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*जप चर्चा* - *16 -03 -2022*
(गौर कथा लीला)
*जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद, जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद*
इस गौर कथा श्रंखला को आगे बढ़ाते हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय ! गौर पूर्णिमा महोत्सव की जय ! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भगवत्ता के विषय में यहां आप सब सुन चुके हो और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की आदि लीला मतलब मायापुर नवद्वीप में लीला का भी वर्णन सुना है और यह सब संक्षिप्त में भी सुना है कुछ उल्लेख तो हुआ है कि अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास लिया है और अगले 6 महीनों तक अब उनकी मध्य लीला संपन्न होगी।
*श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार।।4।।*
(वैष्णव भजन जय जय जगन्नाथ वासुदेव घोष )
अर्थ - अब वही भगवान श्रीकृष्ण राधारानी के दिव्य भाव एवं अंगकान्ति के साथ श्रीगौरांग महाप्रभु के रूप में पुनः अवतीर्ण हुए हैं और उन्होंने चारों दिशाओं में "हरे कृष्ण” नाम का राधा भाव अपनाए हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* इस महामंत्र का प्रचार उन्होंने 6 सालों तक किया। दक्षिण भारत की यात्रा हुई , पूर्व भारत बंगाल की ओर आए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और फाइनली झारखंड के जंगलों से होते हुए वृंदावन गए। आज हमें श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के वृंदावन टूर या परिक्रमा के बारे में कहना ही उचित होगा। उन्होंने ब्रजमंडल की परिक्रमा की, जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन पहुंचे।
*आराध्यो भगवान् ब्रजेश तनय: तद्धाम वृन्दावनं रम्यकाचिद उपासना व्रज-वधु वर्गेण या कल्पिता श्रीमदभागवतम प्रमाणमलम प्रेम पुमर्थो महान श्री चैतन्य महाप्रभोर मतम इदं तत्र आदरो न: पर:* (चैतन्य मञ्जुषा)
अनुवाद:- भगवान बृजेंद्र नंदन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृंदावन आराध्य वस्तु है। व्रज वधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्द प्रमाण है एवं प्रेम ही पुरुष पुरुषार्थ है- यही श्रीचैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धांत हम लोगों के लिए परम आदरणीय है।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का मत भी है या उन मतों में से एक मत यह भी है भगवान की आराधना करनी चाहिए और साथ ही साथ वृंदावन आराधनीय है। वृंदावन धाम की जय ! वृंदावन धाम की भी आराधना होनी चाहिए , धाम भगवान से अभिन्न है यह सिद्धांत ही है। धाम भी भगवान है तो धाम की भी आराधना है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां जाकर वहां पहुंचकर वृंदावन की आराधना करना चाहते थे। महाप्रभु ने अपना वृंदावन से जो प्रेम है वह कई बार दर्शाया था। महाप्रभु की दीक्षा हुई, कहां पर? गया में, तो उनको जैसे महामंत्र प्राप्त हुआ जैसे ईश्वर पुरी ने कहा
*हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामेव केवलम् ।कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा* ॥21॥
अनुवाद- इस कलियुग में आत्म-साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन, भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन, भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है, अन्य कोई उपाय नहीं है, अन्य कोई उपाय नहीं है।"
तुम कीर्तन करो जप करो, हरे कृष्ण महामंत्र का उच्चारण करते ही पूरा प्रेम उदित हुआ और उसी के साथ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन की ओर दौड़ने लगे। बड़ी मुश्किल से उनको रोका और उनको नवद्वीप ले आए और फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की सन्यास दीक्षा हुई।
सन्यास मतलब सन्यासी ,
श्रीभगवानुवाच
*काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु: | सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ||* (श्रीमद भगवद्गीता 18.2)
