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जप चर्चा,
कृष्ण भक्त प्रभु जी द्वारा,
31 जनवरी 2022
हरे कृष्णा,
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।*
*चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम :।।*
नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने
नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे
निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ।
जय श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद,
श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द ।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
आप सभी भक्तो का धन्यवाद। मैं जूम जप चर्चा टीम और पदमाली प्रभु का विशेष रूप से धन्यवाद करना चाहूंगा,जिन्होंने आज मुझे यह एक विशेष अवसर प्रदान किया,कुछ चर्चा करने के लिए। आज मुझे आदेश मिला हैं,कि गुरु के आदेशों का किस प्रकार से पालन किया जाए इसके विषय में कुछ कहा जाए। यह श्रीमद्भागवत का चतुर्थ स्कंध हैं, अध्याय 20,श्लोक नंबर 13। इस अध्याय में महाराज पृथु के यज्ञ स्थल में भगवान विष्णु के प्राकटय के बारे में बताया गया हैं।अब तात्पर्य पढेंगें। मनुष्य को भगवान विष्णु के आदेशों का पालन करना होता हैं, चाहे वह प्रत्यक्ष रूप में उनसे प्राप्त हो या उनके प्रामाणिक प्रतिनिधि गुरु के माध्यम से प्राप्त हो। अर्जुन ने कुरुक्षेत्र का युद्ध भगवान श्री कृष्ण के प्रत्यक्ष सानिध्य में लड़ा। इसी प्रकार यहां पर पृथु महाराज को उनके कर्तव्यों के विषय में भगवान श्री विष्णु आदेश दे रहे हैं, हमें श्रीमद्भगवद्गीता में बताए गए नियमों का दृढ़ता से पालन करना चाहिए।प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य हैं कि वह भगवान श्री कृष्ण या उनके प्रमाणिक प्रतिनिधि से आदेश प्राप्त करें और निजी स्वार्थ से तटस्थ रहकर इन आदेशों को प्राणों से भी प्रिय माने।इससे भी महत्वपूर्ण प्रभुपाद जी लिख रहे हैं कि श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कहते हैं कि मनुष्य को इसकी तनिक भी परवाह नहीं करनी चाहिए कि वह मुक्त हो रहा हैं अथवा नहीं,उसे तो अपने गुरु से प्राप्त आदेशों का सहज भाव से पालन करते रहना चाहिए ।ऐसा करने से उसे सदैव मुक्ति का पद प्राप्त होता रहेगा। यहां पर श्रील प्रभुपाद जी श्री गुरु के आदेशों का पालन करने का मुख्य उपदेश इस तात्पर्य में लिख रहे हैं। गुरु सबसे पहले तो हमें कृष्ण नाम प्रदान करते हैं।
sampradaya-vihina ye mantras te nisphala matah
atah kalau bhavisyanti catvarah sampradayinah
(पदम पुरान)
