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*जप चर्चा* *दिनांक 05.03.2022* *धर्मराज प्रभु द्वारा* हरे कृष्ण!!! गुरू महाराज:- वृंदावन धाम,चिंतामणि धाम है। *चिन्तामणिप्रकरसद्यसु कल्पवृक्ष- लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् ।लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥* ( ब्रह्म संहिता 5.29) अनुवाद- जहाँ लक्ष-लक्ष कल्पवृक्ष तथा मणिमय भवनसमूह विद्यमान हैं, जहाँ असंख्य कामधेनु गौएँ हैं, शत-सहस्त्र अर्थात् हजारों-हजारों लक्ष्मियाँ-गोपियाँ प्रीतिपूर्वक जिस परम पुरुष की सेवा कर रही हैं, ऐसे आदिपुरुष श्रीगोविन्द का मैं भजन करता हूँ। ब्रह्मा जी ने कहा ही है, वृंदावन चिंतामणि धाम है। नवद्वीप भी वृंदावन ही है, वृंदावन गोलोक का एक विभाग है। वृंदावन चिंतामणि है तो उसी का अंग नवद्वीप भी चिंतामणि होना ही चाहिए और है भी। *गौर मंडल भूमि येब जाने चिंतामणि तार हय व्रजभूमि वास।* (श्रील नरोत्तम दास ठाकुर) जो जानेंगे समझेंगे कि नवद्वीप धाम भी चिंतामणि धाम है। वे ब्रजभूमि का वास/ वृंदावन का वास को प्राप्त करेंगे। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* योगपीठ, जहां परिक्रमा के भक्त इकट्ठे हुए हैं। यह गोकुल है, वृंदावन का गोकुल , नवद्वीप का योगपीठ है। शचि माता ही यशोदा माता है और नंदबाबा, जगन्नाथ मिश्र है। जय शचीनन्दन! शचीनन्दन कहिए या यशोदा नंदन कहिए, एक ही बात है। *ब्रजेन्द्रनन्दन येइ, शचीसुत हइल सेइ, बलराम हइल निताइ।* *दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, तार साक्षी जगाइ-मधाइ॥* अर्थ:- जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं। जो नंदनंदन हैं, वही शचीनन्दन के रूप में प्रकट हुए। जय शचीनन्दन जय शचीनन्दन जय शचीनन्दन गौर हरि। शचीनन्दन गौर हरि की जय! योगपीठ की जय! श्रील प्रभुपाद की जय! निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! शचीनन्दन गौर हरि की जय! ठीक है। मैं अभी यहीं विराम कर देता हूं । मैं योगपीठ के लिए प्रस्थान करूँगा। जप चर्चा धर्मराज प्रभु द्वारा हरे कृष्ण!!! *ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।* *नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते लोकनाथ – स्वामिन् इति नामिने।।* *नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।* *नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।* *(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* सर्वप्रथम में श्री गुरु महाराज के चरण कमलों में सादर दंडवत अर्पण करता हूं और सभी उपस्थित वैष्णव के चरणों में भी दंडवत प्रणाम। गुरु महाराज ने बोलना प्रारंभ कर दिया था। ऐसा लग रहा था कि मैं गुरु महाराज से ही जप टॉक सुनूँ। एक तो गुरु महाराज मायापुर में हैं। जब नवद्वीप का दृश्य देख रहे थे, मानसिक रूप से योगपीठ पहुंच गए थे। लग रहा था कि महाराज जी जारी रखेंगे तो अच्छा होगा। लेकिन शायद आपका और मेरा भी इतना सौभाग्य नहीं। क्षमा चाहता हूं। मैं आपको कुछ बताने का प्रयास करूंगा परंतु मैं अपने आपको योग्य नहीं समझता लेकिन वैष्णवों और गुरु महाराज की कृपा से प्रयास करूंगा। कल जो हमारी चर्चा हुई, उसमें हमने देखा कि कल हमने गुरु से दीक्षा लेने की महिमा के विषय में सुना। चैतन्य महाप्रभु ने किस प्रकार सन्यास दीक्षा ली और नित्यानंद प्रभु ने भी पंढरपुर में ही दीक्षा ली। हमनें यह भी देखा कि ब्रह्मा जी किस प्रकार दीक्षित हुए। वसुदेव और देवकी के प्रसंग में भी हमने सुना। आज हम चर्चा करेंगे कि गुरु से हरि नाम तो प्राप्त हो जाता है..। यह भी हमने सुना कि हरि नाम ही हरि है। जैसे कि पदम् पुराण में वर्णन आता है- *नाम चिंतामणिः कृष्णश् चैतन्य-रस-विग्रहः। पूर्ण: शुद्धो नित्य- मुक्तोअभिन्नत्वान्नाम-नामिनोः।।