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जप चर्चा, श्रीमान राधेश्याम प्रभुजी व्दारा, 22 मार्च 2022 ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै शीगुरवे नमः।। नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले, श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने। नमस्ते सारस्वते देवेगौर – वाणी प्रचारिणे निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।। वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।। (जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। हरे कृष्ण! आप लोग परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज जी के प्रेरणा से, ये झूम का मंदिर ऐसा महाराज बोला करते हैं। लगभग 1000 भक्त रोज जप मे भाग लेते हो यह बहुत प्रशंसनीय बात हैं। आज के सत्र मे, एक महत्वपूर्ण विषय के बारे मे हम लोग चर्चा करेंगे। नारद,नारद बनने के पूर्व, अपने पूर्व जन्म में जब वे छोटे बालक थें, दासी पुत्र थें उनकों भक्तिवेदांतों कि कृपा प्राप्त हुवी। चातुर्मास के समय उनकी संग में रहकर, भागवत कथा का श्रवण करके, उसमें रुचि जगा कर वह बालक महान भक्त बना, वे लोग चातुर्मास होने के बाद चले गए उनसे नाम लिया था, उनसे कथा श्रवण की थी, उनके आदेशानुसार जब अपनी मां से गुजरने के बाद यह बालक जंगल में जाकर एक पेड़ के नीचे बैठकर, ध्यान मुद्रा में बैठकर भगवान हरि, भगवान विष्णु का ध्यान किया, भगवान का नाम लिया और भगवान की लीला के बारे में स्मरण किया अद्भुत लीला चेष्टा का स्मरण किया और ऐसे करते करते उनकी आंखों से अश्रु बहने लगे, प्रेमाश्रू बहने लगे और इस तरह कि सद्भावनाएं और अष्टविकार उनके शरीर में जब प्रकट हुए तो वह छोटा बालक सोचनें लगा विष्णूतत्व,भक्ति के प्रभाव मेरे हृदय में, मेरे शरीर पर पड़ रहा है तो मैं कितना भाग्यशाली हूंँ। उस समय अचानक भगवान हरि का दर्शन भी हुआ उसके समक्ष, कुछ क्षणों के लिए उसने देखा भगवान हरि कितने सुंदर है चतुर्भुज रूप में नीलमणि के समान शरिर चमक रहा था, मुकुट था, कुंडल था, वह मुस्कुरा रहे थे,पितांबर पहना था, वह अनेक आभूषणों से सुशोभित थे और तेजोमय शरीर था। जो शरीर विशुद्ध सत्व मे है,जो गुणातीत है लेकिन सब दिव्य गुण संपन्न हैं। अनंतकोटि ब्रह्मांडो का स्रोत हैं।भगवान जो सर्वज्ञ है और सब जीवों के पीता हैं। ऐसे परमपुरुष भगवान का दर्शन कुछ क्षणों के लिए प्राप्त हुआँ। लेकिन उसके तुरंत बाद भगवान अप्रकट हुए, प्रस्थान हो गए तब उस लड़के के हृदय में इच्छा जग गयी गई पाप हृदय से भगवान को देखना है जैसे आपको किसी ने मिठाई दी है और वह आपको अच्छी लगी आप और एक बार पाने को मन करता है इसतरह, तो लड़के ने सोचा कि यह क्या कोई बड़ी बात हैं। ऐसे ही ध्यान मुद्रा में बैठो नाम जपो उनका चिंतन करो और वे प्रगट हो जाएंगे अभी तो मुझे टेक्निक पता चल गया इस तरह सोचकर वह लडका बैठा, नाम लिया लेकिन भगवान प्रकट नहीं हो रहे थें, उनको कारण पता नहीं चला ,बार-बार जप ने के बाद भी,ध्यान करने के बाद भी भगवान प्रकट नहीं हो रहे थें। अब वह बालक रोने लगा तो भगवान ने उस बालक के ऊपर करुणा की भावना दिखाई हन्तास्मिञ्जन्मनि भवान्मा मां द्रष्टुमिहार्हति। अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शोSहं कुयोगिनाम्।। (श्रीमद्भागवतम् 1.6.21) अनुवाद: - भगवान ने कहा- है नारद, मुझे खेद है कि तुम इस जीवनकाल में अब मुझे नहीं देख सकोगे। जिनकी सेवा अपूर्ण है और जो समस्त भौतिक कल्मष से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं है, वे मुश्किल से ही मुझे देख पाते हैं। ऐसा बताते हैं "हन्तास्मिञ्जन्मनि भवान्मा" हे बच्चे! इस जन्म में पुनः तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। ऐसा बोला उन्होंने, क्यों? इसका कारण क्या है?"अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शोSहं कुयोगिनाम्।।" मैं दूरदर्शक हूं, मै अप्राप्त हूंँ, उन लोगों के लिए जिनके पास दो योग्यताएं नहीं हैं, ऐसा उन्होंने बोला। एक है "अविपक्वकषायाणां"जिन का चित्त अभी तक शुध्द नहीं हुआ है और जिनके चित्त में अहंकार है, काम है, क्रोध,लोभ है,जिनका ह्रदय अभी तक शुध्द नहीं हुआ है। "दुर्दर्शोSहं कुयोगिनाम्।।" जो अपनी सेवा में परिपूर्णता नहीं प्राप्त किए हैं मतलब भक्ति मार्ग में आ गए लेकिन भगवान कि सेवा भरपूर नहीं की।भगवान ने बोला कि ये दो चीजों को याद रखो! "अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शोSहं कुयोगिनाम्।।"वह लोग मेरा दर्शन नहीं प्राप्त कर सकते हैं।चक्रवर्ती विश्वनाथ ठाकुर ऐसे बताते हैं कि ऐसा नहीं कि यस बालक का चित्त अशुद्ध था अगर अशुद्ध था तो भगवान का दर्शन कैसे प्राप्त हुआ उसको, जैसे कार में जो ग्लास (कांच)होता है उसके ऊपर पानी आ गया बारिश के कारण, तो उसे हम वायफर लगाकर सफाई करते हैं उसके बाद हमें मार्ग दिखता हैं। इसी तरह हमारी चित्त मे भी मल भरा हुआ है इसलिए हम भगवान को देख नहीं पाएंगे। लेकिन नाम जप कर उसके हृदय को शुद्ध कर लिया था इसलिए तो उनको भगवान हरि दिखाई दीएँ आप पूछ सकते हैं कि इसमें उस बालक की क्या गलती थी? तो भगवान ने क्यों ऐसा किया तो भगवान सोच रहे थे कि यह जो बालक है इसका प्रेम मेरे लिए कोमल है इसका प्रेम में मजबूत बनाना चाहता हूं। जैसे एक आम का तरू,तरु बनने के पहले पौधा होता है उस समय आप उसे जड़ से उखाड़ सकते हो इतना कोमल होता है आम का पौधा। भगवान ने कहा इस तरह हिलने वाला कोमल प्रेम है इसका इसे मजबूत बनने के बाद में इसे दर्शन दूंगा मजबूत कैसे बनेगा? एक बार देख लिया उसने भगवान के सुंदर स्वरूप को बार-बार लालसा होगी उसकी भगवान के स्वरूप को देखने के लिए बार-बार उसे स्मृति आएगी एक आतुरता प्रगट होगी उस के हृदय मे पैदा हो इस तरह भगवान के ऊपर उसके हृदय मे विरह भावना जब पैदा होगी तो उसे भी भगवान का दर्शन प्राप्त हो जाएगा यह भगवान की योजना थीं और दुसरा है इस बालक ने अच्छी तरह से सेवा की थी भक्तिवेदांतों की, भक्ति वेदांतों को मां प्रसाद बना कर देती थी वह जाकर परोस कर आता था उसने उच्चिष्ट खाया और महात्माओं ने जो भी बोला यह करो, वह करो, उसने किया। उसकी सेवा में कुछ कमी नहीं थी ,इस तरह भगवान ने उन्हें इस जन्म में दर्शन नहीं दिया लेकिन भगवान ने कहा कि तुम मेरा दर्शन प्राप्त कर सकते हो। ठीक है! मंदिरों मंब जाओ! भगवान के ऊपर चक्र है उस के दर्शन करो! उन्हें दंडवत प्रणाम करो! पुराणों को सुनो!संत महात्माओं का संग करो! उनके संग में ही भगवान की प्राप्ति हैं। और इस तरह भगवान का नाम लेते लेते तीर्थ क्षेत्रों में नहा कर इस तरह तुम तीर्थाटन करो और फिर धीरे-धीरे मैं तुम्हें प्राप्त हो जाऊंगा लेकिन अगले जन्म में तुम मेरे महान भक्त बनोगे! भगवान ने ऐसे कहा। आप लोग जानते हो अगले जन्म में वह बालक नारद मुनि बना। इधर एक महत्वपूर्ण सीख सिखाते हैं प्रभुपाद हमको, हम अगर आंतरिक रूप से जप करते हैं उस से भगवान का दर्शन प्राप्त नहीं होता है और आसानी से चित्त भी शुध्द नहीं होता आप बोलेंगे यह तो डरावनी बात हैं। हम तो सोला माला कर लेते हैं जिस तरह से होता है वहां हम कर लेते हैं लेकिन आप अगर इस तरह से बोलेंगे तो हम आंतरिक रुप से करते हैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण कर लेते हैं वह शुद्धि के लिए नहीं होता तो इसका मतलब क्या है? थोड़ा बहुत शुद्धिकरण होता हैं। भगवान का नाम लेने से नुकसान नहीं है बल्कि भगवान का नाम लेने से लाभ ही लाभ है फिर भी हमें यह बात जानी चाहिए की आंतरिक स्तर से हम ऊपर कैसे उठे?, उसके बारे में हर एक भक्त को सोचना चाहिए। महामंत्र आंतरिक तरिके से क्यों होता है?