जैसे पद्म पुराण में वर्णन हैं कि जब तक कोई भक्त आध्यात्मिक गुरु से विधिवत नाम प्राप्त नहीं कर लेता,तब तक उस नाम का हमें कोई फल प्राप्त नहीं होता और इसीलिए इस संबंध को अच्छे से स्थापित करने के लिए वर्षों से गुरु महाराज हर रोज हमे प्रातकाल: यह हरि नाम दे रहे हैं। केवल इसी संबंध को स्थापित करने के लिए। यह नाम जब हमें गुरु की कृपा द्वारा प्राप्त होता हैं, तभी यह नाम कार्यशील होता हैं। यह हमें प्रगति की ओर ले कर जाता हैं। हम इस संसार में भी देखते हैं,कि प्रत्येक व्यक्ति किसी ना किसी को प्रसन्न करने के लिए कार्य कर रहा हैं। माता पिता अपने बच्चों को प्रसन्न कर रहे हैं। बच्चे अपने माता-पिता को प्रसन्न कर रहे हैं। एक गृहणी अपने परिवार के सदस्यों को प्रसन्न करने का प्रयास कर रही हैं, एक व्यक्ति अपने बॉस को प्रसन्न करने का प्रयास कर रहा हैं। क्यों? क्योंकि महीने के अंत में उसको पगार मिलेगी और उसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन में भी हमारे आध्यात्मिक गुरु का एक महत्वपूर्ण स्थान होता हैं, जिसमें आध्यात्मिक गुरु हमारा कृष्ण से संबंध स्थापित करने के लिए हमें मार्गदर्शन प्रदान करते हैं और हमारा संबंध कृष्ण के साथ प्रस्थापित करते हैं।हमारी भक्ति की कोई योग्यता नहीं हैं कि हम सीधे कृष्ण के साथ संबंध स्थापित कर सकें।
वह गुरु ही हैं जो हमें अनुमति देते हैं या कृष्ण के साथ संबंध स्थापित करा देते हैं और जब कोई गुरु को समर्पित होकर गुरु के आदेशों का पालन करता हैं और केवल एक बात अपने जीवन में स्वीकार कर लेता हैं, गुरु के प्रति शरणागति जिसको श्रील रूप गोस्वामी ने समझाया है
(चैतनय चरितामृत मध्यलीला 22.115)
guru-pādāśraya, dīkṣā, gurura sevana
sad-dharma-śikṣā-pṛcchā, sādhu-mārgānugamana
भक्तिरसामृत सिंधु में रूप गोस्वामी ने भक्ति के 64 नियम दिए हैं, उसका पहला नियम हैं, आदो गुरु पाद आश्रय और यह केवल गुरु के प्रति अगर समर्पित होकर भक्त सेवा करेंगा तो जैसे कि श्रील प्रभुपाद यहां पर बता रहे हैं कि उस भक्त को फिर यह भी नहीं सोचना चाहिए कि उसकी मुक्ति कैसे होगी या फिर वह भगवद्धाम जा रहा हैं या नहीं जा रहा हैं, उसको तो यदि गुरु से केवल एक आदेश प्राप्त होता हैं,और उसको यदि वह दृढ़ता,समर्पण के साथ, संकल्प के साथ, प्रामाणिकता के साथ वह पालन करने का प्रयास कर रहा हैं तो उसकी मुक्ति निश्चित होने वाली हैं और भगवद्धाम की प्राप्ति होने वाली हैं, मगर उसको उसका चिंतन करने की आवश्यकता नहीं हैं। जैसे कोई भोजन करना प्रारंभ कर देता हैं, तो तुष्टि, पुष्टि और संतुष्टि तीनों उसको प्राप्त होती हैं। उसी प्रकार यदि कोई भक्त केवल गुरु के आदेशों का पालन दृढ़ता से करने लगता हैं, तो अपने आप उसे मुक्ति प्राप्त होना निश्चित हो जाता हैं। उसके लिए उसको अलग से प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं हैं और जब कोई भक्त केवल इस एक आदेश का पालन करता हैं
(चैतनय चरितामृत मध्यलीला 22.115)
guru-pādāśraya, dīkṣā, gurura sevana
sad-dharma-śikṣā-pṛcchā, sādhu-mārgānugamana