* ( पदम् पुराण) अर्थ:- कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनंद में है, यह सभी प्रकार के अध्यात्मिक वरदान देने वाला है। क्योंकि यह समस्त आनंद का आगार अर्थात स्वयं कृष्ण है। कृष्ण का नाम पूर्ण है यह सभी दिव्य रसों का स्वरूप है। यह किसी भी स्थिति में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से किसी तरह कम शक्तिशाली नहीं है। चूंकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से कलुषित नहीं होता, अतएव इसका माया में लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कृष्ण का नाम सदैव मुक्त तथा आध्यात्मिक है, यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध नहीं होता। ऐसा इसलिए है क्योंकि कृष्ण- नाम और स्वयं कृष्ण अभिन्न है। कृष्ण का नाम ही चिंतामणि है, भगवान का नाम ही चैतन्य रस विग्रह है। जब हम भगवान का नाम लेते हैं तब भगवान का रूप ही प्रकट होता है, उसको थोड़ा समय लगता है। हमने यह गुरु महाराज के मुख से बार-बार सुना है। नाम से धाम तक की चर्चा होती ही रहती है। नाम जो है वह धाम तक पहुंचा देता है और साथ ही साथ यह भी समझना है कि जब कोई जीव या भक्त भगवान का नाम लेता है तब भगवान उसके सामने नाम के माध्यम से अपना धाम भी प्रकाशित कर देते हैं। भगवान् के नाम में इतनी महिमा है, इतनी शक्ति है। हरि नाम प्रभु कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है। हरि नाम प्रभु स्वयं कृष्ण ही हैं। हम फिर हरिनाम प्रभु ही क्यों कहते हैं? कृष्ण क्यों नहीं कहते। हरि नाम प्रभु कृष्ण ही है लेकिन एक दृष्टि से हरिनाम प्रभु ने अपने आप को छुपा कर रखा है। जो साधक अथवा भक्त है उसकी तीव्रता के अनुसार वह अपने अपने आप को धीरे धीरे प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार भागवतम में जो 12 स्कंध हैं, वह तो पूरे कृष्ण ही हैं। भगवान के चरण कमल मतलब भागवतं के पहले दो स्कन्ध हैं। इस प्रकार पूरा भागवतम भगवान् की वांग्मय साक्षात मूर्ति हैं। भागवत ही भगवान् है, हम तुरंत एकदम शास्त्रों को लेकर नहीं पढ़ सकते। हम धीरे-धीरे क्रमश: चरणों से प्रारंभ करते करते मुख पहुंचते हैं। इसी प्रकार जब हम भगवान का नाम लेने लगते हैं। हरि नाम प्रभु स्वयं कृष्ण ही हैं, वे धीरे धीरे अपने आप को प्रकाशित करते हैं। यह हमारे ऊपर है कि हम कितनी तीव्रता से हरि नाम का उच्चारण करते हैं। यह हमारे ऊपर ही नहीं केवल अपितु गुरुजनों और वैष्णवों की कृपा के ऊपर निर्भर है। अगर हम पूर्ण रूप से समर्पित भाव से नामजप कर रहे हैं। जैसे एक बार श्रीमान जननिवास प्रभु से मायापुर में कुछ वर्ष पूर्व बात हो रही थी, मैंने उनसे कुछ प्रश्न किए। उन्होंने कहा कि हम सब हरिनाम के सेवक हैं। हम जप और कीर्तन करके उनकी सेवा करते हैं। उन्होंने कहा कि हमारे अंदर बहुत सारे दुर्गुण या अनर्थ हैं, हरि नाम ही स्वयं अपने आप को प्रकाशित करते हुए हमारे अंदर दिव्य गुणों को प्रकट करेंगे। इसलिए हमें चिंता नहीं करनी है, नाम ही चिंतामणि है। हमें चिंता नहीं करनी है, चिंतामणि मतलब हमारी इच्छाओं की पूर्ति करने वाला नाम है। इसलिए हरिनाम प्रभु तभी अपने आप को प्रकाशित करेंगे जब कोई साधक बहुत तीव्रता से उनका स्मरण करेगा, उनकी सेवा करेगा। यह तभी होगा, जब नाम का उच्चारण पूर्ण आदर के साथ और श्रद्धा के साथ उसका उच्चारण किया जाएगा। जैसे जैसे रूप गोस्वामी उपदेशामृत में बताते हैं *स्यात्कृष्णनामचरितादिसिताप्यविद्या पित्तोपतप्सरसनस्य न रोचिका नु किन्त्वादरादनुदिनं खलु सैव जुष्टा स्वाद्वी क्रमाद्भवति तद्गदमूलहन्त्री ॥