अनुवाद - भगवान् ने कहा-भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और समस्त कर्मों के फल-त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं ।
कामवासना से मुक्त हो गए तो मुक्त होते ही दीक्षा के समारोह के मध्य में ही उन्होंने कहां जाने का सोचा ? वृंदावन, वृंदावन की ओर जा ही रहे थे किंतु फिर उनको रोका भी गया शांतिपुर ले आए और शची माता ने उनको जगन्नाथपुरी जाने के लिए कहा, जगन्नाथपुरी रहने के लिए कहा तो आ गए और कुछ समय के लिए रहे फिर यात्रा प्रारंभ हुई। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु यात्रा के अंतर्गत वृंदावन की यात्रा जरूर करना चाहते थे। जब से बंगाल आए यह कहते कहते ही हम वृंदावन नहीं पहुंचेंगे रामकेली गए, रूप सनातन की दीक्षा हुई और सनातन को उन्होंने कहा भी कि मैं वृंदावन जा रहा हूं तुम भी पीछे से आ जाओ मुझे वृंदावन में मिलो। जैसे ही लोगों को पता चला कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जा रहे हैं सारा बंगाल ही उनके साथ जाने लगा, हजारों लाखों लोग चैतन्य महाप्रभु के पीछे पीछे जाने लगे, चैतन्य महाप्रभु इतनी बड़ी संख्या के साथ नहीं, अकेले ही जाना चाहते थे। भीड़भाड़ के साथ नहीं जाना चाहते थे तब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी लौट आए। प्रस्ताव तो रख रहे थे कि मुझे वृंदावन जाना है मुझे वृंदावन जाना है। सभी जगन्नाथपुरी में कहने लगे कि अभी वहां बहुत ठंड है। ठीक है, मैं अब जाना चाहता हूं तो फिर वह कहते अभी तो ढोल यात्रा है ना उसमें आपको सम्मिलित होना होगा। अब जगन्नाथ यात्रा है तो आप वृंदावन कैसे जा सकते हो? ऐसे ऐसे वह टाल रहे थे किंतु फिर चैतन्य महाप्रभु ने परवाह नहीं की उन्होंने कहा कि नहीं मुझे जाना ही है, मुझे जाने दो। वृंदावन धाम की जय ! फिर अब चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जा रहे हैं वहां की झारखंड की लीला मुझको स्मरण आ रही है महाप्रभु ने जंगल में किया मंगल और सारे पशु पक्षियों को कीर्तन और नृत्य करते हुए देखा। कैसे शेर और एक हिरण एक दूसरे के बगल में चल रहे हैं कंधे से कंधा लगाते हुए और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने यह भी देखा कि हिरण और बाघ एक दूसरे को आलिंगन दे रहे हैं और आलिंगन ही नहीं चुंबन भी दे रहे हैं। चुंबन हो रहा है किसका? शेर और हिरण का, जैसे ही यह दृश्य चैतन्य महाप्रभु ने देखा तो वह कहने लगे वृंदावन !वृंदावन !वृंदावन ! वृंदावन धाम की जय ! वह कहने लगे यही तो वृंदावन है जहां पर ईर्ष्या या द्वेष नहीं है, क्रूरता नहीं है जहां के भक्त एक दूसरे को गले लगाते हैं।
*वांछा-कल्पतरूभयशच कृपा-सिंधुभय एव च । पतितानाम पावने भयो वैष्णवे नमो नमः ॥*
अनुवाद - मै अनंत कोटि वैष्णव भक्त वृंदों के चरणों में प्रणाम करता हूँ जो की समस्त वांछाओं को पूर्ण करने कल्पवृक्ष के समान हैं कृपा के सागर हैं एवं पतितों उद्धार करने वाले हैं।
होता है *नामें रुचि जीवे दया वैष्णव सेवन* ,वैष्णव की सेवा करते हैं और ऑफ कोर्स कीर्तन भी करते हैं कीर्तन करके ही मन की स्थिति या भावना को प्राप्त करते हैं। इस तरह चैतन्य महाप्रभु ने सोचा कि यही तो वृंदावन है। चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े वृंदावन की ओर दूर से जैसे ही उन्होंने मथुरा या हो सकता है वह कुछ मंदिरों की शिखर देख रहे हो, कोई पताका देख रहे हो, चक्र देख रहे हैं उसको देखते ही साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और फिर वहीं पे लोटने लगे कई सारे अधिक भाव उदित होने लगे, कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने वैसे टीका किया है श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में रहा करते थे उससे पहले जहां भी रहा करते थे मायापुर में भी थे जगन्नाथपुरी में थे वृंदावन का नाम सुनते ही, चर्चा हो रही हो वृंदावन के विषय में, वृंदावन के नाम का उच्चारण हो रहा हो उसी के साथ चैतन्य महाप्रभु की जो नॉर्मल भाव है उसी के 100 गुणा भाग उदित