और गुरू के आदेशो का पालन करता हैं, तो अपने आप भक्ति के बाकी 63 नियम उसको फॉलो करने लगते हैं। गुरु से दीक्षा प्राप्त करना, गुरु के आदेशों का पालन करना ,गुरु के चरणों का अनुसरण करते हुए भक्तिमय सेवा को स्वीकारना या भक्ति में प्रगति.. यह पहले पांच और अंतिम पाच जिसमें साधु संग, नाम कीर्तन और मथुरा वास ,श्री विग्रह आराधना और भागवत श्रवण पहले पांच और यह अंतिम पांच यह 10 महत्वपूर्ण नियम, श्रील रूप गोस्वामी ने समझाएं हैं, जब कोई भक्त अपने गुरु के आदेशों का पालन करता हैं तो यह 10 तो क्या, सारे 63 नियम फॉलो करने लगते हैं, और जब गुरु हरि नाम देते हैं या मंत्र प्रदान करते हैं ,तो उस मंत्र को लेने के लिए हमें लोभी होकर, एक भिक्षुक के समान वह महामंत्र या नाम हमें गुरु से मांगना चाहिए या दीक्षा लेनी चाहिए।हमें दीक्षा के लिए भिक्षा मांगनी चाहिए
भक्ति विनोद प्रभु-चरणे पडिया
सॆइ हरिनाम मंत्र लॊइलॊ मागिया
(जीव जागो भजन-भक्ति भकति विनोद ठाकुर द्वारा)
ऐसे नहीं कि सभी भक्त ले रहे हैं ,तो दीक्षा लेना भी एक फैशन हैं, दो कंठी माला से अब गले में तीन कंठी माला हो जाएगी, हमें अब सभी वरिष्ठ मानेंगे।नही।हमें एक भिक्षुक की तरह ऋणि होकर हमें गुरु से मंत्र या भिक्षा मांगनी चाहिए। हम देखते हैं कि जब कभी रास्ते पर या अलग-अलग स्थानों पर हरि नाम संकीर्तन भी होता हैं, तो उस हरि नाम संकीर्तन में भी सभी को महामंत्र दिया जाता हैं, लेकिन उस हरि नाम संकीर्तन में दिया हुआ मंत्र या हरि नाम संकीर्तन में जो नाम प्राप्त होता हैं, वह तो केवल एक रस या बिंदु हैं, उस हरि नाम से आकर्षित होने के लिए,जो हरिनाम संकीर्तन में प्राप्त होता हैं। लेकिन जब हम गुरु से नाम की दीक्षा मांगते हैं और गुरु हमें आदेश देते हैं, गुरु के हम शरणागत होकर उनसे आदेश लेते हैं, तो तब गुरु हमें आदेश देते हैं,कि अब आप नाम ले सकते हैं या हमें जब हरि नाम प्रदान किया जाता हैं, तभी हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण या सौभाग्यशाली समय आता हैं। जिस समय हमें गुरु हरि नाम प्रदान करते हैं, तभी सचमुच में हमारा संबंध भगवान के साथ जुड़ता हैं, क्योंकि जब गुरु हमें हरे कृष्ण मंत्र प्रदान करते हैं तब नाम के साथ भगवान का रूप ,गुण, लीला माधुरी, सब कुछ हमें प्राप्त होता हैं। नाम से धाम तक.. जैसे गुरु महाराज हमेशा बताते रहते हैं, नाम से धाम तक.. जिसका अर्थ हैं, नाम, रूप, गुण, लीला, माधुरी सभी कुछ इस नाम के साथ प्रदान किया जाता हैं। आचार्य गन भी ऐसे प्रार्थना करते हैं
कृष्ण सॆ’ तॊमार, कृष्ण दितॆ पारो,
तॊमार शकति आछॆ
आमि तो’ कांगाल, ‘कृष्ण’ ‘कृष्ण’ बोलि,
धाइ तव पाछॆ पाछॆ(ओहे वैष्णव ठाकुर भजन)
हम तो कंगाल हैं, कृष्ण तो गुरु की संपत्ति हैं या कृष्ण वैष्णव की संपत्ति हैं और वही गुरु, वही वैष्णव हमें कृष्ण को प्रदान कर सकते हैं।हमारी शक्ति से अगर हम कृष्ण को प्राप्त करने की इच्छा करेंगे या हमारे बल से, हमारे ऐश्वर्या से, हमारी साधना की तपस्या से हम कृष्ण को आकर्षित नहीं कर सकते या हम कृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकते। जब तक कि गुरु या वैष्णव हम पर कृपा नहीं करेंगे। ऐसा नहीं हैं कि बहुत सारे नाम या बहुत सारे मंत्र हमें ग्रंथों में प्राप्त होते हैं, सुनने को मिलते हैं। पुराणों में कितने मंत्र हैं, तो कोई भी मंत्र लेकर हम नाम जप प्रारंभ कर सकते हैं और भगवद्धाम की प्राप्ति हो सकती हैं, नहीं ऐसा