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हरे कृष्ण, जप चर्चा, 22 जनवरी 2021, पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! नवद्वीप सब ठीक है। हरि हरि, 777 स्थानों से भक्त के लिए जुड़ गए हैं।
जय श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु नित्यानंद। श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौरभक्तवृंद।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
हरे कृष्ण, जय पद्मावती और यहां डॉ नेहा। यहां एक छोटा सा पीपीटी प्रेजेंटेशन प्रस्तुत करेंगे। transformation lust into love ऐसा उसका शीर्षक है। कैसे lust को love में परिवर्तित कर सकते हैं। लस्ट जानते हो, काम या काम वासना। काम क्रोध परायण तो हम हैं ही। जो काम में होता है, पता नहीं होता है कि हम कामवासना में हैं। जो माया में होता है उसको पता नहीं होता है कि हम माया में है। वह सोचता है यह माया क्या होती है? और जो कामी है सोचता है काम क्या होता है? यह काम क्या होता है? काम में है इसलिए कामी है। यह काम हमारा शत्रु है। विद्धयेनमिह भगवान ने कहा है ना गीता में,
श्रीभगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ।। (Bg 3.37)
अनुवाद श्री भगवान ने कहा है अर्जुन रजोगुण के संपर्क से उत्पन्न हुआ यह काम है। और वह बाद में क्रोध में परिवर्तित होता है। वही काम इस संसार का सबसे बड़ा शत्रु है।
विद्धयेनमिह विधि मतलब जान लो। हे अर्जुन यह जान लो, समझ लो, यह काम तुम्हारा शत्रु है। विद्धयेनमिह वैरिणम् इस काम से वशीभूत होकर हम कई सारे या सभी कार्य करते रहते हैं। इस संसार में बद्ध जीव कामवश होकर काम के वशीभूत होकर आपको और कोई मार्ग ही नहीं। हमेंं करना तो चाहिए प्रेम। प्रेमी होना चाहिए काम ही नहीं। प्रेमी होना चाहिए और प्रेम करना चाहिए। भगवान से प्रेम। भक्तों सेेेे प्रेम। प्रेमी होना चाहिए भगवत प्रेम या भक्त प्रेम। तो प्रेमी बनना चाहिए कामी को प्रेमी बनना चाहिए या बन सकते हैं। इसकी थोड़ी चर्चा है यहां पर या समझ है कम से कम यह तो समझाया जाएगा कि, एक होता है काम और दूसरा प्रेम कैसे दिव्य है अलौकिक है।.... आध्यात्मिक जीवन का उद्देश्य वैसे मनुष्यय जीवन का उद्देश्य। आध्यात्मिक जीवन को हम अपनाते हैं तो, उसका उद्देश्य क्या है? कैसे हमारा परिवर्तन हो सकता है? हमारा अहंकार है अहम,। अहम के अंतर्गत यह शरीर भी मैं हूं या शरीर ही मुख्य तो अहंकार है तो यह शरीर भी मैं नहीं हूं या मैं यह शरीर हूं। यह जो अज्ञान है यह ज्ञान नहीं है। मैं शरीर हूं और उसके कारण जो अहंकार, अहम भोगी, अहम सुखी, अहम बलवान यह सारे अहंकार की बातें हैं। इसको कैसे हम स्वाभाविक और शुद्ध हमारा तो स्वभाव है। मतलब हम आत्मा हैं। हम शरीर नहीं है। शरीर को जो हम अहम मानते हैं, इसके स्थान पर जो असली ज्ञान है समझ है कि, मैं आत्मा हूं मैं शुद्ध आध्यात्मिक जीवात्मा हूं। इसके संबंध में प्रभुपाद समझाते हैं कि, कैसे अहम दो प्रकार के हैं। एक हमारा अहंकार कैसा झूठ का या मायावी अहंकार जो शरीर को ही अहम मानतेे बैठा है। और दूसरा अहंकार क्या है अहमदासोस्मि मैं भगवान का क्या हुंं, दास हूं। जीव कृष्णदास एई विश्वास करलो तो आर दुखः नाय श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं जीव समझेगा कि मैं कृष्णदास हूं। मैं आत्मा हूं कृष्णा दास हूं मैंं शरीर नहीं हूं वह झूठा अहंकार में नहीं हूं। मैं सत्य हूं।
