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*जप चर्चा १६ .०२.२०२२ ,पंढरपुर धाम* आप सभी जप करने वाले भक्तो का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन’आज की चर्चा हम करते है प्रयास करते है _ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम:_ नित्यानद प्रभु की। … आज नित्यानन्द प्रभु का समरण हो रहा है कुछ दिन पहले हम नित्यानंद त्रयोदशी महोत्सव सम्पन किये नित्यानंद त्रयोदशी की लीला कथा’ सुने सुनाये सर्वत्र कथा हो रही थी मेने भी की और या सरे या सारे विश्व भर नित्यानंद प्रभु की कथा गायी जा रही थी नित्यानंद प्रभु एकचक्रा ग्राम में प्रकट हुए और उनकी बाल लीला वही सम्पन हुई १२ साल एकचक्रा ग्राम में रहे जो बंगाल में है और तत्पश्चात हम सुने है उन्होंने अगले २० वर्षो तक वे भारत का ब्रह्मण करेंगे किये और वैसा ही ब्रह्मण किये जैसे बलराम ५००० वर्ष पूर्व ब्रह्मण किए थे वैसा ही क्यों ? क्युकी बलराम होईलो निताइ! बलराम ही तोह नित्यानंद प्रभु है तोह ब्रह्मण करते करते या ब्रह्मण के दरमियान वे पंढरपुर पहुंचे पंढपुर धाम की तोह पंढरपुर में जो उन्होंने लीला रची उसका हम सब समरण करेंगे नित्यानंद प्रभु यहाँ दीक्षित हुए या उन्होंने ऐसी रचना रची की वे यहाँ दीक्षित हो जाये या उसी के साथ पहले ही कहना चाहते है उन्होंने पंढरपुर धाम का महिमा बताया है तोह जब नित्यानंद प्रभु जय नित्यानंद! प्रभु पंढरपुर में थे वैसे बलराम ही पंढरपुर आये थे ऐसा उल्लेख मिलता है और इतना ही नहीं विठल मंदिर में एक बलराम मंदिर भी है बड़ीदादा मराठी में तोह बड़ीदादा बलराम का मंदिर विग्रह भी है तोह नित्यानंद प्रभु जब यहाँ आये पंढरपुर और यहाँ रहे तोह ऐसे कहना ही पड़ेगा की पंढरपुर भी उन्ही का धाम है तोह एक ब्राह्मण के अतिथि बन जाते है वह आवास और निवास की व्यवस्था हो चुकी थी जिस ब्राह्मण के घर पर उसी ब्राह्मण के घर पर पधार गए लक्ष्मीपति तीर्थ जो मध्वाचार्य संप्रदाय के तत्कालीन आचार्य थे जो उद्दीपि से आये होंगे उनका जो की उद्दीपि मध्वाचार्य का स्थान है उद्दीपि तोह उद्दीपि से वे पंढरपुर आये थे तोह यहाँ आचार्य आया करते थे तोह भगवन भी आये और रहे और आचार्य भी तोह ये लक्ष्मीपति तीर्थ उसी निवास में रहने लगे जिस निवास में नित्यानद प्रभु का निवास था लेकिन एक दूसरे से मिले नहीं थे अभी अभी आये थे लक्ष्मीपति तीर्थ तोह उन्होंने कहा अपने यजमान से वैसे में पहले भी यहाँ आया था पंढरपुर और आपके निवास पे रहा था लेकिन इस समय में विशेष कुछ अनुभव कर रहा हूँ मंगलमय वातावरण है यहाँ | यहाँ के मांगल्या और पवित्रता का कोई ठिकाना ही नहीं इस समय क्या बात है ? तोह उन्होंने कुछ यजमान ने उत्तर वगैरह तोह नहीं दिया तोह ये मंगलमय वातावरण नित्यानंद प्रभु की उपस्तिथि के कारण ही बन चूका था तोह उस दिन, दिन में नित्यानंद प्रभु नित्यानंद बलराम की रचना लीला लीला शक्ति उनकी योगमाया कार्यरत है वो