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मैं अभी पुणे के श्री श्री राधा वृन्दावनचन्द्र मंिदर में हूँ , जहाँ बहुत से भक्त जप कर रहे हैं और उनसे मंिदर पूरा भरा हुआ हैं। आज हम इस चचार् को जल्दी ही समाप्त करेंगे क्योंिक मुझे भागवतम पर प्रवचन देने हैं।

मैं क्या कह सकता हूँ ? जप करते रिहए। चैतन्य महाप्रभु ने कहा , " कीतर्नीय सदा हरी " , परन्तु इससे पहले भी उन्होंने कुछ कहा जो िशक्षाष्टकम के एक श्लोक में बताया गया हैं - जब व्यिक्त अत्यंत नम्र और सिहष्णु होगा तब मन की ऐसी अवस्था में वह िनरंतर हिरनाम ले सकता हैं। आज जब हमने जप शुरू िकया उससे पहले िशक्षाष्टकम पढ़ा , और भी कई मंिदरों में ऐसा िकया जाता हैं।

मैं आप सभी को ऐसा करने की सलाह देता हूँ। िशक्षाष्टकम पढ़ते हुए आपको उसे आत्मसात करने का प्रयास करना चािहए और उसके तात्पयोर्ं को भी समझना चािहए। यह िशक्षा - अष्टक हैं अथार्त िशक्षा प्रदान करने वाले आठ श्लोक। ये श्लोक जप के िलए चैतन्य महाप्रभु द्वारा िदए गए िनदेर्श हैं। " परम िवजयते श्री कृष्ण संकीतर्नम "(िशक्षाष्टकम - श्लोक १) जप करते समय आप भी इन में से कोई १ श्लोक या िसद्धांत ले सकते हैं और िफर उस पर िचंतन और मनन कर सकते हैं िक इसमें श्री चैतन्य महाप्रभु ने क्या कहा हैं। हमें श्रील भिक्त िसद्धांत सरस्वती ठाकुर और श्रील भिक्त िवनोद ठाकुर द्वारा िशक्षाष्टकम पर दी गई व्याख्या का भी िचंतन करना चािहए। उन दोनों ने िशक्षाष्टकम पर अपनी व्याख्याएं दी हैं। अतः जप करते समय " िवनम्रता " - तृणादिप सुनीचेन ........(िशक्षाष्टकम श्लोक - ३) और " सिहष्णुता " - तरोरपी सिहष्णुनाम ...... (िशक्षाष्टकम श्लोक - ३) अत्यंत आवश्यक हैं, िजससे हम जप कर सकें । तब आप कीतर्नीय सदा हरी कर सकते हैं या पूणर् रूप से कहें तो - अमािनना मानदेन कीतर्नीय सदा हरी (िशक्षाष्टकम श्लोक - ३). आपको सदैव भक्तों को सम्मान देना चािहए। यह सकारात्मक सोच हैं।

सामान्य रूप से हम स्वयं का ध्यान रखते हैं और सम्मान देते हैं परन्तु अन्य भक्तों के बारे में ध्यान रखने और सम्मान देने के बारे में हम नहीं सोचते हैं। ऐसा करने से आपसे उनके प्रित अपराध नहीं होगा और आप वैष्णव अपराध से बचकर रहेंगे, जो भिक्त में सबसे बड़ी बाधा हैं। अतः अमािनना मानदेन कीतर्नीय सदा हरी। इसिलए जब आप जप करते हैं तब िशक्षाष्टकम का एक श्लोक लीिजए और उस पर िचंतन कीिजये। चैतन्य चिरतामृत के अंितम अध्याय में िशक्षाष्टकम हैं। उस अध्याय में बताया गया है िक चैतन्य महाप्रभु पूरी पूरी रात कृष्ण िवरह के कारण जगे हुए रहते थे। उनके िलए सोना अत्यंत मुिश्कल था। जब आप भगवान का िनरंतर स्मरण कर रहे हैं तो आप िकस प्रकार सो सकते हैं। उनमे इतना अिधक कृष्णभावनामृत था िक उनके िलए सोना संभव नहीं था।

अतः वे लगभग प्रत्येक राित्र जगे हुए रहते और िशक्षाष्टकम का १ - १ श्लोक हर रात पढ़ते थे और उनके भावों में अत्यंत गहरे जाते थे। वे पूरी रात स्वयं को िशक्षाष्टकम के केवल १ श्लोक में ही िनमग्न रखते और उसी पर िचंतन करते रहते थे। वे कृष्ण कृष्ण पुकारते और हे कृष्ण आप कहाँ हैं ? इस प्रकार क्रंदन करते। िशक्षाष्टकम पर िचंतन करते हुए वे हरे कृष्ण का जप करते। यद्यिप ऐसा कोई िनयम नहीं हैं िक हमें जप करते हुए िशक्षाष्टकम पर मनन करना चािहए अिपतु ऐसा करना अभ्यास हैं। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते (भगवद गीता ६.३५) अतः हमें िनरंतर बार बार "अभ्यास" करना चािहए तथा " वैराग्य " भी होना चािहए।

भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं िक िनरंतर जप करते रहने से हम धीरे धीरे अनासिक्त की ओर अग्रसर होंगे। जब आप कृष्ण से आसक्त होंगे तभी केवल भौितक जगत से अनासक्त हो सकते हैं। हमें स्वयं को भगवान के नाम से आसक्त करने का प्रयास करना चािहए। हमें कृष्ण , कृष्ण के नाम , रूप , गुण और लीलाओं से आसक्त होना चािहए। जब आप इस प्रकार आसक्त होते हैं तो तुरंत िवरिक्त का भाव उत्पन्न होता हैं। चूँिक हम कृष्ण से आसक्त होना चाहते हैं अतः हमें िनरंतर जप करते रहना चािहए।