नहीं हैं। जब तक कि वह प्रमाणिक गुरु और प्रामाणिक गुरु शिष्य परंपरा से , प्रामाणिक संप्रदाय में हमें प्राप्त ना हो। जब हमें प्रामाणिक संप्रदाय में नाम प्राप्त होता हैं, तभी वह नाम अपना कार्य या अपनी शक्ति हमें प्रदान करता हैं। जैसे कभी कभी हम देखते हैं कि कोई सामान लेने जाते हैं तो एक स्थान पर कैश काउंटर होता हैं और दूसरे स्थान पर हमें वह वस्तु प्राप्त होती हैं। ऐसा नहीं हैं कि सीधे हमें वह वस्तु प्राप्त हो जाए। पहले कैश काउंटर पर जाकर टोकन लेना पड़ता हैं, तो यदि किसी को कोई वस्तु चाहिए तो पहले टोकन लेने के बाद जहां पर वह वस्तु प्राप्त हो रही हैं, वहां पर जाना पड़ता हैं और जब हम टोकन देंगे तब हमें जो भी वस्तु चाहिए वह प्राप्त हो सकती हैं। उसी प्रकार गुरु जी हमें अध्यात्मिक टोकन देते हैं, जो हम कृष्ण के पास लेकर जाते हैं और जब वह टोकन हम कृष्ण को अर्पण करते हैं, तो वह टोकन देखकर ही हमें कृष्ण की कृपा प्राप्त होती हैं। अगर हम सीधे जाकर भगवान से याचना करेंगे तो हमें थोड़ी बहुत कृपा प्राप्त हो सकती हैं, मगर भगवान की शक्ति के साथ उनकी अहेतुकि कृपा तभी प्राप्त होती हैं, जब हम वह टोकन लेकर कृष्ण के पास जाते हैं, तभी हमें कृष्ण की कृपा पूरी तरह से प्राप्त हो सकती हैं। जब गुरु हमें नाम प्रदान करते हैं ,तब हम 4 नियमों का व्रत का संकल्प स्वीकार करते हैं और संकल्प लेने के बाद हमें पुनः विधिवत नाम दीक्षा प्राप्त होती हैं और 4 नियमों का पालन करना, 16 माला करना, यह संकल्प लिया जाता हैं। हम सभी तो माइक में गाते हैं कि हम 4 नियमों का पालन करेंगे.. आज से 16 माला का जप करेंगे.. लेकिन उस क्षण गुरु को भी वचन लेना पड़ता हैं, भले वह माइक में ना कहें, लेकिन गुरु भी वचन लेते हैं.. अग्नि के समक्ष,वैष्णव के समक्ष, धाम और भगवान के सामने कि हे भगवान! जितने भी बद्भ जीव आज हमारी शरणागति प्राप्त कर रहे हैं, इनके सभी पाप या इनके सभी दोषपूर्ण कृत्य मुझे दे दीजिए और नाम के रूप में आप अपनी अहेतुकि कृपा इन्हें प्रदान कीजिए। तो आप सोच सकते हैं कि यह हमारे जीवन में कितना महत्वपूर्ण बदलाव होता हैं।
मगर यदि हम गुरु को वचन देने के बाद भी नियमों का पालन नहीं करते हैं या 16 माला ठीक से नहीं कर रहे हैं, तो इसके कारण हम हमारे जीवन में भी संकट मोल ले लेते हैं और और साथ ही साथ गुरु को भी हम संकट में डाल देते हैं। श्रील प्रभुपाद जी कहा करते थे गुरु को शारीरिक कष्ट इसीलिए ही होते हैं कि जब उनके शिष्य पूर्ण तरीके से अपनी साधना या नाम जप नहीं करते हैं। जैसे कभी-कभी तीन नियम पालन किए, 3:30 नियम पालन किए, आज 4 माला रह गई.. कल कर लेंगे या भूल गए करना, हमारी बहुत सेवाएं थी। हम बहुत व्यस्त थे, यह सारे छोटे-छोटे कारणों की वजह से ही गुरु को शारीरिक कष्ट प्राप्त होते हैं और जब हम गुरु को कष्ट देंगे तो कृष्ण हमें कभी छोड़ेंगे नहीं, क्योंकि गुरु कृष्ण के प्रामाणिक प्रतिनिधि हैं
हरि स्थाने अपराधे तारे हरिनाम
तोमार स्थाने अपराध नाहि परित्राण(वैष्णव भजन)