होते या प्रकट होते हैं जगन्नाथपुरी में, फिर लिखा है जब वे वृंदावन मथुरा के रास्ते में थे तब वृंदावन के भक्ति के भाव 1000 गुणा अधिक बढ़ गया और जैसे ही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु मथुरा वृंदावन पहुंच गए और धीरे-धीरे वे द्वादश कानन की या 12 वनों की यात्रा करने वाले हैं। उस समय श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की के भाव 100000 गुना अधिक मल्टीप्लाई बाय हंड्रेड थाउजेंड हो गए। फिर कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने यह भी लिखा हैं यह मध्य लीला सप्तदश परिच्छेद, सेवंथ चैप्टर अध्याय और फिर अट्ठारह इन 2 अध्यायों में ,चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन यात्रा का वर्णन किया है। लेकिन कहते हैं कि मुझे क्षमा करें, मेरी बस इतनी ही लिखने की क्षमता है सारी लीलाएं या कुछ लीलाओं की संख्या हो सकती है उन के दरमियान जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के जो भाव और महा भाव का और उसका उद्वेग उसका जो जो हाल हुआ, मन की स्थिति हुई कई सारे विकार जो उत्पन्न हुए अष्ट सात्विक विकार भी कहते हैं वह सारे विकार सारे भाव उस भक्ति का वर्णन मैं नहीं कर सकता और कोई कर सकता है तो वह अनंत शेष ही कर सकते हैं। अनंत शेष को करने दो और वह कहते हैं उन्होंने तो 2 अध्यायों में वर्णन किया है जबकि कोटि-कोटि ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन यात्रा का वर्णन कितने ग्रंथों में मिलियंस ऑफ स्क्रिप्टर्स बुक्स या प्रिंट में वर्णन हो जाएगा। फिर जैसे प्रभुपाद लेक्चर देते थे और अन्य ट्रांसक्राइब करते थे इस प्रकार अनंतशेष ने कहा तो किसी ने रिकॉर्डिंग की, ट्रांसक्रिप्शन और फिर प्रिंटिंग को भेजा जाएगा। इस प्रकार असंख्य ग्रंथ बन सकते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु विश्राम घाट पहुंचे जमुना मैया की जय! हम देखते भी हैं किंतु फिर भी समस्या है हम जमुना मैया कहते हैं किंतु हम को ज्यादा कुछ होता नहीं, कुछ कुछ होता है ,ज्यादा कुछ नहीं होता। हम लोग जय राधे कहते रहते हैं , ऐसे खींचते हुए रा ..... धे ! क्या हुआ ज्यादा कुछ नहीं होता लेकिन शुकदेव गोस्वामी ने भी ऐसे राधा के नाम का सीधे उच्चारण नहीं किया, राधा का नाम कहना या राधिका अगर प्रत्यक्ष रूप से उन्होंने कुछ कहा, क्योंकि वह जानते थे पूरा राधा का नाम लेंगे तो गए काम से कथा वहीं ठप हो जाएगी वह मूर्छित हो जाएंगे यदि शुकदेव गोस्वामी का भी ऐसा हाल होता रहा शुक देव गोस्वामी की इच्छा है। राधा रानी का एक नाम है शुकेष था शुकेश्ठा हर एक के इष्ट होते हैं शुकदेव गोस्वामी की राधा रानी इष्ट हैं। यदि यह हाल उनका का है तो श्रीकृष्ण दास कविराज गोस्वामी का क्या कह सकते हैं। उन्होंने जमुना को देखा और जय जमुना मैया की ऐसा कहा होगा, उस समय कितने सारे संचारी भाव कहते हैं कितने सारे लहरें तरंगे उसका आंदोलन उन भावों का सुनामी कहो, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु विश्राम घाट पर स्नान कर रहे हैं और फिर उनका डेस्टिनेशन है पहला लक्ष्य है कृष्ण जन्म स्थान । कीर्तन और नृत्य करते हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जन्म स्थान पहुंचे हैं और वहां प्रसिद्ध मंदिर है श्रीकृष्ण के प्रपोत्र वज्रनाभ के द्वारा स्थापित किए हुए कई सारे वृंदावन में उनको देव कहते हैं। उसमें श्री केशव देव का मंदिर, कृष्ण जन्म स्थान पर है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां पहुंच गए, रास्ते में बहुत कुछ हुआ है लोग दर्शन कर ही रहे थे, देख रहे ही थे सन्यासी को किंतु यह सन्यासी का दर्शन कुछ अद्भुत था उसमें कुछ विशेष प्रभाव था तेजस्वी ओजस्वी तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु मथुरा में उपस्थिति थे और जब वे जा रहे हैं जन्म स्थान की ओर, कुछ ही क्षणों में मथुरा में बात फैल गई चैतन्य महाप्रभु केशव देव पहुंचे हैं साष्टांग दंडवत प्रणाम हुआ है पुजारी ने माल्यार्पण की केशव देव की माला ही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को पहनाई है।