हम अगर यह प्रश्न पूछेंगे तो इसका शास्त्रों में ही उत्तर हैं जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमान् । नैवाहत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम् ॥ (श्रीमद्भागवतम 1.8.26) अनुवाद: -हे प्रभु , आप सरलता से प्राप्त होने वाले हैं , लेकिन केवल उन्हीं के द्वारा , जो भौतिक दृष्टि से अकिचन हैं । जो सम्मानित कुल , ऐश्वर्य , उच्च शिक्षा तथा शारीरिक सौंदर्य के द्वारा भौतिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने के प्रयास लगा रहता है , वह आप तक एकनिष्ठ भाव से नहीं पहुँच पाता । ऐसे बताती है कुंती महारानी कि अगर किसी का ऊंचे कुल में जन्म होता हैं उसके पास ऐश्वर्य हो, धन हो, और वह बहुत पढ़ा लिखा हो, उसका शरीर सुंदर हो, जिस का बहुत बड़े धनी खानदान में जन्म होता है, वैदिक ब्राह्मण लोग ऊंचे कुल में जन्म लेते हैं लेकिन इन सभी लोगों को भगवान प्राप्त नहीं हुए इसका कारण गर्व हैं जिसके सर के ऊपर गर्व चढ़ गया है वह भगवान को पुकार नहीं पाता हैं। फिर हे गोविंद! हे कृष्ण!हे माधव! ऐसे हृदय से, प्रेम से पुकार नहीं पाता है वह, क्योंकि उसे अपने ही बलबूते पर मैं बड़ा हुआ हूंँ, मैं श्रेष्ठ हूँ, मै ज्ञानी हूँ,मैं धनी हूंँ, मैं खूबसूरत हूंँ ऐसा विचार आता है इसलिए वह भगवान का नाम की पुकार नहीं पाता है ऐसे कहा गया हैं। ये एक कारण बताया गया हैं, और एक दूसरा श्लोक है भागवत में जिसके ऊपर आधारित मैं अभी आपको बताने जा रहा हूं आप याद रख सकते हैं Great ('ग्रेट') G, r, e, a, t (जी,आर,इ, ए, टी) Great (ग्रेट) इस का मतलब है हम महान भक्त कैसे बन सकते हैं? इस शब्द में उसका रहस्य हैं।यह श्लोक हैं। तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् । हृद्वाग्वपुभिर्विदधन्नमस्ते जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥ (श्रीमद्भागवतम 10.14.8) अनुवाद:-हे प्रभु , जो व्यक्ति अपने विगत दुष्कर्मों के फलों को धैर्यपूर्वक सहते हुए तथा अपने मन , वाणी तथा शरीर से आपको नमस्कार करते हुए सत्यनिष्ठा से आपकी अहैतुकी कृपा प्रदत्त किये जाने की प्रतीक्षा करता है , वह अवश्य ही मोक्ष का भागी होता है क्योंकि यह उसका अधिकार बन जाता है । यह महान भक्तों के बारे में बताया गया है 'तत्तेऽनुकम्पां' यह आपकी अनुकंपा हैं भगवान, 'सुसमीक्षमाणो' भगवान हमेशा मैं आपकी राह देखते रहूंगा ।कब आप प्राप्त होंगे और'एवात्मकृतं विपाकम्' जो भी मेरे जीवन में तकलीफ भी आती है उनको मैं निकाल लूंगा स्विकारुंगा,क्योंकि मेरे ही गलत कार्यों का कर्म फल है 'हृद्वाग्वपुभिर्विदधन्नमस्ते' बार-बार मैं काया वाचा मनासा आपको दंडवत प्रणाम करूंगा,आपके श्री चरणो में। 'जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥'ऐसे व्यक्ति को हक है मुक्त होकर भगवत धाम रोकने के लिए। जो ग्रेट है उसमें जी क्या है पहले Gratitude ग्रिटीट्यूड इसका मतलब कृतज्ञता किसके ह्रदय में कृतज्ञता है कुंती महारानी कृतज्ञता प्रगट करतीं हैं। इमे जनपदा: स्वृध्दा: सुपव्कौषधिवीरुध:। वनाद्रिनद्युदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितै:। ( श्रीमद्भागवतम 1.8.40) अनुवाद: - यह सारे नगर तथा ग्राम सब प्रकार से संमृध्द हो रहे हैं, क्योंकि जड़ी