दीक्षा लेना चाहते है नित्यानंद प्रभु दीक्षा लेना चाहते है लक्ष्मीपति तीर्थ से तोह दिन में जब वो अकेले बैठे थे लक्ष्मीपति तीर्थ तोह उनको ऐसे ही स्फूर्ति होने लगी तोह बलराम का समरण होने लगा और भगवन बलराम को वो प्राथना करने लगे मेरा उद्धार कीजिये कृपा कीजिये इत्यादि इत्यादि भाव व्यक्त करने लगे ऐसे भाव विभोर हुए थे वे तीर्थ बलराम नित्यानद प्रभु की कृपा थी उन पर तोह बलराम याद आरे थे जय बलराम! जय बलराम! तोह ये सब स्मरण चल रहा था बलराम की याद बलराम भाव और ऐसे अश्रुधारा भहा रहे थे और लोटांगण हो रहा था और अपना मस्त थे वे और उसी भाव में वैसे थोड़ी निद्रा आगयी उनको उनकी भी योगमाया की व्यवस्था हो रही है और जब निद्रा की अवस्था में थे तोह बलराम का दर्शन किए नीलमम्बर वस्त्र पहने हुए बलराम बलवान बलराम जिनके अंग की कांति शुक्ल वर्ण के बलराम चांदी होती है ना जो सिल्वर वैसे बलराम के अंदर से कांति निश्चित हो रही थी कुण्डल पहने थे कुण्डल ऐसे खेल रहे थे कमल नयनी बलराम तोह सुन्दर सर्वांग सुन्दर बलराम का दर्शन कर रहे थे और बलराम से वार्तालाप भी प्रारम्भ किये और कुछ आदेश भी दे रहे है लक्ष्मीपति तीर्थ को उन्होंने कहा की कल एक विशेष व्यक्ति का आगमन होगा और तुम से मिलन होगा उनको तुम दीक्षा दो और इतना ही नहीं बलराम कहे ये मंत्र ये मंत्र उनको देना कल जब दीक्षा दोगे तोह िश मंत्र से दीक्षित करो ुष विशेष व्यक्ति को तोह क्या कर रहे है आप समझ रहे हो क्या तोह बलराम ने लक्ष्मीपति तीर्थ को दीक्षा दी हुई है अपना मंत्र कान में फूका है और वही मंत्र अब दूसरे दिन एक विशेष व्यक्ति को और पहले उनके पास आएंगे और दीक्षा दीजिये दीक्षा दीजिये तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः || उपदेक्ष्यन्ति ते तुम दीक्षा दो तोह फिर दूसरे दिन जब दूसरा दिन आ पहुंचा लक्ष्मीपति तीर्थ अब प्रतीक्षा कर रहे थे तोह जैसे बताया था हुआ विशेष व्यक्ति का आगमन उन्होंने दीक्षा की मांग की और बलराम के आदेश अनुसार लक्ष्मीपति तीर्थ ने इस व्यक्ति को मन्त्र दिया दीक्षित किया अनुष्ठान दीक्षा अनुष्ठान सम्पन हुआ और इसके उपरांत लेटस सी व्हाट्स मोरे तोह दीक्षा तोह दीक्षित हुए वो कौन थे नित्यानंद प्रभु ही थे तोह नित्यानन्द प्रभु को लक्ष्मीपति तीर्थ ने दीक्षा दी और दीक्षा के उपरांत नित्यानद प्रभु प्रस्थान भी किये क्युकी वो ब्रह्मण चल ही रहा था तोह पंढरपुर से वो और तीर्थ छेत्र के लिए आगे बढ़े और फिर उस दिन या उस रात्रि को जब लक्ष्मीपति तीर्थ पुनः विश्राम कर रहे थे तोह नित्यानंद प्रभु प्रकट होते है जिनको दीक्षा दी थी अपने शिस्य को वो शिस्य पुनः दर्शन देते है उनकी निद्रा की अवस्था में स्वपन अवस्था में और कुछ ही समय के उपरांत नित्यानद प्रभु बलराम बन जाते है तोह ये इसी के साथ समझ रहे है की जिनको दीक्षा दी वे नित्यानंद प्रभु स्वयं बलराम ही तोह है तोह फिर उस स्वपन अवस्था से जब जगे तोह जागृत