* (उपदेशामृत ७) अनुवाद:- कृष्ण का पवित्र नाम, चरित्र, लीलाएं तथा कार्यकाल सभी मिश्री के समान आध्यात्मिक रूप से मधुर हैं । यद्यपि अविद्या रूपी पीलिया रोग से ग्रस्त रोगी की जीभ किसी भी मीठी वस्तु का स्वाद नहीं ले सकती, लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि इन मधुर नामों का नित्य सावधानी पूर्वक कीर्तन करने से उसकी जीभ में प्राकृतिक स्वाद जागृत हो उठता है और उसका रोग धीरे - धीरे समूल नष्ट हो जाता है । श्री रूप गोस्वामी बताते हैं कि हमारा भगवान् के नाम, रूप, गुण लीला में वास्तविक रूप से अनुराग उत्पन्न होना चाहिए लेकिन पित्तोपतप्सरसनस्य न रोचिका नु अर्थात हमारे अंदर जो पित्त रोग अर्थात पीलिया है, उसके कारण हमारी नाम में रुचि उत्पन्न नहीं हो रही है। वास्तव में नाम में बहुत मिठास है। नाम बहुत मीठा है लेकिन हमारी इतनी श्रद्धा या रुचि नहीं है, इसलिए नाम में हमारी रुचि नही है लेकिन हमें नाम लेते रहना है। हमें नाम आदर पूर्वक नाम लेना है, श्रद्धा के साथ लेना है। जैसे हमने सुना है नाम ही भगवान है, नाम और भगवान में कोई अंतर नहीं। अगर हम उस भाव से जप करते हैं तब भगवान बड़े प्रसन्न होते हैं। अनुदिनं। यह एक-दो दिन की बात नहीं है। हर दिन करना है। एक बार एक भक्त था, उसने अपने हाथ में जपमाला अथवा जप थैली रखी थी। फिर एक चोर आ गया, चोर ने देखा कि भक्त के हाथ में एक थैली है। उसने सोचा थैली में क्या होगा ? शायद कुछ खजाना होगा। चोर चोरी करने के लिए तुरन्त ही जप थैली लेने लगा। चोर जप थैली खींचने लगा। तब भक्तों को पता लगा वह चिल्लाने लगा, कहा कि क्यों चोरी कर रहे हो? इसमें कुछ नहीं है। यह क्यों चोरी कर रहे हो। चोरी करने के लिए और भी चीज़े हैं। इसमें तो मेरी माला है लेकिन चोर ने फिर भी छीन ली। चोर ने कहा कि मुझे पता है कि यह जो जप की थैली है, इसमें आप माला रखते हो लेकिन साथ ही साथ बहुत सारी चीजें इसमें होती है। इसमें मोबाइल भी होता है, पैसे भी होते हैं, आधार कार्ड भी होता है। सब कुछ इसमें रखा होता है। इसलिए मैं आजकल इधर-उधर चोरी नहीं करता हूं। आप जैसे भक्त माला लेकर घूमते रहते हैं।आसानी से मैं उनकी जपथैली छीन लेता हूँ। बहुत बार इसमें माला भी नहीं होती, इस प्रकार मुझे आसानी हो जाती है कि कोई ज़्यादा प्रयास नहीं करना पड़ता। रात में ताला तोड़कर यह करो, वह करो उससे अच्छा है कि जपथैली ले लो। मुझे हरे कृष्ण भक्त बहुत अच्छे लगते हैं। इसलिए नहीं कि वे जप करते हैं अपितु इसलिए कि वे जप थैली में सारी चीजें रखते हैं और मेरा आसानी से गुजारा हो जाता है। देखिए! भक्तों की उन पर कितनी कृपा है। यह आदरार्थ अर्थात आदर के साथ नहीं हुआ है। आजकल माला की जप थैली में चैन भी लगी होती है। पहले इसमें चैन नहीं हुआ करती थी लेकिन अब इसमें चैन हुआ करती है। हम इसमें बहुत कुछ रख सकते हैं, अलग से जेब रखने की जरूरत नहीं है। जप थैली की चैन में रखेंगे तो लगता है कि सुरक्षित है। लेकिन उससे माला के प्रति जो आदर की भावना होनी चाहिए, वह नहीं रहती है। आजकल अलग-अलग प्रकार के जप भी होते हैं जैसे मोबाइल जप, टी.वी. जप आदि। उसका भी रिसर्च होता ही रहता है। आदर की जो बात हो रही है, अगर उसकी दृष्टि से देखा जाए तो जपमाला पवित्र है। तुलसी की माला की (अगर दीक्षित भक्त हैं) बाहर जो थैली है, बहुत बार देखा गया है, उसको साफ नहीं किया जाता है। कपड़ें साफ सुथरे पहन लेते हैं लेकिन बीड बैग इतना साफ सुथरा नहीं रहता है। मैंने देखा है कि कुछ भक्त उसको प्रतिदिन चेंज करते रहते हैं। जैसे तुलसी को हर दिन ड्रेस पहनाई जाती है और उसी तरह वो थैली हमारी जपमाला की ड्रेस ही है। यदि उसको बदलेंगे नहीं या गंदा रखेंगे तो हम में आदर के साथ जप करने की भावना