बूटियों तथा अन्नो की प्रचुरता है, वृक्ष फलों से लदे है, नदियां बह रही हैं, पर्वत खनिजों से तथा समुद्र संपदा से भरे पड़े हैं और यह सब उन पर आपकी कृपा दृष्टि पडने से ही हुआ हैं। वह कहती है कि इस प्रकृति में जो हरियाली आई है फल है फूल है पानी है सब कुछ है सब लोग खुश हैं यह आपका है वह कृतज्ञता प्रकट करती है वह भगवान को धन्यवाद देती हैं। लेकिन इतने भी बढ़कर कृतज्ञता क्या है? यदि हम लोग किसी तकलीफ में है और हम भगवान को धन्यवाद प्रकट करते हैं विषान्महाग्ने: पुशरुषाददर्शना- दसत्सभाया वनवासकृच्छृत:। मृधे मृधेSनेकमहारथास्त्रतो द्रौण्यस्त्रतच्श्रास्म हरेSभिरक्षिता:।। ( श्रीमद्भागवतम 1.8.24) अनुवाद: - हे कृष्ण, आपने हमें विषाक्त भोजन से, भीषण अग्निकांड से, मानव भक्षियों से, दुष्ट सभा से, वनवास-काल के कष्टों से तथा महारथियों द्वारा लड़े गए युद्ध से बचाया है और अब आपने हमें अश्वत्थामा के अस्त्र से बचा लिया है। वह भगवान को धन्यवाद देती है कि आपने हमें किन किन परिस्थितियों से बचाया है वह एक लंबी लीस्ट देती है आप कठिन परिस्थितियों में हमारे साथ रहे हो इसीलिए किसी भी कठिन परिस्थितियों से नहीं डरती नहीं क्योंकि जब कठिनता आती है तो हम आपका स्मरण करते हैं और आप आ जाते हैं। इसलिए आप अनेक कठिनाइयां भेजो हमारे जीवन में और आप भी आ जाइए और हमारे साथ में रहिए ऐसे भगवान से कहती है यह कृतज्ञता पहली वाली कृतज्ञता से बढ़कर है। और इससे भी बढ़कर क्या है अगर कोई हमें तकलीफ देता है उसको कृतज्ञता प्रगट करना धन्यवाद बोलना। यह कौन है आप जानते हैं 20800 राजाओं को जरासंध ने अपने कारागृह में रखा था उसने बली देने के लिए उनका शरीर क्षीण हो गया,उनके कपड़े मैले हो गए, सालों साल रखा था उसने और जब उन लोगों ने द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण को खत लिखा। आप हमें बचाइएं और भगवान श्री कृष्ण आ गए जैसे ही कारागृह का दरवाजा खुला तो सब लोगों ने भगवान श्री कृष्ण का सुंदर स्वरूप देखा,सभी ने दंडवत प्रणाम किया। उस समय एक शब्द बोलते हैं वह लोग नैनं नाथानुसूयामो मागधं मधुसूदन। अनुग्रहो यभ्द्रवतो राज्ञां राज्यच्युतिर्विभो।। ( श्रीमद्भागवतम 10.73.9) अनुवाद: - हे प्रभु मधुसूदन,हम इस मगधराज को दोष नहीं देते क्योंकि वास्तव में यह तो आपकी कृपा है कि हे विभु,सारे राजा अपने राजपद से नीचे गिरते हैं। हम मगधराज जरासंध से ईर्ष्या नहीं करते उन को धन्यवाद देना चाहते हैं क्योंकि वह बताते हैं अगर वह हमें इस कारागृह में नहीं रखता था हम घर में रहते तो हम इधर उधर झगड़ा करते थे क्योंकि उस ने हमें पकड़कर इस जेल में लाकर रखा अब हमें आपका दर्शन प्राप्त हो रहा है इसलिए मगद इंद्र जरासंध हमारा मित्र है क्यों मित्र हैं? बाकी लोग बोलेंगे कि वह हमारा दुश्मन है लेकिन हम उसे मित्र समझते हैं उनके कारण हमें आपका दर्शन प्राप्त हुआ इसलिए हमें तकलीफों को झेलना और तकलीफ को देने वाले को भी धन्यवाद कहना क्योंकि वह हमें कृष्णभावना अमृत के साथ जोड़ती हैं। यह है Gratitude (गैटीट्युड) कृतज्ञता दूसरा है आर repentance हमारे अंदर पश्चाताप की भावना होनी चाहिए। एक बार प्रवचन के बाद एक संन्यासी से एक माताजी ने कहा पश्चाताप करने की क्या आवश्यकता है मैं एकदम ठीक हूं हमको क्या पछताना है।जो पापी है वही पछताएगां, हम क्यों पछताएंगे ऐसा बोले वह नाराज हो गई थोड़ा लेक्चर सुनकर तो महाराज बोल रहे थे एक असली भक्त कभी भी नहीं सोचता कि मैं श्रेष्ठ हूंँ, महान हूंँ, मैंने बहुत कुछ किया है, मैं लिस्ट दिखा दूंगा मैंने क्या-क्या किया है इस तरह कभी नहीं सोचता एक आदर्श भक्त बल्कि अगर मैं शुद्ध हूंँ, महान हूंँ तो मेरे आंखों से आंसू आने चाहिए। 