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*जप चर्चा*, *गोविंदधाम,नोएडा* *10 फरवरी 2020* हरि हरि !! ठीक है ,अब जप चर्चा आरंभ करेंगे गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!! ट्रांसक्रिप्शन भी हो रहा है, धन्यवाद शांताराम!! ठीक है तो अब क्या चर्चा करनी है, *हरे कृष्ण हरे कृष्ण* *कृष्ण कृष्ण हरे हरे* *हरे राम हरे राम* *राम राम हरे हरे* इससे अच्छी क्या चर्चा हो सकती है, जब हम “हरे कृष्ण महामंत्र" कहते हैं, गाते हैं या जप करते हैं। तो इसमें सभी प्रकार के चर्चा में सम्मिलित हो जाती हैं। सभी चर्चा का इसमें समावेश है ही, हरि हरि!! और इस प्रकार की चर्चा जब हम सुनते हैं, महामंत्र को सुनते हैं, कई सारी बातें समझ में आती हैं साक्षात्कार होता है । हरि हरि!! मैं नोएडा में था आज , आज भी हूं और यहां से मायापुर धाम के लिए प्रस्थान कर रहा हूं। इस जप चर्चा के बाद लेकिन कल जब यहां कृष्ण बलराम की रथ यात्रा संपन्न हुई तो खूब कीर्तन हुआ , हरि हरि!! और प्रारंभ में हमने यह भी कहां कि कृष्ण बलराम प्रकट हुए हैं, और उनकी शोभायात्रा या रथयात्रा हम संपन्न कर रहे हैं। इस्कॉन नोएडा की ओर से वहां पर उपस्थित नोएडा के जो नागरिक और निवासी थे । उन को संबोधित करते हुए हमने कहा भगवान कब प्रकट होते हैं, और वैसे हमने वही बात कही है। जो भगवान ने कही है ।मुझे क्या पता? भगवान कब प्रकट होते हैं? मैं कैसे कह सकता हूं? किंतु भगवान ने ही कहा है। वे कब प्रकट होते हैं ? तो फिर उस बात को हम पड़े हैं ,सुने हैं , समझे है। तो फिर हम कह सकते हैं। तो मैंने कहा- *यदा यदा हि धर्मस्यग्लानिर्भवति भारत:।* *अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥* (श्रीमद्भगवद्गीता 4.7) अनुवाद - हे भारतवंशी जब भी और जहां भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है , तब तक मैं अवतार लेता हूं। “यदा यदा हि धर्मस्यग्लानिर्भवति भारत:" जब-जब धर्म की गिलानी होती है। धर्म का हास होता है । “अभ्युत्थानम् -अधर्मस्य तदात्मानंसृजाम्यहम्" “अभ्युत्थान", उत्थान बढ़ता है अधर्म और घटता है धर्म , तब भगवान कहे *अहम् सृजामी* (सृज मतलब उत्पन्न होना भी है) तब में प्रकट होता हूं। हमने थोड़ा वर्णन करके सुनाया कि पूरे संसार में कैसी धर्म की स्थिति है । कैसे अधर्म फैल रहा है । तो कृष्ण बलराम का प्राकट्य अनिवार्य है। हरि हरि! तो कई बार लोग कहते वा पूछते हैं ,अब क्यों भगवान प्रकट नहीं हो रहे? इतनी सारी धर्म की ग्लानि तो हो रही है, भगवान क्यों प्रकट नहीं हो रहे? इसका जवाब तो है। भगवान प्रकट तो हो रहे हैं। हर दिन धर्म की ग्लानि हो रही है ,तो भगवान भी हर दिन प्रकट हो रहे हैं। फिर विग्रह के रूप में प्रकट हो रहे हैं जैसे कल रथ यात्रा के समय वे कृष्ण बलराम के रूप में प्रकट हुए और पूरी नोएडा नगरी का उन्होंने भ्रमण किया । प्रकट क्यों नहीं हो रहा है? भगवान तो प्रकट हो रहे हैं , वैसे कई रूपों में भगवान प्रकट हो रहे हैं *कलि - काले नाम - रूपे कृष्ण - अवतार ।* *नाम हैते हय सर्व - जगनिस्तार है । ॥ २२ ॥* (श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला श्लोक *१७.