*लोक 'हरि' 'हरि' बले, कोलाहल हैल।'केशव'-सेवक प्रभुके माला पराइल ॥* 160॥
अनुवाद- तब सारे लोग “हरि! हरि!” उच्चारण करने लगे और वहाँ बहुत कोलाहल होने लगा। भगवान् केशव की सेवा में लगे पुजारी ने महाप्रभु को लाकर एक माला भेंट की।
केशव के सेवक ने महाप्रभु को माला पहनाई और फिर उसी के साथ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन और नृत्य स्वागत हुआ गायन और नाच हो रहा है, उदंड कीर्तन हो रहा है और कुछ समय तक बहुत बड़ी संख्या में मथुरा वासी वहां पहुंचे हैं और यह सब दृश्य देख रहे हैं। दर्शनीय अगर कोई व्यक्ति है तो स्वयं महाप्रभु हैं या गौर सुंदर हैं लेकिन सभी अनुभव कर रहे हैं कि नहीं नहीं यह हमारे गौर सुंदर श्याम सुंदर हैं। वहां के उन लोगों को चैतन्य महाप्रभु की भगवत्ता पर प्रवचन देने की आवश्यकता नहीं थी।
*सर्वथा-निश्चित-इँहो कृष्ण-अवतार।मथुरा आइला लोकेर करिते निस्तार ॥* 163 ॥
अनुवाद- “निश्चय ही श्रीचैतन्य महाप्रभु सभी तरह से भगवान् कृष्ण के अवतार हैं। अब वे हर एक का उद्धार करने मथुरा आये हैं।"
*श्री कृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण नाही अन्य* जैसा कि हम लोग सुन रहे थे कई पुराणों के शास्त्रों के प्रमाणों के द्वारा, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु श्री कृष्ण हैं, स्वयं हमको बताना पड़ता है क्योंकि वहां उपस्थित थे। मथुरा के भक्त ऑन द स्पॉट उनको साक्षात्कार हुआ यह साक्षात्कार तो कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने लिखा ही है। सभी ने मान लिया कि यह कृष्ण अवतार है यह हमारे श्याम सुंदर हैं उनका फर्स्ट एंड एक्सपीरियंस रहा। चैतन्य महाप्रभु के सानिध्य में सभी ने ऐसा अनुभव किया जब कीर्तन और नृत्य हो रहा था और मथुरा वासी भी कीर्तन कर रहे थे, वैसे एक व्यक्ति श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के बिल्कुल सामने ही नृत्य कर रहा था और वह थोड़ा भाव भंगी कहो, कुछ और उसे अधिक प्यारी भी लगी, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने धीरे-धीरे और बहुत समय के उपरांत जब कुछ कीर्तन को विश्राम दिया। वह जो नृत्य कर रहे थे चैतन्य महाप्रभु के बिल्कुल सामने उन्होंने अपने घर पर प्रसाद के लिए बुलाया ऐसा कई स्थानों पर वर्णन है। पंढरपुर में भी कीर्तन हो रहा था चैतन्य महाप्रभु वहां गए तो एक ब्राह्मण ने अपने घर पर बुलाया था प्रसाद के लिए और यहां गोदावरी के तट पर भी जहां रामानंद राय से मिले उस मिलन के उपरांत एक ब्राह्मण पहुंच ही गया, कृपया आइए, ऐसा कई स्थानों पर वर्णन है, उसे अपने घर ले आए वार्तालाप हो रहा था चैतन्य महाप्रभु ने नोट किया सोच रहे थे इस व्यक्ति का कोई गौड़ीय संप्रदाय से संबंध होना चाहिए नहीं तो इतनी भक्ति यह प्रेम तो संभव नहीं है। उन्होंने अपना परिचय दिया उन्होंने यह भी कहा कि मेरे घर पर माधवेंद्र पुरी आए थे माधवेंद्र पुरी को मैंने बुलाया प्रसाद के लिए भिक्षा के लिए और मेरी भिक्षा स्वीकार करने से पहले उन्होंने मुझे दीक्षा दे दी और फिर प्रसाद ग्रहण किया सनोडिया ब्राह्मण करके उल्लेख हुआ है। वे सनोडिया ब्राह्मण थे। जो ब्राह्मण अलग-अलग कुल या परंपराएं जाति कहो, ब्राह्मणों में भी तो सनोडिया ब्राह्मण कोई ज्यादा उच्च कुलीन नहीं माने जाते तो भी यह सनोडिया ब्राह्मण कह रहे थे माधवेंद्र पुरी ने मुझ पर कृपा कि मुझे दीक्षा दी इस प्रकार से मेरा उद्धार किया। वैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा, ठीक ही किया उन्होंने जो भी किया, यह कहकर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ध्यान की बात कह रहे हैं। धर्म स्थापना हेतु साधुर व्यवहार कहते हैं। साधु का हर व्यवहार वैसे धर्म की स्थापना के लिए ही होता है। माधवेंद्र पुरी ने तुम्हारे साथ में जो व्यवहार किया यह धर्म की स्थापना के लिए ही है जो भी किया उन्होंने उचित की किया और कोई भी किसी का भी या स्पेशली कलयुग में सभी पतित हैं।