इतनी नहीं आएगी, इसलिए जप थैली को भी साफ सुथरा रखना चाहिए। इससे एक आदर की भावना बढ़ने में सहायता होगी। दूसरा हमें अनुदिनम प्रतिदिन करना है। ऐसा नहीं है कि कभी कभी माला और कभी नहीं। ऐसे नहीं अपितु प्रतिदिन करना है। आज किया है तो कल भी करना है, प्रतिदिन करते रहना है। एकांत में जप करना .. एकांत शब्द के दो अर्थ है। एकान्त शब्द के दो अर्थ हैं। एक- जहां कोई भी न हो, वहां एकांत है। निश्चित ही यह ध्यान योग के लिए कहा जा सकता है लेकिन असली भक्ति योग में भक्तों के लिए एकांत अर्थात एक अंत। ऐसे लोग जिनका एक ही अंत या एक ही उद्देश्य है। कृष्ण प्रेम प्राप्त करना, भगवान् को प्राप्त करना। उस दृष्टि से भी भक्तों के सङ्ग में जप करना ही एकांत है। बहुत बार क्या होता है कि एकांत स्थान में जाकर बैठेंगे, भक्त तो वहां पर हैं लेकिन हम अकेले कही पर जप करते हैं। उससे भक्तों के प्रति हमारे अंदर आदर की भावना कम होने लगती है। हमें लगता है कि मुझे इनकी कोई आवश्यकता नहीं, मैं अकेले में भी जप कर सकता हूँ। लेकिन वह हम साधकों के लिए नहीं बताया गया है। हरिदास ठाकुर हैं, उनकी बात अलग है। वे तो ऊंचे स्तर के हैं, हमें नकल नही करनी चाहिए। हम देखते हैं कि गुरु महाराज बार बार ज़ूम पर पूछते रहते हैं कि वो नहीं आया, वो कहां है? हमें बार बार दिखाते रहते हैं, स्वयं देखते हैं। हमें स्क्रीन पर दिखाते रहते हैं जिससे सब भक्तों को भी पता लगता है कि यह भक्त जप कर रहा है। इससे गुरु महाराज की कृपादृष्टि व कृपा वृष्टि दोनों हो जाती है। इसलिए हमें ज़ूम में आकर जप करना बहुत जरूरी है। विशेष रूप से यह गृहस्थों के लिए और भी वरदान है क्योंकि देखते हैं कि हर घर में जप करने वाला होता ही है। कुछ जप करते हैं, कुछ नहीं करते हैं। कुछ जप तो कुछ गप करते रहते हैं। इसलिए अगर वे ज़ूम के साथ हैं, तब वो जप करेंगे। ज़ूम पर नही करेंगे, तब झूमते हुए जप करेंगे, वह अच्छा नहीं है।इसलिए ज़ूम पर जप करना बहुत जरूरी है, इससे गुरु महाराज बड़ें प्रसन्न हो जाते हैं। देखिए अभी भी उन्होंने कहा कि मैं जा रहा हूँ लेकिन आप अभी यहां रहो और जप करते रहो। गुरु महाराज को यह अच्छा नहीं लग रहा है कि मैं यहां नही हूँ तो ये जप नहीं कर रहे हैं। जब गुरू महाराज का स्वास्थ्य अच्छा नही था, तब गुरू महाराज कहते थे कि मैं प्रसन्न तभी हूंगा जब मैं वहां नहीं हूं तब भी आप जप कर रहे हो। भक्तों के सङ्ग की महिमा विशेष है, भक्तों के सङ्ग में लाभ क्या होता है। अन्य भक्तों की जो शुद्धता है, उसका हमें भी लाभ होता है। हमारी भी प्रगति होती है, हमारा एडवांसमेंट होता है। इसलिए बहुत जरूरी है कि भगवान् के भक्तों के सङ्ग में भगवान् और भक्तों की प्रसन्नता के लिए जप करना, इससे हमारे ऊपर हरि नाम प्रभु की विशेष कृपा होती है। जैसे जो प्रचेता गण जो राजा दक्ष के दस पुत्र थे, उनका एक ही नाम था प्रचेता क्योंकि जो दस के दस भाई थे, वह हर समय साथ रहते थे। केवल साथ ही नहीं रहते थे अपितु उनके विचार, उनका भक्ति भाव भी एक ही जैसा था। उन पर शिवजी की विशेष कृपा हो गई। शिव ने मंत्र दिया और मंत्र का उच्चारण करके वे पानी में तपस्या भी कर रहे थे, नाम जप भी कर रहे थे। उन्होंने यह सब एक साथ किया। ऐसा नहीं था कि मैं इधर बैठूंगा, मैं उधर बैठूंगा। सभी साथ में थे। सभी साथ में बैठकर भगवान के नामों का उच्चारण करते, तपस्या करते, भगवान् के नाम का चिंतन कर रहे थे। शिव जी ने कहा भी था कि जो मंत्र मैंने दिया उसका उच्चारण करने से बहुत जल्दी ही आपको भगवान के दर्शन होंगे और ऐसा हुआ भी। भगवान, अष्टभुजा विष्णु का रूप धारण करके गरुड पर सवार होकर वहां पर प्रेचताओं के सामने आ गए। प्रेचताओं ने उन्हें दंडवत किया। विष्णु भगवान उन से बहुत प्रसन्न थे। भागवत में वर्णन है:- श्रीभगवानुवाच *वरं वृणीध्वं भद्रं वो यूयं मे नृपनन्दनाः । सौहार्देनापृथग्धर्मास्तुष्टोऽहं सौहृदेन वः ॥