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*जप चर्चा* *02-03-2022* *भगन्नाम की महिमा* (श्रीमान वेदांत चैतन्य प्रभु द्वारा) हरे कृष्ण सबसे पहले मैं परम पूजनीय गुरु महाराज के चरणों में दंडवत प्रणाम करता हूं और उसके पश्चात उपस्थित समस्त वैष्णव भक्तों के चरणों में दंडवत प्रणाम करता हूं। आज के दिन पदमालि प्रभु ने जपा के विषय में ही चर्चा करने के लिए आज्ञा दी है तो आज हम जप के विषय में ही कुछ बातें करेंगे। *ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।* *श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले । स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।* *नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने ।* *नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥* *श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु नित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द।।* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* आज अपराधों से बचने के लिए ही चर्चा करने के लिए हमें बताया गया है किस प्रकार हम जप में अपराधों से बच सकते हैं। आचार्य हमेशा हमें बताते ही हैं कि हमें किस प्रकार का जप करना चाहिए। *अपराध शून्य होए लहो कृष्ण नाम* भगवान का नाम अपराध शून्य हो कर लेना चाहिए। इस प्रकार से 10 प्रकार के नाम अपराध के विषय में तो सब लोग जानते ही हैं और इन 10 नाम अपराधों का जो मूल है वो बे ध्यान नाम जप है। इस बे ध्यान नामजप के कारण ही अन्य अपराध होने लगते हैं। तो किस प्रकार से हम इस मूल बे ध्यान नाम जप से बच सकते हैं इसके विषय में हम बताएंगे क्योंकि यदि नाम लेते वक्त व्यक्ति नाम जप ध्यान से करे तो बाकी समय पर भी वह अपने समस्त कार्यों को ध्यान पूर्वक कर सकेगा। अपराधों से अपने आप को बचाते हुए इसलिए ध्यान पूर्वक जप करने के विषय में बहुत ज्यादा जोर दिया जाता है और इसी ध्यान पूर्वक जप के संदर्भ में चर्चा करना है। वैसे ध्यान पूर्वक जप करना इसके विषय में हम कई प्रकार के सेमिनार सुनते हैं, लोग कई प्रकार के प्रयास करते हैं, कोई भगवान के चित्र को देखकर ध्यान पूर्वक जप करने का प्रयास करता है, कोई हरे कृष्ण महामंत्र लिखा हुआ है एक पर्चे को लेकर फिर उसे देखकर जप करने का प्रयास करता है प्रकार अलग-अलग तरह से लोग प्रयास करते हैं। लेकिन बात यह है भगवत गीता के अंदर स्वयं भगवान यह बताते हैं कि ध्यान पूर्वक जप करना असंभव है। क्यों ? बद्ध अवस्था में यह असंभव है क्योंकि भगवत गीता के दूसरे अध्याय में भगवान कहते हैं। *भोगैश्र्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् | व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ||* (श्रीमद्भगवद्गीता २. ४४ ) अनुवाद- जो लोग इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्र्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने से ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं, उनके मनों में भगवान् के प्रति भक्ति का दृढ़ निश्चय नहीं होता | समाधि नहीं लगने वाली है जब तक भोग और ऐश्वर्य के प्रति आसक्ति रहेगी और हमारी आसक्ति ही हमारे ध्यान को डायवर्ट करती है क्योंकि आपकी किस चीज के प्रति आसक्ति है यह आपको कैसे पता लगेगा? जब भी आप भगवान का नाम जप करने लगते हो तो जहां जहां आपका मन जा रहा है वहां वहां आपकी आसक्ति है। इस प्रकार से हमारी आसक्ति हमारा ध्यान नहीं लगाने देगी और जब तक आसक्ति रहेगी तब तक व्यक्ति ध्यान पूर्वक जप नहीं कर सकता। फिर ऐसी अवस्था में हम क्या करें ? जब तक हम ध्यान पूर्वक जप नहीं करेंगे तब बाकी अपराध होने लग जाएंगे और जब बाकी अपराध होंगे तो नाम के प्रति इतनी रुचि नहीं बढ़ेगी। इस अवस्था में हमें क्या करना चाहिए ध्यान पूर्वक जप करना तो संभव नहीं है किंतु ध्यान पूर्वक जप करने का प्रयास करना यह हमारे लिए संभव है और यही बात हमारे लिए है। अर्थात "प्रयास" हमारे लिए है और वह भी यदि व्यक्ति नहीं करता है फिर उसे नाम अपराध माना जाता है। एक जपा रिट्रीट के अंदर महात्मा प्रभु बताते हैं महात्माओं को, यदि आपको पता चलने के बाद भी आपका ध्यान पूर्वक जप नहीं