'गौरांग' बलिते हबे पुलक-शरीर। 'हरि हरि' बलिते नयने ब'बे नीर।। (लालसामयी प्रार्थना--नरोत्तमदास ठाकुर लिखित) अनुवाद: - ऐसा दुर्लभ अवसर कब आएगा जब 'गौरांग' बोलते ही शरीर पुलकित हो उठेगा, तथा 'हरी, हरी' बोलने पर नैनों से नीर बहने लगेगा। प्रभुपाद कहते हैं कि अगर तुम गौरांग बोलो तो तुरंत तुम्हारे रोम खड़े होने चाहिए और हरी हरी बोलो तो आंखों से प्रेमाश्रू बहने चाहिए, अगर यह होता नहीं तो तुम अपराधी हो। तदश्मसारं हृदयं बतेदं यद् गृह्यमाणैर्हरिनामधेयै:। न विक्रियेताथ यदा विकारो नेत्रे जलं गात्ररुहेषु हर्ष:।। ( श्रीमद्भागवतम 2.3.24 ) अनुवाद: - निश्चय ही वह हृदय फौलाद का बना है, जो एकाग्र होकर भगवान के पवित्र नाम का उच्चारण करने पर भी नहीं बदलता;जब हर्ष होता है,तो आंखों में आंसू नहीं भर आती और शरीर के रोम-रोम खड़े नहीं हो जाते। इस तात्पर्य में प्रभुपाद बताते हैं जिस व्यक्ति के शरीर में नाम लेने के बाद भी अश्रू नहीं बहते है तो वह अपराधी है। उसने अपराध किए होते हैं इसलिए तो उस माता को पता नहीं है वह गर्वित होकर सोचती है कि मेऐ साथ सब कुछ ठीक हैं। लेकिन हम पूर्व जन्म में किए गए पाप के कारण हम इस जन्म में दु:ख भोंकते हैं और इस जन्म में भी हमने कभी अनजाने में कभी जानबूझकर किसी को दुखी किया है अभिसन्धाय यो हिंसां दम्भं मात्सर्यमेव वा। संरम्भी भिन्नद्दग्भावं मयि कुर्यात्स तामस:।। ( श्रीमद्भागवतम 3.29.8) अनुवाद: - ईर्ष्यालु अहंकारी हिंस्त्र तथा क्रोधी और पृथकतावादी व्यक्ति द्वारा की गई भक्ति तमोगुण प्रधान मानी जाती है। भागवत में कहते हैं तामसिक भक्ति का मतलब है हम दंभ करते हैं दूसरे भक्तों को, अहंकार के वश में आकर दंभ करते हैं। क्रोध करते हैं, हम हट कर के मनमानी करते हैं। मस्सर करते हैं, दुसरो के उत्कर्ष को सहन नहीं कर पाते यह सभी एक प्रकार का पाप ही है जैसे एक गीत में गाते हैं। आमार जीवन, सदा पापे रत, नाहिक पुण्येर लेश। परेरे उद्वेग दियाछि ये कत, दियाछि जीवेरे क्लेश।। अनुवाद:-मेरा जीवन सदा पापपूर्ण कार्यो में वयतीत हुआ, अतएव मुझमें पुण्य लेशमात्र भी नहीं है। मैंने दूसरों को अत्यधिक क्लेश दिया है। वस्तुतः मुझे लगता है कि मैंने समस्त जीवों को कष्ट पहुँचाया है। हमें अपने पाप गुणों के बारे में सोचना चाहिए कि हम ऊपर कैसे उठे यह सोचना चाहिए और माफी मांगनी चाहिए भगवान से ,इसका मतलब ऐसा है कि हे भगवान मैंने सजन जाने या जानबूझकर भक्तों को मैंने इसी किया है उसके लिए मैं पश्चाताप करता हूं और मैं सद्गुणों को प्राप्त करना चाहता हूं और भक्तों के बीच में रहकर मैं किसी से अपराध ना करूं इस तरह से प्रार्थना करनी चाहिए यह एक खास तरह की प्रार्थना हैं भूतकाल में जो भी हुआ है उन पापों से मुक्त होने के लिए हमें भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए आप सब कुछ जानते हैं मेरे बारे में मैं आपका बालक हूं हमारे चित्त को शुद्ध कीजिए यह शक्ति आपके ही हाथ में है भक्ति विनोद ठाकुर की यह वैष्णव के गीतों में बहुत लाभ हैं। भावना पूर्वक कोई इन गीतो को गाने से, जो इनके अनुवाद को भी समझ कर पड़ेगा तो उसके मन में सद्भावना उठेगी,पश्चाताप करने से आंखों से गर्म आंसू निकलना चाहिए। हे भगवान! मैं महापापी हूं जैसे रूप सनातन मैं बोला जगाई मधाई भी श्रेष्ठ है हमसे क्योंकि उन लोगों ने कभी अपराध नहीं किया हैं, लेकिन हमने गौ मांस खाने वाले कि सेवा कि है इसलिए हम उनसे भी पतित हैं।