* ( श्रीमद भागवतं 4.30.8) अर्थ:- भगवान् ने कहा है- राजपुत्रो, मैं तुम लोगों के परस्पर मित्रतापूर्ण सम्बन्धों से अत्यधिक प्रसन्न हूँ । तुम सभी एक ही कार्य- भक्ति - में लगे हो । मैं तुम लोगों की मित्रता से इतना अधिक प्रसन्न हूँ कि मैं तुम्हारा कल्याण चाहता हूँ अब तुम जो वर चाहो माँग सकते हो । भगवान दो बार सौहृद शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। आपके बीच में मित्रता या प्रेम का व्यवहार है, मैं उससे ज्यादा प्रसन्न हूं। आपने मेरी भक्ति की इसके लिए तो मैं प्रसन्न हूं ही उसमें कोई संदेह नहीं लेकिन आप सब जो मिलकर एक साथ मेरी भक्ति कर रहे हो, इससे मैं ज्यादा प्रसन्न हूं। इसलिए भगवान वरदान देते हंँ जोकि हम सभी के लिए वरदान है। भगवान कहते हैं जो कोई प्रतिदिन संध्या के समय आपका स्मरण करता है, वह भी आपकी तरह ही अन्य भक्तों के साथ मिलजुल कर रह सकता है। इसलिए प्रतिदिन शाम को प्रेचताओं का स्मरण करने से हम अन्य भक्तों के साथ प्रेम पूर्ण व्यवहार कर सकते हैं। इसलिए बहुत जरूरी है। कभी-कभी अकेले कहीं बैठे हैं और भक्तों का समय भी नहीं है, ज़ूम का समय भी नहीं है। सुबह का जप पूरा नहीं हुआ है। कुछ मालाएं शेष हैं, उस समय कहा भक्तों को बुलाएंगे। ज़ूम का तो दुबारा सेशन नहीं होता है। आपने परम पूज्य भक्ति विशंभर माधव स्वामी महाराज का नाम सुना होगा। वह हर समय तुलसी के विषय में ही बताते रहते हैं, जब मैं मायापुर में था कुछ साल पहले, उनके एक शिष्य थे।उनका कुछ नाम शायद तुलसी सुदामा भजन था। उनके नाम के साथ भी तुलसी लगा हुआ था लेकिन बता रहे थे मेरे गुरु महाराज बताते हैं कि अगर तुलसी वहां पर नहीं है अगर आप गायत्री या जप कर रहे हो। तुलसी का उच्चारण आप तीन बार करोगे- तुलसी! तुलसी! तुलसी! तब तुलसी वहां प्रकट हो जाती है। हम देख नहीं पाते लेकिन वहां प्रकट होती है। फिर वहां मन ही मन प्रणाम करके तो अगर जप करते हैं तो हमें तुलसी का सानिध्य भी प्राप्त होता है। जैसे परम पूज्य जयपताका स्वामी महाराज जी बता रहे थे कि एक बार अगर हम गंगा जी में स्नान नहीं कर पाते हैं हर रोज या हम गंगाजल से बहुत दूर हैं तो केवल गंगा! गंगा! गंगा !तीन बार कहने से स्नान करते हैं तो हमें गंगा में स्नान करने का लाभ मिल जाता है। इतना सब हमें दिया गया है। यह जो तुलसी है यह 8400000 योनियों में से एक पौधा नहीं है। यह दिव्य है, भगवान के धाम से आई हुई है। उनके सङ्ग में भी जप कर सकते हैं, देखिए तुलसी की महिमा कितनी है। एक बार भगवान वामन जब बलि महाराज और प्रह्लाद महाराज आए थे बलि महाराज को सूतल लोक में भेज दिया। भेजने के पश्चात वामन भगवान शुक्राचार्य के पास गए। जो कई लोगों के बीच बैठे थे। भगवान! उनसे पूछते हैं आपने जो बलि महाराज को श्राप दिया बताइए उनकी क्या गलती थी और गलती को सुधार करने के लिए क्या किया जा सकता है। कोई यज्ञ आदि कर सकते हैं जिससे उनकी गलती सुधारी जा सकती है, सबको पता ही है कि बलि महाराज की कोई गलती नहीं थी। गलती यह थी कि उन्होंने शुक्राचार्य का पक्ष नहीं लिया। वामन भगवान् का पक्ष लिया। भगवान् ने जब पूछा तब शुक्राचार्य ने कहा- श्रीशुक उवाच *कुतस्तत्कर्मवैषम्यं यस्य कर्मेश्वरो भवान् । यज्ञेशो यज्ञपुरुषः सर्वभावेन पूजितः ॥