं। उसके बारे में ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है। यह अपने आप हो जाएगा, नहीं। यह अपने आप नहीं होगा। आपको अपने मन और इंद्रियों को वश में करना है गुरु, वैष्णवजन आप को ज्ञान देंगे कि कैसे किया जा सकता है लेकिन करना आपको है। वे आपके लिए नहीं करेंगे, यह बहुत महत्वपूर्ण चीज है। प्रभुपाद अपने लेक्चर में बताते हैं कि मृत्यु के समय गुरु जी की शिक्षा आपके साथ जाएगी। गुरु जी आपका प्लेन नहीं उड़ाएंगे, गुरु जी की कृपा रहेगी, ज्ञान रहेगा लेकिन प्लेन आपको उड़ाना है। 32000 बिच्छू काटने वाला दर्द हो रहा होगा लेकिन कृष्ण का स्मरण आपको करना पड़ेगा, यह अभ्यास आपको करना होगा। अभी से इसका अभ्यास करेंगे तो उस दिन आखरी सांस पर अंते नारायणे स्मृति होगी और हमारा कल्याण होगा। इसलिए यह जो अभ्यास है, इसे प्रतिदिन बनाए रखना है। नहीं तो शास्त्र कहते हैं *यस्सात्मबुद्धि कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः।यतीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचि-ज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः।।* ( श्रीमद्भागवतं १०.८४.१३) अर्थ:- जो व्यक्ति कफ, पित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय शरीर को स्वयं मान बैठता है, जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थ स्थल को केवल जल का स्थान मानता है किन्तु जो आध्यात्मिक ज्ञान में उन्नत व्यक्तियों के साथ अपना कुछ सम्बन्ध नहीं देखता, उनसे कुछ अपनेपन का अनुभव नहीं करता, उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन तक नहीं करता- ऐसा व्यक्ति गाय या गधे से बेहतर नहीं है। जो अपनी पहचान शरीर से करता है अथवा अपनी जन्मभूमि से करता है, वह गाय और गधे के जैसा है। स एव गोखरः। इसलिए सभी भक्त जानते हैं कि इस देहात्मबुद्धि से निकलना कितना कठिन है। कठिन इसलिए है क्योंकि हमारे अंदर जो भौतिक इच्छा है, उसके कारण हम इससे बाहर नहीं निकल पाते। जब तक हम अच्छी तरह नहीं समझेंगे कि इस भौतिक इच्छा से हमारा मनोरंजन हो सकता है, आत्म रंजन नहीं हो सकता। किसी भी प्रकार की इन्द्रिय तृप्ति से हमारी आत्मा को एक किंचित मात्र भी सुख नहीं मिलेगा। प्रभुपाद जी कहते हैं कि अगर ये भौतिक इन्द्रिय तृप्ति/भौतिक जगत तुच्छ नहीं लगता है तो आपने आध्यात्मिक मार्ग के चौखट पर पैर भी नहीं रखा है, आप बाहर हैं। जब तक यह स्पष्ट नहीं हो जाएगा, शत प्रतिशत स्पष्टता नहीं आएगी और हम संबंध ज्ञान में स्थित नहीं रहेंगे। फिर माला चलती रहेगी, हरिनाम चलता रहेगा, सेवा चलती रहेगी लेकिन फिर से अभ्यास करने के लिए आना पड़ेगा, क्योंकि इससे सिद्धि नहीं होगी। इसका अभ्यास कीजिए, भूत शुद्वि कीजिए। इसको समझिए और अपनी अपनी इंद्रियों को धीरे-धीरे वश में कीजिए। कभी-कभी लोग प्रश्न पूछते हैं, बहुत कठिन है, हमारे लिए संभव नहीं है। हां- एक अनन्त कोटि समय से हमारी ये आदतें हैं, एक दो दिन में सफलता नहीं मिलेगी। अगर हम चाहेंगे कि चार-पांच साल में पूरा का पूरा साफ हो जाए, वो भी कठिन लगता है लेकिन एक परसेंट तो आप आगे बढ़ ही सकते हैं। एक परसेंट से ले लो, अगर हर दो-तीन महीने में एक परसेंट भी कम होता जा रहा है। (एक परसेंट तो कोई भी कर सकता है।) धीरे-धीरे 5 परसेंट हो जाएगा, फिर 10 परसेंट हो जाएगा। फिर धीरे-धीरे व्यक्ति अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर सकेगा। इसके लिए क्या चाहिए? अच्छा संग लेना बहुत जरूरी है। साधु संग नियमित करते रहना चाहिए। शास्त्र को नियमित पढ़ते रहना चाहिए और चिंतन मनन करना चाहिए। मनन बहुत आवश्यक व महत्वपूर्ण है। शंकराचार्य कहते हैं श्रवण से मनन में सौ गुणा लाभ है और फिर निदिध्यासन करना चाहिए। निदिध्यासन में श्रवण से 10000 गुणा लाभ है। मनन से 100 गुना लाभ है, इस तरह से हम लोग प्रयास करते हैं। इस संबंध ज्ञान में स्थित होना, जिससे हमारा जो नाम भजन है- यह जो जप है, वो शुद्ध रूप से और हमेशा कीर्तनीय सदा हरिः हो सके। ऐसा नहीं कि 16 माला किया और राहत मिल रही है। अरे, 16 माला हो गई, बहुत राहत हो गई। इसका मतलब है कि अभी शुरू नहीं हुआ है, कभी भी बंद नहीं करना चाहिए। प्रभुपाद जी कहते हैं कि माला पर जो अपना संकल्प लिया है, वह करो। बाकी हर समय *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* करते रहो। हरे कृष्ण।।।

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