ऐसे अपने बारे में बोला, एक श्लोक में बताते हैं। नीच जाति, नीच-संग्ङी, पतित अधम। कुविषय-कूपे पड़ि' गोङाइनु जनम! (श्रीचैतन्य चरितामृत, मध्य लीला, 20.99) अनुवाद: - मै निम्न परिवार में जन्मा था और मेरे संगी भी निम्न में वर्ग के लोग हैं। मैं स्वयं पतित और अधम हूंँ। निस्संदेह, मैंने अपना सारा जीवन तापमान भौतिकता के लिए भौतिकता के कुएं में गिरकर बिताया है। हम अधम है, पतित है, नीच जाती है, हम अंधकूप में गिर गए हैं, हम लोगों ने अपना जीवन गवा दिया देखिए रुप-सनातन ने मुसलमान राजा के अन्तर्गत काम किया लेकिन उन्होंने अपने महल के पिछे एक गुप्त वृंदावन भी बनाया था। वे महानपुरुष थे लेकिन अपने आप को पतित समझ रहे हैं। Repentance (रिपैंडन्स) इसकी जरूरत हैं। तिसरा है (ई ) E - Expectation मतलब हमारे हृदय में होनी चाहिए कि हे भगवान मै आपकोे कब प्राप्त करुंगा आप कब हम से प्रसन्न होंगे और मैं क्या कर सकता हूं आपकी प्रसन्नता के लिए इसे लालसामयी प्रार्थना करते हैं। राधाकृष्ण प्राण मोर युगल-किशोर। जीवने मरणे गति आर नाहि मोर॥1॥ अनुवाद:-युगलकिशोर श्री श्री राधा कृष्ण ही मेरे प्राण हैं। जीवन-मरण में उनके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई गति नहीं है। मैं क्या कर सकता हूं आपकी प्रसन्नता के लिए ,इसे कहते हैं लालसामयी प्रार्थनाएँ। ललिता विशाखा आदि यत सखीवृन्द। आज्ञाय करिब सेवा चरणारविन्द॥5॥ अनुवाद: -ललिता और विशाखा के नेतृत्वगत सभी सखियों की आज्ञा से मैं श्रीश्रीराधा-कृष्ण के श्री चरणों की सेवा करूँगा। नरोत्तमदास कह रहे हैं कि कब ऐसा समय आएगा जब मैं ललिता विशाखा जी के बाजू में खड़े रहकर उन्हें पूजा की सामग्री देते रहेंगे और वह गोपियाँ कब आपकी पूजा- आराधना करेंगे इस तरह से आचार्य अपने हृदय मे लालच उत्पन्न करते हैं। इसी तरह हम लोग तुलसी महारानी कि आरती गाते है। नमो नमः तुलसी कृष्णप्रेयसी। राधा-कृष्ण-सेवा पाब एइ अभिलाषी॥1॥ वह भी लालसामयी प्रार्थना हैं। इसी तरह हमारे ह्रदय में लालसा होनी चाहिए भगवान को प्राप्त करने के लिए। दुर्भाग्यवश आज कल लोग समझते हैं कि हम एक दिन मंदिर चले गए, बाकी के दिन घर मे व्हाट्सएप न्यूज देखते हैं, टीवी देखते हैं, न्यूज़पेपर देखते हैं, कार्टून देखते हैं,और बोलते हैं कि बच्चों के लिए कार्टून चाहिए इसलिए हम टीवी चलाते रहते हैं और खुद भी कार्टून देखते हैं हम देखते हैं कि लोग थोड़ा ठंडे पड़ जाते हैं अगर हम ठंडे पड़ जाते हैं तो हमारे अंदर आतुरता नही है, तत्व जिज्ञासा नहीं है, अपेक्षा नहीं है। भगवान कैसे प्राप्त होंगे?लालसा होनी चाहिए,भगवान को प्राप्त करने के लिए। अगर एक विद्यार्थी को आईआईटी में सीट प्राप्त करनी हो पहले उन दिनों में लोग 11वां 12वां कक्षा में पढ़ते थे उसके बाद में आठवीं नौवीं में शुरू हो गई आईआईटी के लिए पढ़ाई, अभी तो लोग छटा कक्षा में शुरू कर देते हैं आईआईटी का अभ्यास। पांचवी कक्षा के बाद छठी कक्षा में,इतनी लालसा है उन्हें सोचते हैं कि आईआईटी में घुसना ही घुसना है उनको। दिन रात भर पढ़ते हैं चाय पीते हैं कॉफी पीते हैं रात भर जागरण करते हैं सोते नहीं है रात भर । इतनी अपेक्षाओं के साथ,अगर भगवान को भी प्राप्त करना है तो हमें भी कुछ अभ्यास करना पड़ेगा जैसे हम लोग हमारे बचपन में मार्गशीर्ष महीने में जो पूरा महीना मंदिर जाता है उसे भगवान प्राप्त होते हैं मैंने एक बार मां से पूछा भगवान का दर्शन किस को प्राप्त होता है ? तो मां ने कहा मार्गशीर्ष महीने में तुम्हें रोज उठना पड़ेगा एक भी दिन तुम्हें सुबह सोना नहीं हैं। हम सभी बच्चे सुबह उठ जाते थे 3:30 बजे उठकर 4:00 बजे तक हम रेडी (तयार) हो जाते थे फिर घर के बाहर जाकर देखते थे कि कौन-कौन बाहर आ गया जो उठ गया हैं। उस वक्त हम सब लोग