२२*) अनुबाद - इस कलियुग में भगवान् के पवित्र नाम अर्थात् हरे कृष्ण महामन्त्र भगवान् कृष्ण का अवतार है । केवल पवित्र नाम के कीर्तन से मनुष्य भगवान् की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है । जो कोई भी ऐसा करता है , उसका निश्चित रूप से उद्धार हो जाता ( *भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु* ) कलि-काले नाम-रूपे कृष्ण-अवतार क्या यह प्राकट्य नहीं है क्या? भगवान ने कहा है- कलयुग में मैं प्रगट होता हूं । किस रूप में ? *नाम रूपे कृष्ण अवतार* नामरूप में *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* तो यह भगवान का प्राकट्य है ।भगवान प्रकट होने के लिए तैयार हैं। बस केवल उनको पुकारना है, उनके नाम से संबोधित करना है । भगवान प्रकट होंगे। नामरूप में भगवान प्रकट हो रहे हैं । मैं सोच ही रहा हूं ,वैसे धर्म की होती है ,ग्लोनी तो ठीक है! नोएडा में हो रही है ग्लानि, दिल्ली में हो रही है, भारत में हो रही है, विदेश में अमेरिका ,रसिया यहां वहां धर्म की ग्लानि , ठीक है ,वो भी बात सही है कहना । लेकिन मैं अभी सोच रहा हूं की , हमारे जीवन में जो हम अलग-अलग व्यक्तित्व हैं , हमारे जीवन में भी तो धर्म की ग्लानि हो हुई है । हम भी तो अधार्मिक कृत्य कर रहे हैं। *सूत उवाच* *अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानानि कलये ददौ ।* *द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः ॥३८ ॥* [श्रीमद्भागवतम् १.१७.३८] अनुवाद - सूत गोस्वामी कहाः कलियुग द्वारा इस प्रकार याचना किये जाने पर महाराज परीक्षित ने उसे ऐसे स्थानों में रहने की अनुमति दे दी , जहाँ जुआ खेलना , शराब पीना , वेश्यावृत्ति तथा पशु - वध होते हों । ( श्री सूत गोस्वामी नैमिषारण्य के ऋषियों को उपदेश देते हैं । ) जैसा भागवत में कहा है । द्यूत क्रीडा ( गैंबलिंग) हो रही है ,मनमानी हो रही है या मनो धर्म चल रहा है या जब हम यह कहते हैं “यत मत तथ पथ” जितने मार्ग हैं वह सभी सही हैं। यह भी तो जुआ है , ये भी तो ठगाई है । “पानं" जहां मद्यपान धूम्रपान कई सारे पान होते है, तो ये धर्म की ग्लानि है। “स्त्रियः सूना" परस्त्री परपुरुष गमन ये भी चलता रहता है देश भर में होता है। देशभर के लोग जो ऐसा करते हैं धार्मिक कृत्य करते हैं धर्म की ग्लानि उनके जीवन में उनके कार्यकलापों में दिखती हैं। यह तीसरी बात है परस्त्री परपुरुष गमन, मन में कितनी ही बार पतन होता है हम लोग गिर जाते हैं ,यह भी तो धर्म की ग्लानि ही है। तो प्रसाद खाने की वजह अन्य कई सारे प्रकार के भोजन करना अभक्ष्य भक्षण करना यह भी तो धर्म की ग्लानि ही है। मैं यह कह रहा हूं कि हमारे देश में धर्म की ग्लानि हुई है और संसार में धर्म की ग्लानि हुई है। ठीक है , आखिरकार हर एक व्यक्ति के जीवन में, जीवन शैली में देखा जाए तो धर्म की ग्लानि हुई है । “धर्मस्यग्लानीं भवति " भगवान के प्राकट्य की आवश्यकता है। हम भी पतित हैं इस संसार में है तो हम पतित आत्माएं हैं। हम भगवत धाम में नहीं है; इस भौतिक जगत में ,प्राकृतिक जगत में, लौकिक जगत है। यह तो कारागार है। हम पतित हैं तो यह धर्म की ग्लानि हुई है, और हमें भगवान की आवश्यकता है हमारे घर में ,हमारे मन में भी भगवान प्रकट हो और प्रकट होकर क्या करें *परित्राणाय साधुनां* भगवान हमारी रक्षा करें *विनाशाय च दुष्कृतम्* हममे जों दुष्टता है उसका विनाश करे भागवान। तो हमें भगवान को आमंत्रित करना चाहिए आइए -आइए भगवान देखिए मेरे विचार, देखिए मेरी दुष्टता ,देखिए मेरी अधार्मिकता कुछ कीजिए प्रभु! या हम वैष्णव को भी बता सकते हैं ।