मैं नकली नहीं हूं, मैं असली हूं। शरीर तो नकली है। आज है तो कल नहीं है तो उस दृष्टि से वह नकली है। और असली है आत्मा। असली है आत्मा्। सच्चा है आत्मा। शाश्वत है आत्मा और वह मैं हूं।
आध्यात्मिक जीवन यह सिर्फ ज्ञानार्जन के लिए नहीं होता है, तो वह परिवर्तन के लिए होता है। यह आध्यात्मिक जीवन केवल जानकारी ग्रहण करने के लिए नहीं है। जानकारी जमा करने केेेे लिए नहीं है। यह भी सुन लिया वह भी सुन लिया वह भी समझ लिया। केवल संसार भर की जानकारी इकट्ठी की। लेकिन वह जानकारी वह ज्ञान शास्त्रों में जो कुछ ज्ञान है जानकारी है उससे हमारा परिवर्तन होना चाहिए। केवल संग्रहित करना इकट्ठा करना ही नहीं। ज्ञान को भी या दिव्य ज्ञान को भी इकट्ठा तो हमने किया लेकिन उस ज्ञान को केवल सुनकर या पढ़कर इकट्ठा करके संग्रहित करके रखना हमारा उद्देश्य नहीं है। उस ज्ञान से उस जानकारी से जानकारी हमनेे जो कुछ प्राप्त की है। आत्मा के संबंध में कहो, परमात्मा के संबंध में भी कहो, उसे होना चाहिए एक तो उस ज्ञान को हजम करना चाहिए या उसको हृदयंगम होना चाहिए। उसके अनुसार वैसे हमारे भाव उदित होने चाहिए। परिवर्तन भी होना चाहिए सिर्फ जानकारी प्राप्त करना ही नहीं परिवर्तन। श्रील प्रभुपाद के शब्दों में क्रांति होनी चाहिए। revolution in consciousness क्रांति होनी भी चाहिए।
तो कहां क्रांति, हमारे भावों में क्रांति होनी चाहिए। भावना में क्रांति। बाजार भाव के बजाय कृष्ण भाव यह क्रांति हुई ऐसे क्रांति ऐसा परिवर्तन। हरि हरि, काम की उत्पत्ति। तो यह काम कैसे उत्पन्न होता है यहां पर श्री कृष्ण ने कहा है। भगवत गीता के सातवें अध्याय में 27 वां श्लोक
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत । सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥ (Bg 7.27)
अनुवाद: परमतप भारत, इच्छा और द्वेष इन दोनों से उत्पन्न होने वाले द्वंद से मोहित होकर सभी जीव इस मोह माया में जन्म लेते हैं। हे भारत, हे अर्जुन, हे शत्रुओं को जीतने वाले, शत्रुओं को परास्त करने वाले ,अरे तुम तो परमतप कहलाते हो। तुम शत्रुओं का विनाश करते हो। शत्रुओं को परास्त करते हैं। तुम्हारा जो काम नामक शत्रु है उसको परास्त करो। उसको जीतो। यही उसका विनाश करो। भगवतगीता के तृतीय अध्याय में भगवान ने कहा है। काम के साथ क्या करना चाहिए। इसकी जान लो। इच्छाद्वेषसमुत्थेन सभी जीव इच्छा करते हैं यही इच्छा और द्वेष ईर्ष्या द्वेष और यह द्वंद्व और उससेे उत्पन्न होने वाला मोह। स्त्री और पुरुष यह भी द्वंद्व