मंदिर जाते थे और सड़क में देखते थे तो इतना धीरे-धीरे करके इतनी भीड़ बढ़ती थी विष्णु के मंदिर में जाने के लिए मार्गशीर्ष महीने में सभी लोग मंदिर जाते थे भगवान को फूल अर्पण होता था हमने देखा कि सुबह 4:00 - 4:30 बजे सब लोग मंदिर में जमा हो जाती थे और भगवान का गुणगान करते हैं पहले ऐसी संस्कृति होती थीं, आजकल सब लोग आलसी हो गए आज कल हम हरिनाम में जाते हैं सुबह 7:30 तो सभी लोग मुंह में ब्रश लेके हमें देखते हैं कौन है? क्या है? हमे देखने के लिए, लोग 8:00 बजे उठते हैं। हमें दिखाना चाहिए भगवान को कि मैं आपके पीछे हूं ,आपको छोड़ने वाला नहीं हूं आप लाथ भी मारोगे तो आपके पांव पकड़कर रहेंगे छोड़ेंगे नहीं, आप डंडा भी मारो, लात भी मारो, भक्ति करने में जितनी भी तकलीफ होती है लेकिन हम आपको छोड़ने वाले नहीं हैं। भगवान मुड़-मुड़ कर देखेंगे, अरे छोड़ता नहीं कब से लगा है मेरे भक्ति में, भगवान अपने आप को दे देते हैं ऐसे भक्तों को। तो यही है expectation। A - Agree with the plan of Lord' ( एग्री वीथ द प्लैन औफ लौड) ए का मतलब क्या है Agree with the plan of Lord' (एग्री वीथ द प्लैन औफ लौड) कभी-कभी हम सोचते हैं कि हमें ऐसा करना चाहिए लेकिन भगवान का दूसरा प्लैन होता है जैसे पृथू महाराज ने सोचा था 100 यज्ञ मैं करूंगा लेकिन भगवान का प्लान दूसरा था उन्होंने 99 मे रुकने के लिए कहा। हमें भगवान के प्लान के साथ सहमति होनी चाहिए। दूसरा अर्जुन को भी लड़ाई करने की इच्छा नहीं थी वे भगवान के उपदेश सुनकर सहमत हो गए। ठीक है!अगर आपकी इच्छा हो। अर्जुन उवाच नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव।। (श्रीमद्भगवद्गीता 18.73) अनुवाद: - अर्जुन ने कहा, हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया। आप के अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई। अब मैं स़शयरहीत तथा हृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ। 'करिष्ये वचनं तव' ऐसे वचन बोलकर वहां रुक गए, और जोर युध्द करने के लिए बहुत ही इच्छा थी,जोश था,कि इन यक्षों को मैं मिटा दूंगा छोडूंगा नहीं, एक भी यक्षों को मैं छोडूंगा नहीं। किसी को जींदा नहीं छोडूंगा यक्षों के कुल को जिंदा नहीं छोडूंगा लेकिन स्वयं भगवान ने उपदेश दिया कि भगवान की इच्छा है तूम मारो मत तो अर्जुन मान गए हम अपने जीवन में अहंकार को त्याग कर भगवान कि इच्छा की पूर्ति करने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।अगर आपका दूसरे भक्तों के साथ झगड़ा हो गया तो आप उस भक्तों को बोलते हैं मैं जीवन भर तुम्हारे चेहरे को नहीं देखूंगा चले जाओ! ऐसा बोलते हैं उसको फिर आप बोलते हैं , लेकिन बाद में गुरु बोलते है अरे आप दोनों को मिलकर एक साथ आकर एक कार्य करना हैं। आप दोनों बड़े बुद्धिमान हो ऐसा गुरु कहते हैं,तो गुरु कि इच्छा को पूर्ण करने के लिए हमें तैयार हो जाना चाहिए यह भक्तों का लक्षण है एग्री टू द प्लैन ऑफ गुरु एंड गौरंग! यह है 'A' और अंत मे है 'T' - Tolerance (टॉलरेंस) एक भक्त के अंदर सहिष्णुता की बहुत जरूरत हैं। तृणादपि सु - नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान - देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।। (श्रीचैतन्य चरितामृत, अंत लीला 20.21) अनुवाद “ जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है । ' यहां सहिष्णु पेड़ का क्यों उदाहरण दिया गया है? भगवान कृष्ण एक दिन अपने मित्रों को वृंदावन के जंगल में लेकर गए भगवान ने उनको दिखाया। हे स्तोककृष्ण हे अंशो श्रीदामन्सुबलार्जून। विशाल वृषभौजास्विन्देवप्रस्थ वरुथप।। 