* ( श्रीमद भागवतम 8.23.15) अर्थ:- शुक्राचार्य ने कहा हे प्रभु ! आप यज्ञ के भोक्ता हैं और सभी यज्ञों को सम्पन्न कराने वाले हैं । आप यज्ञपुरुष हैं अर्थात् आप ही वे पुरुष हैं जिनके लिए सारे यज्ञ किये जाते हैं । यदि किसी ने आपको पूरी तरह संतुष्ट कर लिया तो फिर उसके यज्ञ करने में त्रुटियों अथवा दोषों के होने का अवसर ही कहाँ रह जाता है ? शुक्राचार्य ने कहा कि हे प्रभु आप यज्ञ के भोक्ता हैं और सभी यज्ञ को संपन्न कराने के लिए विधि प्रदाता हैं, आप यज्ञपुरुष हैं। आप ही वे पुरुष हैं, जिनके लिए सारे यज्ञ किए जाते हैं। यदि किसी ने आपको पूरी तरह संतुष्ट कर दिया है फिर उसके यज्ञ करने में त्रुटियों व दोषों के रहने का अवसर ही कहां रह जाता है। भगवान का एक नाम यज्ञ है जो भगवान् को प्रसन्न करता है तब सारे अपने आप प्रसन्न हो जाते हैं। अगले श्लोक में और भी स्पष्ट बता रहे हैं। बहुत सुंदर श्लोक हैं *मन्त्रतस्तन्त्रतश्छिद्रं देशकालार्हवस्तुतः । सर्वं करोति निश्छिद्रमनुसङ्कीर्तनं तव ॥* ( श्रीमद भागवतम 8.23.16) अर्थ:- मंत्रों के उच्चारण तथा कर्मकाण्ड के पालन में त्रुटियाँ हो सकती हैं देश काल , व्यक्ति तथा सामग्री के विषय में भी कमियाँ रह सकती हैं। किन्तु भगवन् ! यदि आपके पवित्र नाम का कीर्तन किया जाए तो हर वस्तु दोषरहित बन जाती है । मंत्रों के उच्चारण और कर्मकांड के पालन में त्रुटियां हो सकती हैं। सही मंत्र का उच्चारण नहीं हुआ या गलती हो गई। फिर से क्या करना पड़ता है? गलती हो गई तो दोबारा करना पड़ेगा लेकिन बता रहे हैं देशकाल, व्यक्ति, सामग्री के विषय में भी कमियां रह सकती हैं। सामग्री ठीक नहीं है शुद्ध नहीं है। घी नकली है। गाय का लिखा लेकिन गाय का नहीं है। भैंस का मिला हुआ है आदि लेकिन हे भगवन! यदि आप के पवित्र नाम का कीर्तन किया जाए तो हर वस्तु दोष रहित बन जाती है। वे स्वीकार कर रहे हैं कि बलि महाराज की कोई गलती नहीं है। प्रभुपाद तात्पर्य में लिखते हैं कि वास्तव में शुक्राचार्य स्वीकार कर रहे हैं कि मुझे शाप नहीं देना चाहिए था। मैंने गलती से शाप दिया है। गलती मेरी है। बलि मेरा ही शिष्य था, उसकी कोई गलती नहीं थी। आपका नाम लेने से क्या हो जाता है जहां कोई छिद्र बने हुए हैं, त्रुटियां हैं, वह मिट जाती है। इसलिए भगवान के नामों का उच्चारण करना बहुत जरूरी है। हमारा बड़ा सौभाग्य है कि हम ऐसे गुरु शिष्य परंपरा से जुड़े हुए हैं जो भगवान से परम्परा निकलती है। ब्रह्म मध्व गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय। हमें ऐसे गुरु महाराज प्राप्त हुए हैं जो हर समय विश्व में हरिनाम की ध्वजा को फहराते रहते हैं। हरिनाम की कितनी महिमा और हजारों भक्तों के संग में जप करते हैं, अपना संग प्रदान करते हैं। आज के कलियुग के समय में यह चीज मुश्किल है। गुरु महाराज अपना सङ्ग स्वयं प्रदान करते हैं, उनके संग में जप करने का हमें एक विशेष लाभ प्राप्त होता है। जैसे गीता में भगवान बताते हैं *सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||* अर्थ:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत । सारे धर्मों का त्याग कर मेरे अखिल की शरण में आओ। मामेकं है, यह कलयुग के लिए क्या हो जाएगा? वैसे हमें चेंज करने का अधिकार नहीं है। मामेकं का मतलब नामेंकं नाम का ही आश्रय अर्थात भगवान का आश्रय। भगवान का आश्रय या नाम का आश्रय कुछ अलग है क्या? वही है- अभिन्नत्वान्नाम- नामिनोः अर्थात नाम और नामी में कोई अंतर नहीं है। इसलिए कहते हैं कि हमें नाम का आश्रय लेना चाहिए। भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं कि *जीवन अनित्य जानह सार ताहे नाना-विध विपद-भार। नामाश्रय करि’ यतने तुमि, थाकह आपन काजे॥