हो रहा है और इस बात का पता चलने पर भी यदि व्यक्ति ध्यान पूर्वक जप करने का प्रयास भी नहीं कर रहे हैं तब यह सच में नाम अपराध है। निरंतर प्रयास करते हुए भगवान के नाम के जप का पालन करना, निरंतर प्रयास, इसी को साधना कहा जाता है। यदि व्यक्ति इस प्रकार का प्रयास ही नहीं कर रहा है तो वह साधना कर क्या रहा है. इसलिए हम अपने प्रयास को जारी रखने के लिए बार-बार जप के बारे में सुनते हैं तब हमें अनेक प्रकार की टिप्स इत्यादि मिलती रहती हैं। यदि हम इस प्रकार से करते हैं तो इससे हमारा नाम में और अधिक ध्यान लगेगा और ये और अधिक बेहतर होगा। इस प्रकार की बातों को हम अपने जपा के अंदर इंक्लूड करने लगेंगे तब फिर भगवान यह देखने वाले हैं कि हम कितना अधिक गंभीर हैं अपने प्रयासों में, क्योंकि ध्यान पूर्वक जप बद्ध अवस्था में संभव ही नहीं है। केवल हमारी गंभीरता ही हम दिखा सकती है और इसी गंभीरता के विषय में ही एक बार भक्ति सिद्धांत सरस्वती महाराज इस प्रकार से कहते हैं आप केवल भगवान के नाम को अपनी जिह्वा से कहकर पकड़ नहीं सकते और हमारे नाम के प्रति हमारी सेवा भावना देखकर नाम अपने आप प्रकट हो जायेगा अर्थात आपकी जिह्वा भगवान के नाम को नहीं पकड़ सकती किंतु भगवान का नाम हमें पकड़ सकता है। इस प्रकार की गंभीरता के प्रयासों को जब हम करेंगे जिससे भगवान यह देखेंगे और समझेंगे कि वास्तव में यह व्यक्ति बहुत गंभीर है और बहुत प्रयास कर रहा है नाम जप करने के लिए तब फिर मैं प्रकट होता हूं। हमारी सेवा और भावना को देखकर ही भगवान उस नाम में फिर प्रकट होंगे क्योंकि बद्ध अवस्था में रूप गोस्वामी भक्तिरसामृत सिंधु के अंतर्गत इस प्रकार से कहते हैं "मै इंद्रियों की ग्रहण करने की वस्तु नहीं हूं" यह भगवान का नाम भगवान की कथा इत्यादि हमारी भौतिक इंद्रियों जो कि कल्मषों से भरी हुई है वह ग्रहण नहीं कर पाएगी। भक्ति की परिभाषा के अंदर भी इस बात को कहा जाता है। *सर्वोपाधि- विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम्। हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते।।* (चैतन्य चरितामृत मध्य १९. १७०) अनुवाद: - भक्ति का अर्थ है समस्त इंद्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इंद्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान् कि सेवा करता है तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् कि सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इंद्रियां शुद्ध हो जाती हैं। इंद्रियों के निर्मल होने के बाद ही भक्ति शुरू होती है तब जाकर वह भगवान के नाम को सुन पाएगें। तब तक हमें अपनी ओर से गंभीरता से प्रयास जारी रखना चाहिए क्योंकि वह प्रयास ही भगवान देखेंगे और हमारी तरफ से वही भक्ति है। इस प्रयास के संदर्भ में हम आपसे महत्वपूर्ण चर्चा करना चाहेंगे भगवान भगवत गीता के छठे अध्याय के अंतर्गत योगी के विषय में चर्चा करते हैं अष्टांग योग के संदर्भ में ध्यान योग और 7 वे अध्याय से भक्ति योग के विषय में चर्चा शुरू होती है। हम जब जप करेंगे और जब तक व्यक्ति एक योगी की तरह जप करने लगेगा तब तक योग में जितने भी प्रकार के कष्ट का अनुभव होता है अपने मन को संलग्न करने में, उन सभी समस्याओं को हमें अपने जप के अंतर्गत भी देखना पड़ेगा। किंतु जब व्यक्ति भक्त की तरह जप करेगा तब वह उतना मुश्किल नहीं होगा क्योंकि ज्यादातर देखा गया है कि भक्त लोग एक योगी की तरह जप करने का प्रयास करते हैं। योगी मतलब एक व्यक्ति जो जप को केवल मशीनी या मैकेनिकल तौर पर नहीं बोल रहे हैं और सुनने का प्रयास कर रहे हैं और जहां जहां पर मन भाग रहा है वहां वहां से मन को उठाकर ले आता है। कहीं भाग गया मन तो फिर वहां से उठा कर ले आए, कहीं और भाग गया तो वहां से उठा कर ले आए, इस प्रकार से योगी के विषय में भी चर्चा करते हुए भगवान यही बात कहते हैं। *यतो यतो निश्र्चलति मनश्र्चञ्चलमस्थिरम् |ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ||* (श्रीमद्भगवद्गीता ६. २६) अनुवाद-मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में लाए | जहां जहां पर मन भाग जाता है वहां वहां से मन को उठाकर वापस ले आना, व्यक्ति