है। और कई सारे द्वंद्व है सारा संसार द्वंद्व से भरा पड़ा है। यह जब चर्चा हो रही है तो उसके अंतर्गत कह सकतेे हैं। यह स्त्री पुरुष का द्वंद्व, स्त्री पुरुष का समा और उससे उत्पन्न होता है फिर मोह आगे इससे से फिर ध्यायतेे विषयान्पुंसः इच्छा है फिर द्वेष भी है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते । संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ (Bg 2.62)
अनुवादः इंद्रिय विषय का चिंतन करते हुए मनुष्य के उस विषय में आसक्ति बढ़ती है। और उस आसक्ति से काम उत्पन्न होता है। और काम से क्रोध की उत्पत्ति होती है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः संसार भर के विषयों का ध्यान या स्त्री का ध्यान पुरुष का ध्यान और भी काम ना आए हैं लेकिन उसने प्रबल कामना तो यह लैगिक काम लैगिक कृत्य या इच्छा यह काम यह उत्पन्न होता है ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ काम और प्रेम यह दोनों एक योग माया से प्रेम और महामाया से काम उत्पन्न होता है या जीव को प्राप्त होता है वह स्त्रोत है वैसे अंततः स्रोत तो एक ही है भगवान ही हैं सर्वस्य प्रभावः योगमाया के या महामाया के महामाया से काम और योग माया से प्रेम प्राप्त होता है उत्पन्न ना होता है जागृत होता है या स्रोत एक ही होता है जो पहले कह चुके हैं या दिखाया है यह हीरा यह सोना यह प्रकृति है मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं । भगवान इस प्रकृति के अध्यक्ष है तो इसीसे इसका प्रकाशन उस रूप में उसका इस रूप में ऐसे अलग-अलग काम और प्रेेेेेेेेेम इसके स्रोत तो भगवान ही है जैसे बिजली स्रोत तो बिजली ही है लेकिन उसी एक बिजली से कूलर चलता है और हिटर भी उसी से चलता है करंट तो एक ही है बिजली तो एक ही है लेकिन उसके अलग-अलग मार्ग यहां लिखा है हरि हरि ब्रह्मांड का सत्य सभी जीव सभी योनि के 8400000 जीव ब्रह्मा से लेकर जिसे हम देख भी नहींं सकते ऐसे सूक्ष्मजीव यहांं देख रहे हम ब्रह्मा से लेकर सूक्ष्मजीव श्री ल ला प्रभुपाद कहते हैं इंद्र से लेकर इंद्र गोप इंद्रगोप नामक कोई सूक्ष्मजीव है जंतु हैै अति सूक्ष्मा तो इंद्र से लेकर इंद्रगोप जंतु तक सभी परेशान हैं यह सभी प्रभावित है 8400000 योनियों में यह काम का प्रभाव है कामवश सारी योनि में यह काम का धंधा चलता है सारी योनियों में यह श्री पुरुष है कुत्ताा है कुत्तिया है बंदर है बंद रानी है भैंस हैै भैंसा है हाथी है हाथीनी है सभी व्यस्त हैं या सभी का व्यस्त रखा जाता है इस संसार में काम बस काम केेेेेेे वशीभूत होकर वह सब व्यस्त हैं उनका भी परिवार हैं कर्मण्यवाधिकारस्ते कृष्णा नेेे कहते है कर्म करो कर्तव्य हैैै क्या कर्तव्य है परिवार का पालन पोषण करो लेकिन बंधुओं ऐसा परिवार का पालन पोषण तो हर समाज में योनि में चलता ही है यह केवल मनुष्य जाति या मनुष्य समाज ही नहीं है हाथियों का अपना समाज हैै पक्षी समाज है जानवरों का भी समाज है कुत्तों का अपना समाज है