अवस्था में तोह एक तोह उनको विरहा की इतनी व्यथा से वे रसित है बलराम चले गए नित्यानंद प्रभु चले गए एक तोह ये समझ आया जिनको दीक्षा दी वे स्वयं बलराम ही तोह थे भगवन ने मुझसे दीक्षा ग्रहण की भगवन ने मुझसे एक प्रकार से वाज़ नॉट वैरी स्ट्रैट फॉरवर्ड सीधा आके कहते में कौन हु मुझे दीक्षा दो तोह छल कपट के साथ ही दीक्षा का व्यवस्था किये तोह लक्ष्मीपति तीर्थ पछताने लगे मुझसे भगवन को दीक्षा में कौन होता हु देने वाला और वे मुझे छोड़ के चले भी गए यहाँ से प्रस्थान किये अगर यही होते उनके चरणों में कुछ क्षमा याचना मांगता मुझसे अपराध हुआ हरी हरी ! दीक्षा तोह हो चुकी थी तोह इस प्रकार नित्यानंद प्रभु या इससे ये पता चलता है की बलराम होईलो निताई बलराम और नित्यानंद प्रभु में अंतर नहीं है बलराम जी थे और है नित्यानद प्रभु और ये लीला उन्होंने पंढरपुर में खेले नित्यानद प्रभु पंढरपुर में दीक्षित हुए पंढरपुर धाम की.. और वैसे वो है तोह भगवन है बलराम है नित्यानंद प्रभु है लेकिन है तोह बलराम नित्यानद प्रभु का आदि गुरु है तोह गुरु को गुरु की आवयसकता तोह नहीं है तोह आदि गुरु है ओरिजिनल स्पिरिचुअल मास्टर लेकिन यहाँ एक तोह नित्यानंद प्रभु भी भक्त बने है जैसे गौरंगा महाप्रभु भक्त बने है नित्यानंद प्रभु भक्त बने है वैसे अद्वैत आचार्य भक्त बने है श्रीवास ठाकुर तोह भक्त तोह थे ही गदादर पंडित भक्त बने है गदादर पंडित तोह राधारानी ही थे तोह वे तोह भक्त है ही तोह ये सरे पंचतत्त्व भगवन पांच तत्वों में प्रकट हुए पंचा तत्त्व तोह ये सब भक्त बने है तोह भक्त को दीक्षा देनी चाहिए ये उपदेश आदेश भगवान् ने ही दिए है गीता में तोह नित्यानंद प्रभु बलराम या अदि गुरु होते हुए भी एक आदर्श रखे है तस्मात् गुरु प्रपदिता चॉइस ही नहीं है तस्मात् गुरुम प्रभुपाद से यू मस्ट स्वीकार करना चाहिए गुरु को स्वीवकार करना चाहिए गुरु पादाश्रय रूपा गोस्वामी प्रभुपाद जो ६४ भक्ति के अंगो उल्लेख करते हैं भक्ति रसामृत सिंधु में पहला तो गुरु पाद आश्रय तो यह शिक्षा भी नित्यानंद प्रभु दे रहे हैं तो यत यात आश्रयसि श्रेष्ठा जो श्रेष्ठ होते हैं उनका और आचरण करते हैं तो नित्यानंद प्रभु श्रेष्ठ हैं स्वयं भगवान है श्रेष्ठ भक्त के रूप में भी लीला खेल रहे हैं नित्यानंद प्रभु के रूप में तो वे ही दीक्षित नहीं होंगे गुरु पाद आश्रय नहीं लेंगे तो दुनिया या जनता क्यों लेगी तोह नित्यानंद प्रभु ने यह आदर्श भी समाज के समक्ष या मानव जाति के समक्ष ऐसा आदर्श भी रखा है हरी हरी तोह जब ये ब्रह्मण हो रहा था तो नित्यानंद प्रभु वैसे माधवेंद्र पुरी के साथ भी मिलते हैं और माधवेंद्र पुरी का अंग संग भी प्राप्त होता है नित्यानंद प्रभु को तो यह माधवेंद्र पुरी जो हमारे गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के एक दृष्टि से फाउंडर आचार्य हैं हम लोग गौड़ीय मधवा संप्रदाय को बिलॉन्ग करते हैं तो मधवा तो ठीक है लक्ष्मीपति