* अर्थ:-निश्चित रूप से इतना जान लो कि एक तो यह जीवन अनित्य है तथा उस पर भी इस मानव जीवन में नाना प्रकार की विपदाएँ हैं। अतः तुम यत्नपूर्वक भगवान् के पवित्र नाम का आश्रय ग्रहण करो तथा केवल जीवन निर्वाह के निमित अपना नियत कर्म या सांसारिक व्यवहार करो। आपको जो नाम का आश्रय प्राप्त हुआ है उसको अच्छी तरह से रखो। जैसे कोई कीमती वस्तु होती है, हम उसको कितना हिफाजत से रखते हैं ना? इसी प्रकार यह नाम कोई साधारण नाम नहीं है। यह नाम गोलोक वृंदावन से आया है। पंच तत्व- चैतन्य महाप्रभु, नित्यानंद प्रभु, अद्वैत आचार्य, गदाधर पंडित श्रीवास ठाकुर इसको कहां से लेकर आए। *सेइ पञ्च- तत्त्व मिलि' पृथिवी आसिया। पूर्व- प्रेमभाण्डारेर मुद्रा उघाड़िया।।* *पाँचे मिलि लुटे प्रेम, करे आस्वादन।य़ते य़त पिये, तृष्णा बाढ़े अनुक्षण।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 7.20-21) अनुवाद:- कृष्ण के गुण दिव्य प्रेम के आगार माने जाते हैं। जब कृष्ण विद्यमान थे, तब यह प्रेम का आगार निश्चय ही उनके साथ आया था, किन्तु वह पूरी तरह से सीलबंद था। किंतु जब श्रीचैतन्य महाप्रभु अपने पंचतत्व के संगियों के साथ आये, तो उन्होंने दिव्य कृष्ण- प्रेम का आस्वादन करने के लिए कृष्ण के दिव्य प्रेमगार की सील तोड़कर उसे लूट लिया। वे ज्यों ज्यों उसका आस्वादन करते गए, त्यों त्यों और अधिक आस्वादन करने की उनकी तृष्णा बढ़ती ही गई। यह जो पंचतत्व है, गोलोक वृन्दावन में पहुंच गए और उन्होंने कृष्ण प्रेम का भंडार ढूढं निकाला। ताला तोड़कर कृष्ण प्रेम को उन्होंने लूटा, आस्वादन करके पूरी पृथ्वी पर फैला दिया। हम भी उनमें से एक हैं जिन्हें यह हरिनाम प्राप्त हुआ है। हमें हरिनाम प्राप्त है और हरिनाम ही कृष्ण प्रेम है, लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि जो इसका अनुभव है, वह हमें नहीं हो पा रहा है क्योंकि हम अनादि काल से भगवान् से बिछड़े हुए हैं। जैसे गुरु महाराज बार बार बताते रहते थे।मुझे स्मरण हो रहा है कि महाराष्ट्र में एतरगंज नामक एक स्थान है। वहां पर एक हनुमानजी का मंदिर है, वहां गुरु महाराज का प्रवचन हो रहा था। पहली बार श्री गुरु महाराज के मुख से सुना कि हरे कृष्ण महामन्त्र ही भगवान् है। पहली बार उनके मुख से सुना कि महामन्त्र ही भगवान् है। जैसा कि थोड़ा समय पहले हमने कहा कि आदर के साथ जप करने के लिए यह बहुत सहायता होती है कि हरे कृष्ण महामन्त्र भगवान् ही है। हम में एक आदर की भावना उत्पन्न होती है। कुछ दिन पहले मायापुर में किसी फ़ोन मोबाइल कंपनी के बड़ें पोस्टर लगे हुए थे, वहां उन्होंने उसमें हरे कृष्ण महामन्त्र लिखा था, उसमें राधा कृष्ण का चित्र था, फिर हरे कृष्ण का चित्र था। फिर राधा माधव.. भक्ति के जो मार्ग हैं, वे पूरे मार्ग थे। भक्ति विनोद ठाकुर का जो गोद्रुम द्वीप में स्थान है, वहां गुरु महाराज प्रवचन कर रहे थे। गुरु महाराज ने कहा कि आपने देखा है, जो पोस्टर वहां लगे थे, उसमें महामन्त्र था और राधा कृष्ण थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह हरे कृष्ण महामन्त्र है, वही राधा कृष्ण है। जो राधाकृष्ण है, वही हरे कृष्ण महामन्त्र है। इंग्लिश में बता रहे थे, हरे कृष्ण महामन्त्र इज नोट डिफरेंट फ्रॉम राधा कृष्ण। हरे कृष्ण महामन्त्र का उच्चारण कर रहे हैं, उसका अर्थ है कि हमें राधा कृष्ण का भी सानिध्य व सङ्ग प्राप्त हो रहा है, वह अभिन्न है। बाद में जब गुरु महाराज पंढरपुर में आये थे। उस समय चलते चलते कहा कि हरे कृष्ण महामन्त्र ही कृष्ण प्रेम है। हम हरिनाम का उच्चारण कर रहे हैं, एक दृष्टि से हमें प्रेम प्राप्त हुआ लेकिन प्रेम अंदर है। वो बाहर नहीं आ रहा है। बाहर प्रकट नहीं हो रहा है, यह प्रेम का संकीर्तन है, यह प्रेम नाम है, प्रेम देने वाला नाम है। इसके सन्दर्भ में मैं कुछ एक दो मिनट में ही बताउंगा। समय बहुत हो रहा है। एक बार राजा प्रताप रुद्र, जगन्नाथ पुरी में अपने महल में