बिल्लियों का अपना समाज है हर योनि का अपना अपना समाज है और इन सारे समाजों में परिवार भी हैं वह सभी अपने अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं यह नहीं समझना कि आप बहुत बढ़िया से अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं और कोई नहीं करताा है योनि में समाज में ऐसा नहीं होता है और योनि में भी यही होता है भगवत गीता का उपदेश सुने बिना ही वह अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं ऊपरी भरण पोषण हां यह पक्का है कि आप थोड़ी देर में समझ जाएंगे की असल मेंं परिवार का भरण पोषण क्या होता है उनके भी बच्चे होते हैं उनका वहां ख्याल करते हैं जो काम हैैै हमारे सारेेे भाव कहो हमारे विचार कहो हमारा मन कहो या फिर मन के जो कार्य होते हैं सोचना समझना इच्छा करना इसमें काम के विचार से हम ग्रस्त रहते है परेशान रहते हैं व्यस्त रहते हैं काम के विचार काम धंधे के विचार कामवासना के विचार काम के तृप्ति के विचार फिर विचार हैं सोचनााा महसूस करना फिर कुछ कुछ होता है मन मेंं भाव उत्पन्न होते हैं काम भावना सोचने पर विचार करने पर काम भावनाा उत्पन्न होते हैं विचार भी काम का है विचार कामुक कामुकता है विचारों में फिर सोचना महसूस करना इच्छा करना इच्छाद्वेषसमुत्थेन फिर इच्छा भी है कामवासना की तीव्र इच्छा है फिर इसीलिए अर्जुन ने कहा
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
अनुवादः अर्जुन ने कहा हे वृष्णि वंशज किस वजह से मनुष्य उसकी इच्छा ना होते हुए भी जैसे बलपूर्वक पाप कर्म करने के लिए प्रेरित होता है?
अर्जुन ने कहा, बताइए बताइए प्रभु अनिच्छन्नपि हम जानते हैं कि यह सही नहीं है। पाप है। ऐसा कृत्य नहीं करना चाहिए। किंतु बल पूर्वक इच्छा इतनी तीव्र है। इतनी तीव्र इच्छा है कि, व्यक्ति पाप करके बैठता ही है। तो यह मन में सब चलता रहता है। सोचना, महसूस करना, इच्छा करना और यह सब विचार काम के विचार, भाव भी काम भाव और इच्छा भी कामुक इच्छा। सोचने से हम महसूस करते हैं। महसूस करने से फिर इच्छा जागृत होती है। और फिर जैसे अधिक सोचतेे हैं फिर अधिक भाव उत्पन्न होते हैं, जागृत होते हैं और उसी के साथ हमारी इच्छा अधिक अधिक तीव्र बनती जाती है फिर इससे हम अपनेे कृति से संपन्न करते हैं। कायेन वाचा मनसा हम इसको बोलतेे रहते हैं। कामुकता की बाते करते हैं। काम के विचार जो मन में होतेे हैं उसको कहतेे हैं और फिर केवल कहकर ही रुकते नहीं हम कुछ करके बैठते हैं। करना ही होता है कामवश।
हरि हरि, तो कृष्ण भुलिया जीव भोग वांछा करें माया तारे झपाटिया धरे यह प्रसिद्ध भजन है। चैतन्य चरितामृत चैतन्य महाप्रभु ने भी कहां है, भगवान ने कहां है। जीव भुलिया कृष्ण को भूलकर जीव भोग वांछा करें भोग वासना की वांछा इच्छा काम इच्छा करता है। और उसी के साथ फिर निकटअस्थे है माया तारे झपाटिया धरे अलग-अलग शब्दों में कहां है। माया तारे झपटिया धरे पास मेंं माया है। निकट में है या पास मेंं है, झपटियाधरे या फिर उसका गला भी पकड़ सकती हैं। फांसी दे सकती हैं, देती है। जान लेती है यह माया। इसके लिए मरतेेे रहते हैं यह माया हमको मारती है। पुर्नजन्म देती है ऐसे ही चलते रहता है।