तीर्थ से दीक्षा लिए माधवेंद्र पुरी और यहां नित्यानंद प्रभु भी उन्हीं से दीक्षा लिए हैं लेकिन जो गौड़ीय वैष्णवता जो है जिससे गौड़ीय वैष्णव की पहचान होती है वे सिद्धांत वह भाव वह भक्ति गौड़ीय वैष्णव की वह सिद्धांत की स्थापना और उसका आचरण करने वाले प्रथम आचार्य माधवेंद्र पुरी रहे जिन्होंने दीक्षा ली थी लक्ष्मीपति तीर्थ से ही तोह नित्यानंद प्रभु माधवेंद्र पुरी या कहीं पर उल्लेख मिलता है कि वे ही वाज़ इनिसिएटेड disciple ऑफ माधवेंद्र पुरी के वे शिष्य थे नित्यानंद प्रभु तोह चैतन्य भागवत में लिखा है कि माधवेंद्र पुरी तो नित्यानंद प्रभु को अपना मित्र मानते थे दोस्त वह मेरे दोस्त हैं लेकिन नित्यानंद प्रभु माधवेंद्र पुरी को अपना गुरु मानते थे शिक्षा गुरु तो मानते ही थे तोह औपचारी दृष्टि से नित्यानंद प्रभु ने माधवेंद्र पुरी से दीक्षा नहीं ली लेकिन उनका संघ और उनसे शिक्षा तो जरूर ली और उसी के साथ वह भी नित्यानंद प्रभु भी गौड़ीय वैष्णव भगवान है तोह यह सब कहना उचित भी नहीं गौड़ीय वैष्णव बोले लेकिन जो गौड़ीय वैष्णव धर्म का स्थापना करना है तो नित्यानंद प्रभु भी माधवेंद्र पुरी से गौड़ीय वैष्णवता को लिए होंगे सीखे समझे होंगे उन से शिक्षा ग्रहण किए होंगे तो माधवेंद्र पुरी यह गौड़ीय वैष्णवता का जो वशिष्ठ है या कुछ कुछ ही शब्दों में कहा जा सकता है माधवेंद्र पुरी अपने अंतिम दिनों में रमुना खीराचोरा गोपीनाथ मंदिर मैं ही रहे या मंदिर के पास रहे और ईश्वर पुरी उनके शिष्य उनकी सेवा किया करते थे तोह माधवेंद्र पुरी वैसे उन दिनों में भी और पहले भी एक विशेष वचन का वह पुन: पुन: उच्चारण किया करते थे आई दीन दया नाथ है! मथुरा नाथ कदा अवलोकसे और भी है तो यह वचन पुनः पुनः कहते थे यह भाग पुन: पुन: व्यक्त करते थे वैसे यह भाव तो राधा रानी का ही है तोह जब श्री कृष्णा ____________ तो गोपियों को राधा रानी को वृंदावन में छोड़ के जब भगवान मथुरा जाते हैं तो उस समय के भाव जो राधा रानी के भाव थे गोपियों के भाव थे और ऐसे ब्रज वासियों के भाव थे विराह की जो व्यथा थी वह व्यक्त होती है यहां दीन दया नाथ है! मथुरा नाथ अब तो तुम मथुरा नाथ बन गए वृंदावन नाथ वृंदावन पति के बजाय तुम मथुरा मैं जा कर बैठे हो और तुम मथुरानाथ बने हो हे मथुरा नाथ हे दया दीनानाथ ये सब हरी हरी राधा रानी कह रही है तो यहां माधवेंद्र पुरी कह रहे हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने हमको भक्ति सिखाई है रम्या का चित उपासना वधुवरगेनया कल्पिता ऐसे भक्ति करो जैसे राम्या ब्रज वर्गेण वधुवरगेन कया कल्पिता गोपाङ्गनाय गोपिया राधा रानी का जो भाव भक्ति थी ऐसी भक्ति करो चैतन्य महाप्रभु मातम इदं तोह माधवेंद्र पुरी ने ऐसी भक्ति सिखाई तोह दया अगर आग्र भगवान को जब आती है दया आती है दया आती है तोह दयाआग्र दया अग्रता उनके हृदय में आग्रता उनका हृदय पिघल जाता है और द्रवीभूत होता है दयाग़र नाथ और कदाकी