जब हम हरि नाम के प्रति या भगवान के प्रति अपराध करते हैं तो अधिक नाम लेकर हम या सेवा करके हम उस अपराध से मुक्त हो सकते हैं किंतु जब हम किसी वैष्णव के प्रति विशेष रूप से गुरु के प्रति अपराध करते हैं तो उससे हमें कोई भी नहीं बचा सकता। कृष्ण तो भक्तों के अधीन हैं तो यदि हम ऐसे भक्तों को कष्ट दे रहे हैं तो कृष्ण हमें कभी छोड़ेंगे नहीं क्योंकि कृष्ण हमारे गारंटीयर बनते हैं, हमारी तरफ से बोंड पेपर पर साइन करते हैं।जैसे बोंड पेपर होता हैं, पावर ऑफ अटॉर्नी होती हैं। सारी भूमि तो गोपाल की हैं, लेकिन कुछ समय के लिए हम उस जगह के सिक्योरिटी गार्ड बन जाते हैं। तो वह बोंड भरे जाते हैं तो गुरु महाराज हमारे लिए बॉन्ड पेपर साइन करते हैं और नाम जप करके भगवान से गुरु प्रार्थना करते हैं कि मेरे शिष्य पर आप कृपा कीजिए और हमारे ऊपर विश्वास रखकर गुरु यह बोंड पेपर साइन करते हैं, यदि हम विश्वासघात करेंगे।
तो फिर कृष्ण हमें कभी भी माफ नहीं करेंगे। मुझे अनुभव हैं कि दीक्षा लेने के लिए कितने ही भक्त आते हैं, हमें दीक्षा दे दो, हमें दीक्षा दे दो, कितने ही भक्त आते हैं।500, 600,800 एक साथ इतने भक्त आ जाते हैं। दीक्षा लेना आसान हैं, लेकिन दीक्षा लेने के बाद उन सभी नियमों का कड़ाई से पालन करना आसान नही हैं, उसके लिए तपस्या चाहिए।इसके लिए कठोर नियमों के पालन करने की आवश्यकता हैं। कुछ समय के लिए नियमों का पालन करना या कुछ समय के लिए जप करना यह तो आसान हैं। मगर दशकों तक हमारे आने वाले अंतिम सांस तक यदि किसी को इन नियमों को कड़ाई से पालन करना हैं, जप करना हैं, तो हमें बहुत ही प्रमाणिकता के साथ जिसको फैठफुल रिलेशन कहा गया है बहुत ही प्रमाणिकता के साथ गुरु के साथ संबंध स्थापित करना चाहिए। जब हम प्रामाणिकता से नियम बद्भ रूप से गुरु को प्रसन्न करते हैं ,तब जाकर हम कृष्ण के मन को आकर्षित कर सकते हैं।हमारा सौभाग्य हैं कि कृष्ण के हृदय को आकर्षित करने के लिए हमें इस ब्रह्म मधव गोडिय वैष्णव संप्रदाय में दीक्षा प्राप्त हुई हैं और यहां पर भगवान से चलकर आया हुआ, भगवान से चलकर,भगवान के बाद ब्रह्मा जी फिर नारद मुनि आगे चलकर श्रील प्रभुपाद जी, हमारे गुरु महाराज, उनके साथ हमारा संबंध स्थापित हुआ हैं,जिसके कारण हमारे सौभाग्य की कोई सीमा नहीं रही। जिस समय से हमारे संबंध गोडिय वैष्णव संप्रदाय से जुड़ा हैं, उस समय से हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंग अर्थात भक्ति हमने प्रारंभ की और गुरु की कृपा से ही हम यह नाम जप और भक्ति करने का केवल प्रयास ही कर रहे हैं।
अगर कोई शुद्धता से गुरु की शरण लेकर भगवान का नाम जप ले या गुरु की आराधना करें, वैष्णवो की सेवा करें, तो यह गुरु की कृपा से ही हैं। वह अपने आदेश के साथ हमें यह कृपा भी प्रदान करते हैं। जब एक समय मैं गुरु महाराज से पूछ रहे था कि महाराज जी आप हमें इतनी बड़ी जिम्मेदारी दे रहे हैं, उसके साथ अपनी कृपा भी कीजिए तो मुझे याद हैं कि गुरु महाराज ने कहा था कि जब गुरु आदेश देते हैं या वरिष्ठ वैष्णव आदेश देते हैं तो उस आदेश को पालन करने की उसके साथ-साथ शक्ति भी प्रदान करते हैं। अपनी कृपा भी प्रदान की जाती हैं, क्योंकि हमें पता हैं कि सामने वाला व्यक्ति किस स्तर पर हैं, उसकी योग्यता नहीं हैं, फिर भी गुरु हम जैसे बद्ध जीवो का उद्धार करने के लिए स्वयं रिस्क लेते हैं। जैसे रूप गोस्वामी ने बताया कि अधिक शिष्य नहीं बनाने चाहिए।