थे। उसी समय सार्वभौम भटटाचार्य वहां पर आ गए। उनकी वहां आपस में बातचीत हो रही थी। कुछ समय बाद गोपीनाथ आचार्य वहां पर आ गए। गोपीनाथ आचार्य ने उनको सन्देश दिया कि अभी जो बंगाल से भक्त आए हैं, वे अथराहनाथ तक पहुंच गए है। वहाँ से थोड़ी देर में यहां पर भी आएंगे। राजा ने सार्वभौम भटटाचार्य से कहा मैं उन भक्तों को नहीं जानता पर मेरी इच्छा है कि उनका नाम जानू। अच्छा होगा कि उनसे मेरी पहचान हो जाए। सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा कि मुझ से अच्छा तो गोपीनाथ आचार्य है, जो उन सबको अच्छे से जानते हैं क्योंकि वे वहां से आए हैं। गोपीनाथ आचार्य ने कहा- ठीक है, हम छत पर जाएंगे। वे फिर महल की छत पर पहुंच गए। तत्पश्चात राजा प्रताप रुद्र पूछने लगे कि यह कौन है? यह कौन दिख रहा है? गोपीनाथ ने कहा कि यह स्वरूप दामोदर है, यह गोविंद है। बहुत सारे भक्त थे, सबके नाम बताए, गोपीनाथ ने कहा कि इतने सारे भक्त, यह पूरा भक्तों का मेला है। मैं किन किन का नाम बताऊं आपको। राजा सबको देख रहे थे। तब राजा ने कहा- *कोटि सूर्य सम सब उज्ज्वल- वरण।कभू नाहि शुनि एइ मधुर कीर्तन।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला ११.९५) अर्थ:- सचमुच, उनका तेज करोडों सूर्यो के समान है। न ही मैंने इसके पूर्व कभी भगवन्नाम का इतना मधुर कीर्तन होते सुना है। इनका जो वरण है, इतना उज्जवल दिख रहा है। करोडों सूर्य की जो प्रभा है, वो भी इनके तेज के सामने फीकी पड़ रही है। फिर वे कहते हैं कि ऐसा मधुर कीर्तन तो मैंने सुना ही नहीं। *ऐछे प्रेम, ऐछे नृत्य, ऐछे हरि- ध्वनि।काहाँ नाहि देखि, ऐछे काहाँ नाहि शुनि।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 11.96) अर्थ:- मैंने न तो कभी ऐसा प्रेमभाव देखा है, न भगवान् के नाम का इस तरह कीर्तन होते सुना है, न ही संकीर्तन के समय इस प्रकार का नृत्य होते देखा है। ऐसा नृत्य, ऐसा प्रेम!! राजा कहते हैं कि मैंने बहुत सारे स्थानों में कीर्तन सुना है पर ऐसी मधुर ध्वनि मैनें कभी नहीं सुनी। तब भट्टाचार्य कहते हैं कि *भट्टाचार्य कहे एइ मधुर वचन। चैतन्येर सृष्टि- एइ प्रेम- संकीर्तन।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 11.97) अर्थ:- सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, यह मधुर दिव्य ध्वनि महाप्रभु की विशेष सृष्टि है, जो प्रेम-संकीर्तन कहलाती है।" उन्होंने बड़ी मधुरता से कहा यह कोई साधारण जगत नही है। यह चैतन्य महाप्रभु की दुनिया है। यह जो कीर्तन मंडली है, यह सब उनकी सृष्टि के लोग हैं। यह प्रेम संकीर्तन है, भगवान् का नाम क्या है- जो हमें गुरु शिष्य परंपरा से प्राप्त होता है। यह कोई साधारण नाम नही है, यह प्रेम नाम है, यह प्रेम संकीर्तन है। इसलिए जैसे जैसे कोई गम्भीरता से नाम लेता है, उसे भी वह प्रेम प्राप्त होगा जो प्रेम सभी जीवों को प्राप्त हुआ है। चैतन्य महाप्रभु ने सबको प्रेम बांटा, उन्होंने पहले ही बांट कर रखा है। हमें वह मांगना चाहिए, हमें एक भिक्षुक बनना चाहिए कि आपने सब को प्रेम बांटा लेकिन हम क्यों अभी तक वंचित हैं। आप तो पतित पावन हैं, इसलिए आप इस प्रेम को हमें प्रदान कीजिए जिससे आपका पतित पावन नाम और भी ज़्यादा उजागर हो जाए। जो व्यक्ति योग्य नहीं था, आपने फिर भी प्रेम दिया अर्थात आप वास्तव में पतित पावन हैं। ऐसे में वैष्णवों के चरणों में, गुरु के चरणों में प्रार्थना करनी चाहिए जिससे इसका जो स्वाद है, उसका हम वास्तव में अनुभव कर सकें। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* आप सभी का धन्यवाद। आपने ध्यान से सुना। हरे कृष्ण। दण्डवत प्रणाम!

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