31।। पश्यतैतान्महाभागान्परार्थैकान्तजीवितान्। वातवर्षातपहिमान्सहन्तो वारयन्ति न:।। 32।। (श्रीमद् भागवतम् 10.22.31-32) अनुवाद: - भगवान कृष्ण ने कहा, हे स्तोककृष्ण तथा अंशु,हे श्रीदामा, सुबल तथा अर्जुन, हे वृषभ, ओजस्वी, देवप्रस्थ तथा वरुथप, जरा इन भाग्यशाली वृक्षों को तो देखो जिनके जीवन की अन्य के लाभ हेतु समर्पित है। वे हवा, वर्षा, धुप तथा पाले को सहते हुए भी इन तत्वों से हमारी रक्षा करते हैं। हे स्तोककृष्ण तथा अंशु,हे श्रीदामा, हे सुबल तथा अर्जुन,सभी आओ इधर पश्यतैतान्महाभागान्परार्थैकान्तजीवितान्। वातवर्षातपहिमान्सहन्तो वारयन्ति न:।। 32।। पेड़ को दिखाते हैं अरे पेड़ जीता है दूसरों के लिए खुद के लिए नहीं, सहन करता है क्या क्या? ठंडी, गर्मी, बारीश यह सब सहन करके अपने नीचे दूसरों जीवों को आश्रय प्रदान करता हैं, इतना ही नहीं पेड़ से फल, फूल प्राप्त होते हैं लकड़ी, काष्ट भी प्राप्त करते हैं चूल्हे में इस्तेमाल करने के लिए और पेड़ के मृत्यु के बाद भी उसे काटकर टेबल, कुर्सी बनाते हैं कभी-कभी एक ऐसा पंछी हैं जो पेड़ में छिद्र बनाता है टॉक टॉक टॉक टॉक करके पेड़ को मार मार कर पेड़ को पता है कि यह मुझे मार रहा है फिर भी उसी को पेड़ अपने अंदर बैठने के लिए स्थान देता हैं। एक भक्त को भी ऐसा होना चाहिए। आपको कोई दुख दे रहा है तकलीफ दे रहा है मार मार के हमको प्रभुपाद कि सेवा से जोड़ रहा है, हमें सेवा दे रहा है उस से सहन करके सेवा लो इस तरह कि हमें आदत होनी चाहिए। एक पत्थर लेकर आप आम के पेड़ को मारो आप एक पत्थर मारो वह चार आम देगा आपको,ऐसे भक्तों की आदत ऐसी होनी चाहिए तकलीफों को देखते हुए दूसरों की भलाई करते जाना चाहिए। G - Gratitude। R - Repentance E - Expectation A- Agree with the plan of Lord T - Tolerance तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् । हृद्वाग्वपुभिर्विदधन्नमस्ते जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥ (श्रीमद् भागवतम् 10.14.8) हे प्रभु , जो व्यक्ति अपने विगत दुष्कर्मों के फलों को धैर्यपूर्वक सहते हुए तथा अपने मन , वाणी तथा शरीर से आपको नमस्कार करते हुए सत्यनिष्ठा से आपकी अहैतुकी कृपा प्रदत्त किये जाने की प्रतीक्षा करता है , वह अवश्य ही मोक्ष का भागी होता है क्योंकि यह उसका अधिकार बन जाता है । इस का मतलब है सहिष्णुता, सहनशीलता। जो भी हमारे जीवन में तकलीफ होती है उसे भगवान की अनुकंपा समझकर स्वीकार करना चाहिए। अपेक्षा करना कि भगवान आप मेरे जीवन में कब आयेंगे। पाप तो मेरा है इसलिए मैं दु:ख भोग रहा हूँ। काया, वाचा, मनसा भगवान को दंडवत प्रणाम करना और हमें सहन करना ओर भगवान के आदेशों का पालन करना चाहिए। इस के लिए हमें सहनशील होना चाहिए, लोग कहेंगे कि कितना सहन करें ऐसे लोग पुछते है, नहीं हमें ऐसा नहीं पुछना चाहिए, हम भगवान का प्रेम प्राप्त करना चाहते हैं यह राजमार्ग है, यह प्रेम का मार्ग है, इसमें गुरु और कृष्ण कि प्रीति और उनका सुख और उनका सुख ही हमारा सुख है "जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक्" ऐसे व्यक्ति के लिए आशीर्वाद है यह जरूर ऐसे व्यक्ति को जरूर भगवत प्राप्ति हो ही जाएगी आज मैंने 5 गुणों के बारे में बताया और इसके पहले मैंने गर्व के बारे में बताया, गर्व और अहंकार हम दोनों को मिटा दें और उसके साथ साथ हम पाच गुणों को भी हासिल करें और हमारा जप यांत्रिक नहीं होगा जरूर हमारे जब मैं कुछ भावनाएं उठेंगे भगवान को पुकार के समय। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।बहुत-बहुत धन्यवाद!

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