लोकस्य कब दर्शन दोगे हे राधे ब्रज____ हे नन्द सुनो कहा ये सड गोस्वामी वृंदावन के विभाग हैं कहां हो कहां हो कहां मिलोगे इस वक्त कहां होंगे यह जो विराह की व्यथा है विराह भाव जो है यही तो वशिष्ठ है गोपियों के भावो का या भक्ति का या राधा रानी का हो मिलन की बात नहीं कर रहे संभोग की बात नहीं एक संभोग होता है मिलन होता है मिलन आनंद संभोग और विप्रलम्भा वियोग में विरह में तोह कब मिलेंगे कहां मिलोगे यह भाव है नहीं मिल रहे हैं यह जो भाव है माधवेंद्र पुरी हमारे संप्रदाय के गौड़िये गौड़िये गौड़ीय संप्रदाय ऐसे प्रारंभ होता है माधवेंद्र पुरी से प्रारंभ होता है तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ही सेटिंग द सीन मंच बनाना है ताकि उस मंच पर या उसी परंपरा में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी जाएंगे आगे उस परंपरा में दीक्षित होंगे तोह कृष्ण चैतन्य महाप्रभु माधवेंद्र पुरी के शिष्य ईश्वर पुरी के शिष्य बने माधवेंद्र पुरी के शिष्य थे ईश्वर पुरी ईश्वर पुरी के शिष्य बने चैतन्य महाप्रभु तोह केवल ब्रह्मा संप्रदाय से दीक्षित बना एक बात है और फिर ब्रह्मा मध्वा मध्वा संप्रदाय में दीक्षित होना एक बात ऑल मध्वा गौड़िये संप्रदाय में दीक्षित होना और बात है कुछ खास बात है और यही है ये अंतर्राष्ट्रीय श्री कृष्ण भावना यह गोपी का भाव राधा भाव अनारतीथ चरणचिरा तारुण्य ावती कहाकालो समर्पयितं उन्नत उज्ज्वला रसा म स्वभक्तिम श्रियम चैतन्य महाप्रभु ऐसे प्रकट हुए और अनर्पिता बहुत समय से ऐसी बात प्रकट किया गया प्रकाशित नहीं किए थे ऐसे भाव भक्ति और वह है उन्नत उज्जवल रस मतलब माधुरी उज्जवल उन्नत रसाम सुभक्ति श्रृया ये उन्नत उज्जवल रस माधुर्य रस यह माधुर्य भक्ति का रस राधा रानी भाव और रस का स्वयं आस्वादन करने भी चैतन्य महाप्रभु ने आस्वादन भी किया और इसका वितरण भी किआ और यह रसास्वादन जुड़ी हुई है िश महामंत्र के साथ कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे यह भी है उन्नत उज्जवल रसिया भक्ति का रस या प्रेम का रस और इसीलिए यह प्रेम धन भी है यह महामंत्र प्रेम धन है इसीलिए हम इस महामंत्र से दीक्षित होते हैं जब दीक्षा दी जाती है तो यह महामंत्र दिया जाता है तोह उसी के साथ फिर दीन दया नाथ है! मथुरा नाथ कदा कदा अवलोकसे ये जो भाव है यह भावों से ही हम दिक्षित होते हैं या यह भाव को प्रकट करने हैं जागृत करने हैं उतित करने हैं हरी हरी और फिर हम महामंत्र को प्राप्त करते हैं दीक्षा में हमारी भी दीक्षा होती है नित्यानंद प्रभु की भी दीक्षा हुई दीक्षा होती है उसी परंपरा में ओके टाइम इज़ अप नित्यानंद प्रभु की जय गौरंगा गौरंगा नित्यानंदा माधवेंद्र पुरी की जय ईश्वर पुरी की जय और लक्ष्मीपति तीर्थ की भी जय भी जय पंढरपुर धाम की जय निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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