यह जो काम है, इस काम की जो अग्नि है कामाग्नि, इसको हम पोषण करते जाएंगे। अग्नि में कोई कामाग्नि है। कामेच्छा है उसकी पूर्ति करते जाएंगे। कुछ मांग है मन में कोई इच्छा है हम इसको पूरा करते जाएंगे। तो क्या होगा, जैसे अग्नि कभी तृप्त नहीं होती। इसको अधिक खिलाओ, अधिक पिलाओ, तेल डालो यह कोई इंधन हो तो वह डालते रहो जलती रहेगी आग या फिर पढ़ती रहेगी आग।
तो यहां हाथी यह जो काम का जो आवेग है। काम आवेश, वह बड़ा बलवान है। वाचो वेगम् मनसा क्रोध वेगम जिव्हा.वेगम उदरउपस्थ वेगम ऐसा उपदेशामृत में कहां है। यह वेग इसका यह जो धक्का देता रहता है। प्रेरित करता है यहां काम हमको। हाथी हाथीनी के पीछे पड़ा है। कितना बलवान हाथी इसको कभी पकड़ना है तो क्या करता है? कुछ हांथीनी के पीछे लगा देते हैं तो वह दौड़ता है। हाथी भी पीछे दौड़ता है और फिर कुछ दूरी पर तैयारी करके रखते हैं। वहांं पर बड़ा गड्ढा बनाया होता है। उस पर कुछ घास डाल दी हरियाली डाल दी। उस गड्ढे के पास जब आते हैं तो बड़े युक्ति पूर्वक झट से हथिनीकों हाथी से अलग करते हैं। और पीछे से जो दौड़कर आ रहा है हाथी कामवश हाथी आगे बढ़ता है और फिर गिरता है गड्ढे में। खत्म, पकड़ में आ गया उसको पकड़तेे हैं, फिर सर्कस में या कहीं और उसको लगाते हैं। इतना बड़ा हाथी पकड़ में आता है। कामवासना के कारण।
वैसे जीव जो है वेदांत सूत्रों में कहां है आनंदमयी अभ्यासात स्वभाव से और विधान से आत्मा और परमात्मा छोटे से छोटा जीव आध्यात्मिक आनंद के लिए बने हैं।
आनंदमयी अभ्यासात भगवान और उनके अंश अंश के अंश मतलब हम तो जीव हैं उनकी बात चल रही हैं।
यह दोनों भी वैसे ही सच्चिदानंद आनंद की मूर्तियां है। भगवान भी हैं जीव भी है और यह आनंद ही चाहते हैं। ऐसा उनका गुणधर्म है भगवान का भी और हम जैसे छोटे छोटे जीव का भी। और इसीलिए प्रयास करते रहते हैं कैसे हम सुखी रह सकते हैं। संसार में कोई जीव नहीं है जो दुख चाहता हो। सभी सुख चाहते हैं। क्यों सूख चाहते हैं? स्वभाव ही है सुख सुखी होना। उसका स्वभाव ही है सुख उसका स्वभाव है। सुखी होना स्वाभाविक है। जीव के लिए दुख आते हैं। जीव प्रयास करता है कैसे वहां पुनः सुखी हो सकता है। एक क्षण के लिए भी दुखी नहीं रहना चाहता तुरंत ही प्रयास होता है सुखी होने का प्रयास, क्योंकि स्वभाव में उसके सुख है आनंद है। भगवान तो अच्युत हैं। भगवान का कभी पतन नहीं होता। सदा के लिए वह आनंद के विग्रह रह जाते हैं। लेकिन जीव की स्थिति वैसे हम तटस्थ होने के कारण कभी सुख तो कभी दुख है तटस्थ है। माया से संपर्क, इस संसार के जो माया है उसके संपर्क में जो आता है जीव और उसको भोगता है अहम भोगी तो फिर वह दुखी होता है। आत्मा का अध्यात्म से संपर्क, और जब आत्मा का संपर्क सत्संग करता है। जीव सत् संग करता है। भगवान के साथ, संग भक्तों के साथ संग तो उसी से उसे सुख है या आनंद को प्राप्त करता है। वैसे माया के संपर्क से वह काम को प्राप्त करता है। कामवासना जागृत होती है। सत्संग के संपर्क से और आध्यात्मिक जीवन साधना करने से वह प्रेम को प्राप्त करता है। प्रेम जागृत होता है। तो उसका स्वभाव है उसके स्वभाव को वह प्राप्त करता है। उसको आत्म साक्षात्कार होता है।