*धर्म-स्थापन-हेतु साधुर व्यवहार ।परी-गोसाजिर ये आचरण, सेइ धर्म सार॥* 185॥
अनुवाद-"भक्त के आचरण से धर्म के वास्तविक प्रयोजन की स्थापना होती है। माधवेन्द्र पुरी गोस्वामी का आचरण ऐसे धर्मों का सार है।"
पहले कोई शूद्र हो सकता है वह चांडाल हो सकता है , भागवत में पूरा श्लोक वर्णन है तो जो भी गौड़िये वैष्णव का आश्रय लेगा या उनका पाद आश्रय लेगा उसका उद्धार निश्चित है तो वैसा ही किया माधवेंद्र पुरी ने और जैसे ही चैतन्य महाप्रभु को पता चला कि यह सनोडिया ब्राह्मण माधवेंद्र पुरी के शिष्य हैं तब चैतन्य महाप्रभु सोचने लगे, मैं तो माधवेंद्र पुरी के शिष्य का शिष्य हूं लेकिन यह तो माधवेंद्र पुरी के शिष्य हैं । आप मेरे गुरु हो आप मेरे गुरु हो ऐसा कहकर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उनके चरण स्पर्श के लिए आगे बढ़ने लगे। इस ब्राह्मण को बडा अजीब सा लगने लगा वह लज्जित हो रहे थे हरि हरि ! यह सब हो ही रहा था यह संवाद यह भिक्षा देना प्रसाद ग्रहण करना सनोडिया ब्राह्मण के घर, तो तब तक वैसे चैतन्य महाप्रभु गौर सुंदर श्याम सुंदर के रूप में ही जो वहां पहुंचे थे या जैसा कि सभी ने समझा, रूप तो वही था लेकिन गौर सुंदर का रूप था , लेकिन सभी ने समझा श्यामसुंदर हैं। यह समाचार सभी में फैल गया , संभावना है कि चैतन्य महाप्रभु जन्म स्थान मंदिर में, केशव देव मंदिर में दर्शन नहीं कर पाए होंगे।
*लक्ष-सङ्ख्य लोक आइसे, नाहिक गणन। बाहिर हञा प्रभु दिल दरशन ॥* 188॥
अनुवाद-लोग लाखों की संख्या में आये, जिनकी गणना कोई नहीं कर सकता था। अतः श्री चैतन्य महाप्रभु लोगों को दर्शन देने के लिए घर से बाहर आये।
वे सभी सनोडिया ब्राह्मण के घर की ओर दौड़े और लाखों लोगों ने वहां आकर घेराव किया सनोडिया ब्राह्मण के घर के इर्द-गिर्द हो सकता है कुछ छत पर चढ़े होंगे, कोई खिड़की में से यह दरवाजा खटखटा रहे हैं और सभी की मांग है वी वांट दर्शन हमें दर्शन करना है दर्शन करना चाहते हैं *अखियां प्यासी रे दर्शन दो* , प्रभु लीला दर्शन फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु क्या कर सकते हैं इतनी डिमांड है तो सप्लाई करना होगा , चैतन्य महाप्रभु बाहर आए , प्रभु बोले
*बाहु तुलि’ बले प्रभु ‘हरि-बोल’-ध्वनि ।प्रेमे मत्त नाचे लोक करि' हरि-ध्वनि ॥* 189॥
अनुवाद- जब लोग एकत्र हो गये, तो श्रीचैतन्य महाप्रभु ने अपने हाथ उठाकर जोर से कहा, “हरि बोल!” लोगों ने महाप्रभु के साथ नामोच्चारण किया और प्रेमाविष्ट हो गये। वे उन्मत्त की तरह नाचने तथा "हरि!" की दिव्य ध्वनि का उच्चारण करने लगे।
चैतन्य महाप्रभु बाहर आए और हरि बोल उनका ऐसे कहते हैं सभी ने हरी ध्वनि की है और सभी उछलने कूदने लगे और पुनः कीर्तन हुआ है नृत्य हुआ है और नृत्य होता ही रहता है महाप्रभु का फिर सनोडिया ब्राह्मण मथुरा का दर्शन कराना चाहते थे। मथुरा के दर्शनीय स्थल, वह जो दर्शन कर रहे थे जब हम ब्रजमंडल परिक्रमा में जाते हैं तो 1 दिन मथुरा मंडल की अथवा नगरी की परिक्रमा करने का लक्ष्य लिया है। चैतन्य महाप्रभु के मन में भी इच्छा जगी कि मैं मधुवन तालवन कुमुदवन बहुलावन
*वन' देखिबारे यदि प्रभुर मन हैल। सेइत ब्राह्मणे प्रभु सङ्गेते लइल ॥* 192॥
अनुवाद- जब श्री चैतन्य महाप्रभु को वृन्दावन के विविध वनों को देखने की इच्छा हुई, तो उन्होंने उसी ब्राह्मण को अपने साथ ले लिया।
*मधु-वन, ताल, कुमुद, बहुला-वन गेला। ताहाँ ताहाँ स्नान करि' प्रेमाविष्ट हैला ॥* 193।।
अनुवाद- श्रीचैतन्य महाप्रभु ने विभिन्न वन देखे, जिनमें मधुवन, तालवन, कुमुदवन तथा बहुलावन सम्मिलित हैं। वे जहाँ जहाँ गये, उन्होंने अत्यन्त प्रेमपूर्वक स्नान किया।