फिर भी श्रील प्रभुपाद ने अपने शिष्य बनाए,जो अभी आचार्य हैं। उन्होंने क्यों इतने शिष्य बनाए? रिस्क लेते हुए स्वयं के जीवन पर एक कठिन निर्णय को स्वीकार किया। हम जैसे बद्ध जीवो का उद्धार करने के लिए। जैसे आपको याद होगा कि श्री संप्रदाय में श्री रामानुजाचार्य के 5 गुरु हैं, तो जब रामानुजाचार्य की दीक्षा हुई श्रीरंगम में,ओम नमो नारायणाय मंत्र मिला।तब उनको कहा गया कि यह नाम बहुत ही गुह्य मंत्र हैं और आपको किसी को यह मंत्र नहीं देना हैं, अगर आप ऐसा करेंगे तो आप नरक में जाएंगे। तब रामानुजाचार्य मंदिर की दीवार के आगे खड़े हो गए। दीवार पर खड़े होकर जोर-जोर से घोषणा करने लगे और सभी नागरिकों को बुलाया कि आइए आइए और सभी को कहा कि मेरे पीछे दौहराइए.. ओम नमो नारायणाय और सभी नाम लीजिए। तब उनके गुरु उनसे गुस्सा होकर पूछने लगे कि कितने मूर्ख हो तुम। तुम्हें तो कहा था कि किसी को नहीं बताना।
तो वह कहने लगे कि यदि इन सारे भक्तो को कृष्ण कि प्राप्ति हो रही हैं तो उसके लिए अगर मुझे नर्क भी जाना पड़े तो मैं नर्क जाने के लिए तैयार हूं, तब उनके गुरु महाराज अपने शिष्य से प्रसन्न हुए।वह शिष्य कि बद्ध जीवो के प्रति दया भावना को देखकर बहुत प्रसन्न हुए,इसी भाव में गुरु महाराज भी अपने ऊपर रिस्क लेते हुए सेवा करते हैं। ऐसा नहीं हैं कि उन्हें केवल नाम देकर या केवल भगवान की थोड़ी बहुत सेवा देकर वो संतुष्ट हो जाते हैं, नहीं। गुरु महाराज जी ऐसी कठिन परिस्थिति में भी जब उनका शरीर उनका साथ नहीं दे रहा हैं, फिर भी वह अपने शिष्यों को नाम जप के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।अपने शिष्यों को सानिध्य देने के लिए हर रोज प्रस्तुत होते हैं और एक समय भक्ति चारू स्वामी महाराज ब्रह्मचारी आश्रम में सभी ब्रह्मचारीयो से पूछ रहे थे कि आप समझ सकते हैं कि श्रील प्रभुपाद का त्याग क्या हैं? प्रभुपाद जी ने हमारे लिए क्या-क्या किया हैं? तो सारे ब्रह्मचारी एक साथ बोले कि हां गुरु महाराज हम समझ सकते हैं, हां हम समझ सकते हैं कि प्रभुपाद जी को कितनी कठिनाइयों से गुजरना पड़ा और तब महाराज जी ने कहा कि आप कुछ नहीं समझ सकते क्योंकि आप सब अभी युवक हो। 70 साल के व्यक्ति से ही पूछना चाहिए कि उसकी परिस्थिति क्या हैं और उसकी परिस्थिति में 70 साल की आयु में, उस कठिनाई में जब उसे वह कार्य करना पड़ता हैं, तब उसे वह अनुभव हो सकता हैं।