सुख को प्राप्त करने की इच्छा, इस संसार में देखा जाता है। यह चार प्रयास ऊपरी इंद्रिय तृप्ति के लिए चार प्रकार हैं। आहार निद्रा भय मैथुन इसके माध्यम से सुखी होने का प्रयास हर बद्ध जीव करता है। और ऐसे प्रयास केवल मनुष्य योनि में ही नहीं आहार निद्रा भय मैथुन हर योनि में 8400000 योनियों में बद्ध जीव व्यस्त है। किसमें आहार निद्रा भय मैथुनमच। सामान्य एतत पशुभीरनरानाम।।! किसी योनि में भी हो या सामान्य कृत्य तुम्हारे होंगे और इस प्रकार तुम शरीर को सुखी बनाने का तुम प्रयास करोगे।
कुछ मानसिक या मनोरंजन कहो, या पूरी तरह मानसिक आनंद पूरा परिवार समाज मे यह सारे प्रयास होते हैं। पार्टीज होती है और फिर या कुछ देवी देवताओं के उत्सव भी हो सकते हैं। इसको भी मन के स्तर पर ही रखा है। आत्मा के स्तर पर नहीं रखा है। यह मानसिक आनंद कुछ बुद्धिजीवी होते हैं। वैज्ञानिक होते हैं और फिर उनकी बौद्धिक संपत्ति होती है उसका आनंद लेते रहते हैं। और उनको शायद ज्यादा मनोरंजन में रुचि नहीं होगी लेकिन अपने बुद्धि में उनका अहंकार। बुद्धि और उसी स्तर पर उनका आनंद लेने का प्रयास करते हैं। और अध्यात्मिक योगी हैं तो ब्रह्म सक्षात्कार अहं ब्रह्मास्मि का प्रयास चल रहा है। चलो हम ब्रह्म हैं, हम ब्रम्ह साक्षात्कार करते हैं तब हमको आनंद मिलेगा। इसीलिए ऐसे प्रयास होते रहते हैं लेकिन वह भी शाश्वत नहीं होता पतंती अधह कहते हैं यह भागवत कहता है। तो यह अलग-अलग स्तर पर प्रयास बताएं शरीर के स्तर पर प्रयास होते हैं। सुखी होने के प्रयास फिर मन के स्तर पर प्रयास होते हैं, फिर बुद्धि के स्तर पर प्रयास होते हैं। लेकिन प्रयास तो होना चाहिए आत्मा के स्तर पर क्योंकि हम आत्मा है। वैसे शरीर भी स्वयं (सेल्फ) कहा जाता है मन भी हमारा स्वयं (सेल्फ ) का ही भाग कहां जाता है एक दृष्टि से। बुद्धि भी हमारा सेल्फ या आत्मा की परिभाषा है। लेकिन मुख्य तो हमारा रियल सेल्फ आत्मा है, हम आत्मा हैं। हम मन भी नहीं हैं, मन एक तत्व है। स्थूल शरीर फिर सूक्ष्म शरीर तो मन भी हम नहीं हैं बुद्धि भी हम नहीं है। वैसे आध्यात्मिक मन है और आध्यात्मिक बुद्धि भी है। लेकिन इस संसार का जो मन है प्राकृतिक मन, वह हम नहीं है। तो आत्मा के स्तर पर जब हम कार्य करेंगे तो श्री कृष्ण के साथ अपना संबंध स्थापित करेंगे। भक्तों के साथ भक्तों के संग में उसके बाद फिर आनंद ही आनंद है। आनंदी आनंद गडे जिकड़े तिकड़े चोही कड़े विश्वम पूर्ण सुखायतें फिर सुख के आनंद का अनुभव संभव है। आगे जीव प्रेम करना चाहता है और प्रेम प्राप्त