और वनो की यात्रा या मथुरा की यात्रा हो गई, ब्रजमंडल की यात्रा करने की इच्छा है महाप्रभु की, उसी के लिए सनोडिया ब्राह्मण तैयार हैं वैसे साथ में चैतन्य महाप्रभु के असिस्टेंट भी जा रहे हैं बलभद्र भट्टाचार्य एक ही असिस्टेंट को साथ में लाए थे। वह भी हैं और साथ में सनोडिया ब्राह्मण या वैष्णव हैं। गाइड करना चाहते हैं और फिर आप पूरे ब्रज मंडल परिक्रमा जो मथुरा से प्रारंभ हुई मधुवन और तालवन बहुला वन, वृंदावन यह पांचवीं क्रमांक में वृंदावन का नाम आता है फिर वहां से आगे बढ़े हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु खदिर वन गए हैं काम्य बन गए हैं और इसी के साथ चैतन्य महाप्रभु की जमुना के पश्चिमी तट पर जो वन है यात्रा पूरी होती है। जमुना को क्रॉस किया भद्र वन, भांडीरवन जो लक्ष्मी का वन , और फिर महावन , जमुना मैया की जय! मथुरा धाम की जय और विश्राम घाट की जय ! इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु ने द्वादश कानन की यात्रा की।
*ढुले ढुले गोराचाँद हरि गुण गाइ आसिया वृंदावने नाचे गौर राय।।1।।*
*वृंदावनेर तरुर लता प्रेमे कोय हरिकथा निकुञ्जर पखि गुलि हरिनाम सुनाई।।2।।*
1. चंद्र सदृश श्रीगौरांग महाप्रभु भावविभोर होकर श्रीहरि का गुणगान एवं नृत्य करते हुए वृन्दावन में प्रवेश करते हैं।
जब हम ऐसा गीत गाते हैं उसमें भी कुछ संकेत हुआ है। क्या क्या हुआ"
वृंदावन में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तन और नृत्य किया है वृंदावन जमुना के तट पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पहुंचे और वहीं पर कीर्तन कर रहे हैं। जमुना ने नोट किया मेरे प्रभु आए हैं पहले भी आए थे समझ गई जब जन्म लिया तो गोकुल जाते समय भी पहुंचे थे जमुना के तट पर, उनको क्रॉस कराना था जमुना को जन्मदिन या जन्म रात्रि के समय तो वही प्रभु अब पुनः आए हैं मेरे तट पर खड़े हैं यह जो देखा और सुना भी उनको हरि हरि कहते हुए। जमुना आगे बढ़ती है और आगे बढ़ते बढ़ते वहां कुछ कमल के पुष्प भी तोड़ती है उसका चयन करती है हाथ में लिए हुए और महाप्रभु के चरण धोकर पाद प्रक्षालन किया उसने जल्दी से महाप्रभु के चरण छुए हैं और पत्रं पुष्पं अर्पित किए हैं। सुस्वागतम गौरंगा का स्वागत करती है हरि हरि ! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब जा रहे हैं एक स्थान पर उन्होंने गायों को चरते हुए देखा तो उनको थोड़ा आगे बढ़कर आलिंगन देते हैं। गायों ने जैसे ही देखा गौरंगा और शयाम सुंदर को तो गाय दौड़ पड़ी हैं उन्हें घेर लिया है उन्हें चाट रही हैं। गौरांग महाप्रभु का ऐसा वात्सल्य संबंध है गायों के लिए यह बाल गोपाल है, मतलब गाय माताएं हैं और यह उनका बछड़ा जैसा ही है अपत्य है, ऐसा संबंध है ,तो प्रदर्शन कर रहे हैं वह गायों को खुजला रहे हैं, ऐसा चलता रहा। श्री चैतन्य महाप्रभु और आगे बढ़े तो वहां के पक्षी उच्च स्वर में कलरव कर रहे हैं , उड़ान भरते हुए जैसे यहां लिखा है गौर बोले हरि हरि, शारि बोले हरि हरि , मुख्य भजन पक्षी गा रहे हैं ,मयूर नृत्य कर रहे हैं चैतन्य महाप्रभु की प्रसन्नता के लिए और आगे बढ़ रहे हैं वहां के जो वृक्ष हैं। उन्होंने सोचा , यहां पर लिखा है कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने एक मित्र जब वह अपने दूसरे मित्र से बहुत समय के उपरांत मिलता है तब वैसे भी कुछ भेंट देना चाहता है वृक्ष सोच रहे हैं इस मित्र को हम क्या भेंट दे सकते हैं वहां के वृक्ष अपनी शाखाओं को हिलाने लगे उसी के साथ क्या हो रहा है वृक्ष पुष्प वृष्टि कर रहे हैं , अभिषेक हो रहा है उन्होंने सिंगापुर या दुबई से पुष्प को एक्सपोर्ट नहीं किया है दुबई तो भूल जाओ वहां तो केवल रेत ही है । अलग-अलग भिन्न भिन्न प्रकार के जिन वृक्षों के पास फल है वह भी दे रहे हैं अलग अलग फल अर्पित किए जा रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का इन वृक्षों के प्रति उनका प्रेम जगा ,चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े वृक्ष को आलिंगन दिए यह भी भक्त है, ऋषि मुनि है और जब अन्य वृक्षों ने देखा कि चैतन्य महाप्रभु ने एक वृक्ष का आलिंगन किया और भी कहने लगे मि टू , मि टू , चैतन्य महाप्रभु एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष से तीसरे चौथे दसवें हजार में हंड्रेड थाउजेंड विद्युत की तरह एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष फिर तीसरे वृक्ष जाते रहे या यह भी संभव है इतने हैं उतने महाप्रभु बन