देखिए मेरा हाल। *पतितानाम पावने भयो वैष्णवे नमो नमः* ॥ आप ही मेरा उद्धार कीजिए। भक्तो का संग प्राप्त हो रहा है तो भी यह समझना चाहिए कि भगवान प्रकट होकर यह व्यवस्था कर रहे हैं। तो भगवान उपलब्ध है, प्रकट हो रहे हैं प्रकट हैं, इन ग्रंथों के रूप में गीता -भागवत भगवान का प्राकट्य ही है, श्री विग्रह भगवान का प्राकट्य है। भक्त हमें स्मरण दिलाते है भगवान के अस्तित्व का , हमारे उत्तरदायित्व का, हमारे लक्ष्य का स्मरण दिलाते हैं। हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है *साधू-संग साधू-संग सर्व-शास्त्रे कहे,लव-मात्र साधू-संग सर्व-सिद्धि होय|* सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण-भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है| कृष्ण-भक्ति का मूल कारण महान भक्तों की संगति है (CC.मध्य लीला 22.54 & 83) साधु संघ के श्रीला प्रभुपाद ने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ की स्थापना की, लोगों को कृष्ण का स्मरण दिलाने के लिए, ये साधु संघ की व्यवस्था की है। हरे कृष्ण आंदोलन में क्या प्राप्त होता है? साधु संत प्राप्त होता है। तो यह भगवान की व्यवस्था है,ताकि हम कृष्ण भावना भावित बने । कृष्ण प्रसाद भी, भगवान प्रसाद के रूप में प्राकट्य होते है।और वो कई -कई रूपों में में भगवान प्रकट होते हैं। और जब आप भगवत गीता का दसवां अध्याय पढ़ोगे तो उसमें भगवान ने अपने वैभव का वर्णन किया है। भगवान प्रकट होते हैं कई कई रूपों में जब हम सर्वत्र देखेंगे । भगवान ने कहा है *शशी सूर्ययो:* चंद्रमा और सूर्य में हूं। चंद्र और सूर्य का प्रकाश में हूं। कभी आपने देखा नहीं सूर्य का प्रकाश यदि देखा है, तो आप यह नहीं कह सकते कि आपने भगवान को नहीं देखा । हरि हरि!! कृष्ण का स्मरण दिलाने के लिए कई साधन है , उपाय हैं *रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसुर्ययो: |* *प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु || ८ ||”* (भगवत गीता 7.8) अनुवाद हे कुन्तीपुत्र! मैं जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, वैदिक मन्त्रों में ओंकार हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूँ | भगवान ने कहा है - जल में जो रस है वो मैं हूं। श्रीला प्रभुपाद एक बार भागवत की कक्षा के मध्य में पास में जो जल का प्याला रखा था ।उसे उठाकर थोड़ा सा जलपान कीये और प्रभु पद ने कहा , जब- जब आप जलपान करते हो तो यह सोचा, कि यह जो पान है जो रस है।“ रस: -अहम्- अप्सु” अप्सु मतलब जल, जल में जो रस है वो मैं हूं। तो अगर हम याद करते हैं कि जल में जो रस है वो मैं हूं। तो हमें तत्क्षण कृष्ण का स्मरण होगा। *बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् |* *मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः || ३५ ||”* (भगवत गीता 10.35) अनुवाद मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ और छन्दों में गायत्री हूँ | समस्त महीनों में मैं मार्गशीर्ष (अगहन) तथा *समस्त ऋतुओं में फूल* *खिलने वाली वसन्त ऋतु हूँ* | *कुसुमाकरः*मतलब जो छह ऋतु है उसमें से जो वसंत ऋतु है। भगवान कहे हैं जो वो मैं हूं। तो जब हम फूल खिले देखेंगे, वसंत ऋतु का जो अनुभव है कृष्ण भावना भावित बनने के लिए है। जब हम बद्रीका आश्रम पदयात्रा