एक 70 साल की आयु का व्यक्ति ही बता सकता हैं कि श्रील प्रभुपाद जी ने कितने कष्ट सहन किए।एक बहुत ही कठिन परिस्थिति में उन्होंने जीवन यापन किया हैं। हम यह समझ ही नहीं सकते कि हमारे वरिष्ठ वैष्णव या हमारे गुरुजन या हमारे आचार्य गण केवल हमारी भक्ति के लिए, हमारी भक्ति में प्रगति के लिए कितना कष्ट उठाते हैं।हमारे ऊपर कृपा करने के लिए कितना कठोर प्रयास हो रहा हैं। भागवत के इसी चतुर्थ स्कंध के 12वें अध्याय में एक वर्णन हैं, जब ध्रुव महाराज भगवद्धाम जा रहे थे तो वर्णन हैं कि जब ध्रुव महाराज भगवद्धाम जाने के लिए विमान में बैठ रहे थे,भगवान के विष्णु दूत नंद और सुनंद के साथ, उनके मन में विचार आया कि काश मेरी मां सुनिति जिन्होंने मुझे भगवद्धाम का रास्ता दिखाया या भगवान की प्राप्ति का मार्ग दिखाया,उनकी कृपा से ही मंा भगवद्धाम जा रहा हूं ,काश वह भी मेरे साथ चलती। तो भगवान के दूत तो अंतर्यामी हैं। उन्हें पता चला कि ध्रुव महाराज के मन में क्या चल रहा हैं, तो उसी क्षण उन्होंने कहा कि हे धुव्र चिंता मत कर,आगे जो विमान जा रहा हैं, उसमें आपकी माता सुनीति पहले ही भगवद्धाम के लिए प्रस्थान कर चुकी हैं।
इस तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद लिखते हैं कि श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद कहते थे कि मैंने जितना भी कृष्ण भावनामृत का प्रचार किया और गोडीय मठ की स्थापना की, इस सारे कृष्णभावना मृत प्रचार से यदि केवल एक भी व्यक्ति शुद्ध भक्त हो जाए तो मेरा जीवन सफल हैं। मेरा जीवन यशस्वी हैं और उसके आगे श्रील प्रभुपाद जी लिखते हैं कि परंतु मैं यह सोचता हूं कि यदि मेरे कृष्ण भावनामृत के प्रचार से यदि मेरा एक भी शिष्य भी शुद्ध भक्त बन जाए कि उसकी भक्ति की शक्ति से,जैसे यहां पर धुव्र महाराज की भक्ति की शक्ति से सुनिति भगवद्धाम जा रही हैं। तो प्रभुपाद जी लिख रहे हैं कि यदि मेरा केवल एक शिष्य भी शुद्ध भक्त बन जाए तो उसकी भक्ति की शक्ति से मैं भी भगवद्धाम जा सकता हूं। अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ के संस्थापक आचार्य और 10000 शिष्यों के गुरु और जिन्होंने इतने सारे ग्रंथ लिखे और कोई भी वर्तमान आचार्य श्रील प्रभुपाद जी का स्थान बदल नहीं सकते, ऐसे आचार्य लिख रहे हैं कि मेरे एक शिष्य की भक्ति की शक्ति से मैं भगवत धाम जा सकता हूं। यह हैं हमारी गोडीय वैष्णव संप्रदाय में की गई भक्ति। इसलिए हम सभी को यह प्रयास करना चाहिए कि गुरु महाराज ने जो भी आदेश हमें प्रदान किए हैं, चाहे वह व्यक्तिगत हो, जैसे कि श्रील प्रभुपाद जी लिख रहे हैं कि डायरेक्ट कृष्ण मुझे आदेश दे रहे हैं या उनके प्रतिनिधियों द्वारा आदेश प्राप्त हो रहा हैं। तो हमें सिर्फ यह नहीं समझना चाहिए कि केवल गुरु महाराज जी हमें आदेश देंगे तभी हम पालन करेंगे। गुरु महाराज हर स्थान, हर शहर, हर मंदिर नहीं पहुंच सकते। इसलिए उन्होंने अपने प्रमाणिक शिष्यों को एक प्रयास करने के लिए आदेश दिया हैं। उनको सेवा में रत किया हैं, तो उन भक्तों के द्वारा जब हमें आदेश प्राप्त होते हैं, उन आदेशों का भी हमें गुरु से प्रदत आदेशों की तरह ही पालन करने का प्रयास करना चाहिए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। बहुत-बहुत धन्यवाद। श्रील प्रभुपाद की जय। ग्रंथ राज श्रीमद्भागवतम की जय।