भी करना चाहता है। वह औरों से प्रेम करना चाहता है ओर और उसे प्रेम करें यह भी चाहता है। यह चाहत सभी जीवो में है इसमें कोई अपवाद नहीं है, हर योनि में यह होता है। लेकिन दुर्दैव से इस काम को ही प्रेम मान के वह ठगे जाते हैं। काम को ही प्रेम मानते हैं इस तरह इस काम का आदान-प्रदान चलता है संसार में। जो कामी होते हैं काम करते हैं और काम करवाते हैं अपने ऊपर। आध्यात्मिक जगत में प्योर ईगो मतलब आत्मा है और भोग करने वाले भोक्ता भोक्ताराम यज्ञ तपसा भगवान भोक्ता है और उसे प्रेम प्राप्त होता। और प्योर ईगो मे यह शरीर कहो, मन कहो बुद्धि कहो, यह सारे झूठ के अहंकार मायावी अहंकार अशुद्ध अहंकार है, इसलिए मैं ही भोक्ता हूं ऐसे विचार होते हैं। इस ग्राफ में आप देख ही रहे होंगे भोक्ता (enjoyer) तो कृष्ण है, यह वस्तुस्थिति है। लेकिन जो माया में फंसा हुआ है, जो प्रेमी नहीं कामी है तो वह मे भोक्ता हू इसे घोषित करता है या वह उसी के अनुसार कार्य करता है। तो यह अंतर है मैं भोक्ता हूं, मैं भोग भोगूंगा यह विचार छोड़ के, त्याग के सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज भगवान की शरण में जाकर यह समझो कि कृष्ण ही भोक्ता है। कृष्ण को भोगने दो उनके साथ मुकाबला ( compitation) नहीं करना। और तुम घोषित करोगे ओ मे भोक्ता हू कृष्ण कौन होते हैं तो इस तरह जीव इच्छा द्वेष समुत्थेन जो कृष्ण ही कहे हैं। वैसे द्वेष तो बद्ध जीव भगवान से द्वेष करते हैं साथ ही साथ औरों के साथ भी उसका एनवी या द्वेष के भाव चलते रहते हैं। मैं भोक्ता हूं यह भाव उसका बना रहता है। उसके स्थान पर भगवान भोक्ता है तो आत्मेंदरिय प्रीती वांछा तार बलि काम जीव जब अपने खुद के इंद्रियों के लिए काम करता है उसका नाम है काम। और कृष्णेन्द्रिय प्रीती भगवान की भी इंद्रियां है वे ऋषिकेश है। ऋषिक मतलब इन्द्रिया। तो कृष्णेन्द्रिय प्रीती वांछा धरे प्रेम नाम उसका नाम है प्रेम। तो आत्मेंदरिय प्रीती काम कृष्णेन्द्रिय प्रीती नाम।
नित्य सिद्ध कृष्ण प्रेम साध्य कब्बू नाय। श्रवनादि शुद्ध चित्ते करह उदय ।। (च. च. मध्य 22.107)
यहां हम रुक रहे हैं, अंत में या पुनः मध्य लीला से चैतन्य चरितामृत यह सिद्धांत की बात है। सिद्धांत बलिया ना करे आलस सिद्धांत बोलने में या सुनने में कभी आलस नहीं करना चाहिए। यह बड़ा महत्वपूर्ण सिद्धांत है नित्य सिद्ध कृष्ण प्रेम जीव स्वभाव से ही प्रेमी है। लेकिन अब इस संसार ने उस को घेर लिया पछाड़ लिया या उसको अच्छादित किया हुआ है। काम की वासना या भावना ओ ने। लेकिन वह क्या करेगा श्रवनादि शुद्ध चित्ते करह उदय श्रवनादि नवविधा भक्ती से श्रवण कीर्तन, वंदन या पादसेवनम आत्मनिवेदनम इस तरह यह करने से क्या होगा चित्त शुद्ध होगा चेतो दर्पण मार्जन होगा। और करह उदय उदित होगा क्या उदित होगा? नित्य सिद्ध कृष्ण प्रेम । स्वभाव से जो वह प्रेमी है ही जीव का स्वभाव ही है प्रेम, प्रेम करना, प्रेम प्राप्त करना। ओके समय समाप्त हुआ है।
हरे कृष्ण।