करते हुए जा रहे थे या हिमालय में जा रहे थे। तो हिमालय देखते ही मुझे स्मरण आया भगवान ने भगवतगीता के 10 वे अध्याय में कहा है । *“महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् |* *यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः || २५ ||”* अनुवाद मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा *समस्त अचलों में हिमालय हूँ*| स्थावराणां हिमालयः जो स्थावर कुछ वस्तुएं जंगम होती है। तो जो स्थावर है, भारी होती है। एक जगह पर स्थित होती हैं ।हिलती डुलती नही । भगवान ने कहा है- “स्थावराणां हिमालयः" स्थावर में जो हिमालय है, वह मैं हूं। वैसे हम कृष्ण भावना भावित हो सकते हैं ।उस समय हम हिमालय को भी देख रहे थे। भगवान ने कहा ही है *स्थावराणां हिमालयः* विराट रूप के अंतर्गत जो हिमालयन वह भगवान का वैभव ही है। और हम यह भी देख रहे थे। यह मेरा निजी अनुभव है। हिमालय की जो शिखर है जो श्रृंखलाएं हैं, जो चोटी है। सर्वत्र हिमालय ही हिमालय और उसके मध्य में से जब हम पदयात्रा करते जा रहे थे। हम कितने शूद्र है। मैं तो यह अनुभव कर ही रहा था। एक विशाल पहाड़ के मध्य में चींटी के आकार के भी नहीं थे, बड़े ही सूक्ष्म है। तो उससे ये *तृणादपि सुनीचेन* भाव उत्पन्न हो रहा था। *तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना। अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥३॥* (शिक्षा अष्टकष्टक) अनुवाद- स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए ॥३॥ हम छोटे हैं, देखो महान पहाड़ और हम कितने छोटे हैं। तो यात्रा करते जब जा रहे थे तो सर्वत्र हिमालय था। जिस तरफ देखते हिमालय ही हिमालय और ऊपर सूर्य वो भी भगवान का स्मरण दिला रहा था। *प्रभास्मि शशिसुर्ययो:* नीचे देखते तो गंगा बह रही है ।भगवान ने कहा है, सभी पवित्र नदियों में गंगा में हूं। तो इस प्रकार हम कुछ अनुभव कर सकते हैं। तो यह भी साधन है। यह भी भगवान का वैभव है, भगवान दर्शन देते हैं। इस प्रकार के तथाकथित प्राकृत रूपों में ,भगवान की प्रकृति है ।तो भगवान है भगवान प्रकट है, केवल हम को समझना है ।भगवान कैसे हैं, कहां हैं, किस रूपों में भगवान है ,और हमारे जीवन में हम स्वीकार करेंगे भगवान को या इस प्रकार हम भगवान की शरण लेंगे *मामेकं शरणं व्रज* *सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |* *अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः || ६६* ||” भगवत गीता १८.६६ अनुवाद समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत । *अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः* तो हम मुक्त होंगे ।तो हमे हमारे पापों का जो फल ,जो परिणाम है वो भोगना नहीं पड़ेगा हम मुक्त होंगे फिर भक्त होंगे । हरि हरि!! भगवान के विभिन्न रूप हैं जिनमें से कुछ का हम उल्लेख किए। जिसमें से कलयुग में तो मुख्यता हरि नाम ही है, *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* ठीक है तो 441 स्थानों से भक्त सम्मिलित हुए है। पहले थोड़ा कम थे। आप हमारे साथ थोड़ा जल्दी जुड़ा कीजिए । अब मुझे रुकना होगा और अब मैं मायापुर के लिए प्रस्थान कर रहा हूं। तो अगली जप चर्चा मायापुर से, अब मायापुर से आपसे बात करते हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!!!

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