गए और एक ही साथ सारे वृक्षों को उन्होंने आलिंगन दिया। भगवान के लिए कुछ भी असंभव नहीं है एक हिरण को भी गले लगाया चैतन्य महाप्रभु ने और वे रो रहे हैं उसके गले को पकड़े हुए हाथों से और आगे बढ़ते हैं और एक शुक और सारिका को देखते हैं दोनों एक ही शाखा पर बैठे हुए हैं और आपस में कुछ संवाद हो रहा है चैतन्य महाप्रभु के मन में इच्छा जगी कि क्या मैं सुन सकता हूं इनके संवाद को, यह लोग क्या बात कर रहे हैं। ऐसे चैतन्य महाप्रभु के मन में इच्छा जगते ही वह दोनों शुक और सारिका ने वहां से उड़ान भरी, चैतन्य महाप्रभु की ओर आगे बढ़े चैतन्य महाप्रभु ने अपने दोनों हाथों को आगे बढ़ाया और शुक और सारिका एक एक हाथ पर बैठ गए और उनका संवाद शुरू हो गया , अब पास में आ गए, वहां जो बोल रहे थे उनके पास कोई लाउडस्पीकर वगैरह नहीं था। पास में आने पर चैतन्य महाप्रभु ने उनका संवाद सुना और वह संवाद गोविंद लीला में कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने ही लिखा है यह दूसरी रचना है उनकी गोविंद लीलामृत , उसी संवाद को यहां पर भी उन्होंने दोहराया है शुक बने हैं कृष्ण के एडवोकेट और सारिका कर रही है राधा रानी की वकालत, मेरे कृष्ण ऐसे हैं। शट अप ! तुम नहीं जानती हो कि मेरी राधा कैसी है मेरे कृष्ण तो मदन मोहन हैं नहीं नहीं मेरी राधिका तो मदन मोहन मोहिनी है। हमारे मोहन जो मनमोहन या मदन मोहन है मदन को मोहन करने वाले ,
*वेणुं क्वणन्तमरविन्ददलायताक्षं बर्हावतंसमसिताम्बुदसुन्दराङ्गम्। कन्दर्पकोटिकमनीयविशेषशोभम् गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।* 3।।*
अर्थ -मैं आदि पुरुष उन श्रीगोविन्द भगवान् का भजन करता हूँ, जो अपने नित्य वृन्दावन धाम में सदैव वेणु बजाते रहते हैं, जिनके नेत्र कमलदल के समान विशाल हैं जो मोरमुकुट धारण करते हैं, जिनका श्रीविग्रह श्याम मेघ के समान मनोहर है एवं जिनकी शोभा करोड़ों कामदेवों की अपेक्षा भी विशेष मनोहर है।
लेकिन इस प्रकार यह बहुत ही रसीला संवाद रहा और फिर हमारे चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़ते हैं उन्होंने वहां एक मयूर को देखा मयूर की जो गर्दन होती है उसकी ओर थोड़ा गौर से देख रहे थे। उनको कृष्ण का स्मरण हुआ , नहीं वह भूले तो थे नहीं लेकिन उसकी गर्दन पर जो पंख होते हैं वह कृष्ण के रंग से और भी अधिक मिलते जुलते रहते हैं, उसको देखते ही चैतन्य महाप्रभु मूर्छित हुए। बाह्य ज्ञान नहीं रहा और धड़ाम करके गिर गए और लोटने लगे लोटते लोटते कहीं दूर तक जाते हैं और फिर वापस आते , फिर उधर जाते और जहां यह लोटांगन चल रहा था वहां पर कोई पंखुडिया नहीं बिछाई थी पुष्पों की, कई गड्ढे भी थे कंकड़ भी थे कांटे भी थे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के सर्वांग में कई सारी क्षति पहुंच रही थी, चोट आ रही थी वैसे यह दोनों प्रभु चैतन्य महाप्रभु को पकड़ने के लिए प्रयास कर ही रहे थे लेकिन इन बेचारों की क्षमता तो सीमित ही है। ऐसे बहुत समय तक चलता रहा चैतन्य महाप्रभु का यह महा भाव का प्राकट्य, वृंदावन धाम की जय ! वृंदावन में हो रहा है ये विप्रलंब अवस्था को प्राप्त किया और फिर इस अवस्था में राधा रानी तो रहती ही हैं। वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु भी यहां श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नाही अन्य हो, राधा रानी भी है। राधा के भाव ही यहां पर प्रकट हो रहे हैं। चैतन्य महाप्रभु के सर्वांग में या संभोग मिलन और विप्रलंब यह दो ही मन की मुख्य स्थितियां या भाव है एक मिलन का आनंद और फिर विरह की व्यथा, लेकिन विरह की व्यथा भी आनंद ही होता है। विप्रलंब अवस्था में वैसे अधिक आनंद है इसका अनुभव भक्त और राधा रानी करती हैं। यह सब वहां हो रहा था तब मुश्किल से इन दोनों ने बलभद्र भट्टाचार्य और सनोडिया ब्राह्मण ने चैतन्य महाप्रभु को फाइनली पकड़ लिया,अपनी गोद में पकड़ के रखा है और फिर कुछ जल लाए हैं छिड़काया है। धीरे-धीरे कुछ शीतलता का अनुभव कर रहे हैं कुछ ठंडे हो रहे हैं कुछ शांत हो रहे हैं तो भी कुछ बाह्य ज्ञान नहीं है फिर जोर जोर से वह हरी गुणगान करने लगे। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* उच्चारण जोर से करते रहे और फिर उसका परिणाम यह हुआ महाप्रभु छलांग मार के हरि हरि !हरि बोल ! हरि बोल !और फिर कीर्तन और नृत्य आगे बढ़ा नेक्स्ट फॉरेस्ट और हर फॉरेस्ट में यह सब रिपीट होता ही गया हर क्षण वे मूर्छित हुआ करते थे फिर उनको पुनः ज्ञान में पहुंचाया जाता था और अगले क्षण नॉर्मल या अब नॉर्मल कहो इसीलिए कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखते हैं कि मैं इतना सारा नहीं लिख सकता हूं। चैतन्य महाप्रभु के जो भाव
*एड-मत प्रेम-यावत्भ्रमिल 'बार' वन ।एकत्र लिखिलँ, सर्वत्र ना याय वर्णन ॥* 230॥
अनुवाद-इस तरह मैंने महाप्रभु के प्रेम का वर्णन किया है, जो वृन्दावन के बारह वनों में भ्रमण करते समय उन्होंने एक स्थान पर प्रकट किया। सभी स्थानों पर उन्होंने क्या अनुभव किया इसका पूरा-पूरा वर्णन कर पाना असम्भव होगा।
इसका वर्णन 12 वनों की यात्रा के समय यह सब हर्षण यह मिलन का आनंद फिर संभोग और फिर विप्रलम्ब ऐसी स्थिति क्षण क्षण आती रहती थी।
*वृन्दावने हैल प्रभुर यतेक प्रेमेर विकार।कोटि-ग्रन्थे 'अनन्त' लिखेन ताहार विस्तार ॥* 231॥
अनुवाद-वृन्दावन में श्रीचैतन्य महाप्रभु को प्रेम-विकार की जो अनुभूति हुई, उसका विशद वर्णन करने के लिए भगवान् अनन्त लाखों ग्रन्थों की रचना करते हैं अनुच्छेद अनुषण आती रहती थी
इस पर तो कोटि-कोटि ग्रंथ लिखे जा सकते हैं और यह अनंतशेष सहस्त्र बदन इनके हजार मुख हैं। अनंत शेष के और हजारों से हरी गुणगान गाते रहते हैं। हर मुख से अलग-अलग हरी गुणगान गाया जाता है एक ही साथ हजार प्रकार की कथाएं , लीला नाम रूप गुण, धाम का वर्णन, अलग-अलग वर्णन, धाम टॉपिक ले लिया तो 1000 एंगल से दृष्टिकोण से कहो अनंत से शास्त्र बदन वर्णित करते हैं। कोई लीला कह रहे हैं तो फिर कृष्ण की लीला हजार प्रकार की लीला या फिर कुछ और अवतार भी असंख्य हैं। नरसिंह भगवान की लीला का हजारों मुख से वर्णन कर रहे हैं और वह कब से कर रहे हैं वर्णन ,लेकिन यह वर्णन पूरा नहीं हो रहा है, उसका समापन नहीं हो रहा है। वैसे अनंत शेष दो कार्य करते हैं एक भगवान का गुणगान और साथ ही साथ अपने फनों के ऊपर इतने सारे ब्रम्हांड और प्लैनेट्स को धारण करते हैं। जब वे धारण कर रहे थे उन्होंने कहा था कि कब तक मुझे धारण करना होगा ? उनको कहा गया कि ज्यादा समय के लिए नहीं कितना समय? उनको बताया था कि जब भगवान की लीला कथा रूप गुण धाम जो है ना इसका आप वर्णन पूरा कर दो , अब कुछ कहना बाकी नहीं है तो फिर आपसे एक दो यह सब प्लैनेट और ब्रह्मांड आपको ढ़ोने की जरूरत नहीं , उसके बाद अनंत शेष ने कहा ठीक है, मेरे पास वैसे भी 1000 मुख हैं मैं इन मुखो से अलग-अलग कथा लीला बोलने वाला हूं और बहुत जल्दी समाप्त कर दूंगा। ऐसा सोचकर प्रारंभ किया तो सदियां बीत गई युग आए और गए चतुर्मुखी ब्रह्मा के दिन और महीने वर्ष बीते जाते हैं लेकिन यह कथा का कोई अंत नहीं है इसीलिए भगवान का 1 नाम अनंत भी है और फिर ऐसी लीला कथा वृंदावन में भी हुई चैतन्य महाप्रभु की संबंध में कृष्ण दास कविराज गोस्वामी लिख रहे हैं कि मुझे माफ करो हम इतना ही लिख सकते हैं, फिर उन्होंने आगे लिखा भी है हर पक्षी का, चिड़िया अपने स्तर पर हाइट पर मकान बनाती है दूसरा कोई पक्षी है गरुड़ है तो और थोड़ा और हाइट, तो मैं भी एक पक्षी हूं तो मेरा लेवल है मेरी हाइट है उसमें ही बोल सकता हूं ज्यादा नहीं बोल सकता। अतः मैंने जो भी बोला है लिखा है उसे स्वीकार कीजिए हरि हरि !मेरी भी क्षमता है समय की भी पाबंदी है। अपनी वाणी को यहीं विराम देते हैं, आप सुनते जाइए, पढ़ते जाइए चैतन्य चरितामृथम चैतन्य भागवत और जो कथाएं लीलाएं प्रभुपाद ने भी सुनाई हैं लिखी हैं। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने लिखा है, वृंदावन दास ठाकुर ने लिखा है, मुरारी गुप्ता ने लिखा है आप चाहिए मग्न रहिए गोते लगाइए गौर रसे मगनम गौर रस में गोते लगाइए।
गौरंगा !
हरि हरि बोल !