आज सुबह जप शुरू करने से पहले ब्यूरो के एक सदस्य रसराज प्रभु मुझे बता रहे थे िक वास्तव में आत्मा जप करती हैं न की जीभ। जीभ तो मांस से बनी हुई हैं अतः यह आत्मा ही हैं जो जीभ के द्वारा हिरनाम का उच्चारण करती हैं। आत्मा ही वास्तव में जप करने वाला साधक हैं। यिद आत्मा जप न करें तो कान भी श्रवण नहीं कर सकते हैं। न तो जीभ हरीनाम उच्चारण करती हैं और न ही कान श्रवण करते हैं अिपतु यह आत्मा ही हैं जो कीतर्न और श्रवण दोनों करती हैं।

अतः इसे याद रिखए की जप और श्रवण में आत्मा का पूरा योगदान हैं। हमें ध्यानपूवर्क जप करना चािहए, और यह स्मरण रखना चािहए की आत्मा जप कर रही हैं और परमात्मा उसके साक्षी हैं और श्रवण कर रहे हैं। वे आपके जप को सुनते हैं। जप करते समय ध्यान को कें िद्रत रखना अत्यंत आवश्यक हैं। आत्मा जप करती हैं। भिक्त के साथ जप कीिजए और इस पर िचंतन कीिजए , यही भिक्त हैं। भिक्त, भक्त और भगवान को संयुक्त करती हैं। भक्त ध्यानपूवर्क जप के द्वारा भगवान से जुड़ता हैं।

हरे कृष्ण ........

English

I am in Sri Sri Radha-Vrndavancandra Temple which is full of devotees chanting. Today we will conclude early, as I have to give Bhagavatam class.

What can I say? Keep chanting. Caitanya Mahaprabhu said, ‘kirtaniya sada hari’. But before saying this he also said that which is explained in one of the purports of Siksastakam - in such a state of mind one can chant the holy name of the Lord constantly. Before we started Japa this morning there was a recitation of Siksastakam which is done in many other temples also.

I am recommending that you also to do so. By reciting it try to imbibe the spirit of Siksastakam, study purports of Siksastakam. It is Siksa - astaka. means eight instructions. They are instructions given by Caitanya Mahaprabhu about chanting. param vijayate sri krsna sankirtanam) (Siksastakam - verse 1) While chanting also you can take one of the stakes and meditate and contemplate on what Sri Caitanya Mahaprabhu is saying in that. Meditate on the purport of the Siksastakam commentaries of Srila Bhakti Siddhanta Sarasvati Thakur as well as Srila Bhakti Vinod Thakur. They both have written commentaries on Siksastakam. So while chanting humility is required - trinadapi sunicena (Siksastakam - verse 3) and tolerance is required - tarorapi sahishnuna…. (Siksastakam - verse 3) so that you could chant. You can do kirtaniya sada hari. Or amanina manden kirtaniya sada hari.

(Siksastakam - verse 3) You have to honor the devotees. That's a positive thing. Normally we care or respect ourselves, but who cares or respects other devotees. Caitanya Mahaprabhu said that if you wish to chant all the time kirtaniya sada hari, then you have to respect devotees, honor them , serve them. By doing this you will not be offending them and be free from Vaisnava aparadh, which is a big stumbling block on the path of chanting. So amanina manden kirtaniya sada hari.

Take one verse and meditate while you are chanting Hare Krishna. In the last chapter of Caitanya Caritamrita, you will find the Siksastakam. There it is mentioned that Caitanya Mahaprabhu used to have sleepless nights. It was difficult for him to sleep. How could you sleep when you are remembering the Lord. So much Krishna conscious that there was no question of sleeping. So he would stay awake all night long and each night, he would take one verse from the Siksastakam and dive deeper into the meaning of that verse. The whole night he would contemplate and immerse himself in one verse of Siksastakam. He would chant - ‘Krishna Krishna , where are you Krishna?’ Hare Krishna Hare Krishna is also reciting, remembering and contemplating on the Siksastakam. There are no hard and fast rules , but that's the practice. Abhyasen you kauntay vairagyen ch gruhyate. ( B.G. 6.35) So do the ‘ abhyasa’ over again and again and again. That's the practice. Also ‘ vairagyen’ , Krsna said in Bhagavad-Gita that by chanting over again and again there has to be spirit of detachment. When there is attachment to Krsna then only you could detach. Try to attach yourself to the Holy name. You have to attach to Krsna, Krsna's name , form , qualities and pastimes. You relish this attachment then instantly or simultaneously detachment takes place. We are practicing to get attached to Krishna, so keep chanting.

This morning before chanting Rasaraj Prabhuji who is also bureau member was discussing that the soul chants and not the tongue. The tongue is flesh. What makes the tongue chant is the soul. The soul is a chanter. The ears can't hear if the soul’s participation is not there. The tongue is not the chanter and ear is not the listener, but it is the soul who chants and hears. Remember the soul’s full participation is there in chanting and hearing also. Do the attentive chanting, remembering that the soul is chanting and the super soul is the witness and listener. He listens to your chanting.

Attention is very important while chanting. Chanters are atmas, the souls. Chant with devotion and then meditate on it. That is Devotion. Bhakti unites Bhakta and Bhagwan. Bhakta is connected with Bhagwan through the process of attentive chanting

Hare Krishna

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