जब इस प्रकार से एक योगी की तरह जप करता है और हमेशा यही प्रयास करता रहता है कि जहां पर भी मन भाग जाता है उसे वहां से उठाकर ले आना है। भगवान के नाम में लगाने का प्रयास करना है। किंतु यहां पर उनके प्रयासों में प्रॉब्लम यही आएगी आप चाहे जितना भी प्रयास करो मन भागता ही रहेगा। किंतु जब भक्तों की तरह से जप करने का डिवोशन होता है, दूसरे अध्याय से छठे अध्याय तक भगवान बताते हैं कि इस भौतिक जगत से किस प्रकार से अपने आप को विरक्त करना है। इसी के विषय में और आत्मज्ञान के विषय में भगवान चर्चा करते हैं। किंतु सातवें अध्याय से भक्ति योग के विषय में चर्चा शुरू होती है इसीलिए दूसरे अध्याय से छठवे अध्याय तक ज्यादातर हमें बहुत विरले ही यह माम मयी इन शब्दों को हम सुन पाते हैं। मुझे समर्पण करो या मेरी भक्ति करो या मेरे ऊपर ध्यान लगाओ या मुझ में मन लगाओ, इस प्रकार की बातें हमें बहुत ही विरले ही सुनने को मिलती है किंतु सातवें अध्याय से 12 वे अध्याय के बीच में हम देख सकते हैं कि लगभग हर श्लोक में यह माम मयि शब्दों का प्रयोग भगवान ने किया है और सातवें अध्याय के पहले इस श्लोक में हम देखते हैं उसमें हमें कैसे जप करना चाहिए। वहां से हमें एक बहुत सुंदर विचार मिलेगा वहां पर भगवान कहते हैं। ” श्रीभगवानुवाच *मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः | असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ||* (श्रीमद्भगवद्गीता ७. १) अनुवाद- श्रीभगवान् ने कहा – हे पृथापुत्र! अब सुनो कि तुम किस तरह मेरी भावना से पूर्ण होकर और मन को मुझमें आसक्त करके योगाभ्यास करते हुए मुझे पूर्णतया संशयरहित जान सकते हो । यहां पर आप योग का अभ्यास करो, कैसे? दो योग्यताओं के साथ, मय्यासक्तमनाः और मदआश्रय : , *मय्यासक्तमनाः* मतलब मुझमें आसक्ति लगाओ, आपके मन को मेरे प्रति आसक्ति के साथ और *मदआश्रय:* मतलब आप की चेतना को मेरे ऊपर लगाकर और आपके मन को मेरे प्रति आसक्ति के साथ किसी भी व्यक्ति को भक्ति योग का अभ्यास करना चाहिए, तो जब यह दो चीजें जप के अंतर्गत जुड़ जाती हैं तब फिर व्यक्ति का मन बहुत आसानी से भगवान के नाम में लग जाता है। इन दोनों चीजों को अपने जप के अंदर कैसे लाना है ? उसके विषय में भी अभी आगे चर्चा करेंगे, किंतु वास्तव में यही दो महत्वपूर्ण योग्यताएं हैं जो कि भक्ति योग को प्राधान्य करती हैं बाकी अन्य योगों से भक्ति योग में यही विलक्षण है कि यह दोनों ही योग्यताएं भक्ति के अंतर्गत आती हैं। भगवान के प्रति आसक्ति के साथ और चेतना को पूर्ण रूप से भगवान के ऊपर संलग्न करना तभी भक्ति योग है नहीं तो भक्ति नहीं है। इस प्रकार से चर्चा करने के उपरांत तो यह बताया जाता है कि यदि एक बूंद के बराबर भी हमारे अंदर गंभीरता होती है तब भगवान उस बूंद को ही ग्रहण करते हैं चाहे हमारे अंदर समुद्र के बराबर भी दोष क्यों ना हो किंतु फिर भी वह बूंद के बराबर हमारी उस गंभीरता को ग्रहण करने के लिए आते हैं। इस जप के दौरान हमें यही भगवान को दिखाना चाहिए कि हम कितने अधिक गंभीर हैं भगवान के नाम जप को लेकर, क्योंकि पूतना के केस में भगवान ने यही देखा। हालांकि पूतना भगवान को विष पिलाने के लिए आई किंतु भगवान ने केवल इसी बात को ग्रहण किया कि "पूतना एक मां की तरह मुझे अपना दूध पिला रही है" इसीलिए तुरंत ही भगवान ने उसे अपनी धात्री की गति प्रदान की। *अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी । लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥* (श्रीमदभागवतम ३. २. २३) अनुवाद -ओह, भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूँगा जिन्होंने उस असुरिनी ( पूतना ) को माता का पद प्रदान किया , यद्यपि वह कृतघ्न थी और उसने अपने स्तन से पिलाए जाने के लिए घातक विष तैयार किया था ? इसी प्रकार की गंभीरता कि हम यहां पर भी चर्चा करते हैं। इस विषय में दसवें अध्याय के आठवें श्लोक में भगवान जहां पर चतुश्लोकी भगवत गीता के विषय में बताते हैं वहां से एक बहुत सुंदर बात आती है। किस प्रकार से हम इन दोनों को जोड़ सकते हैं सातवां अध्याय पहला श्लोक और दसवां अध्याय का आठवां श्लोक उसमें भगवान कहते हैं। *अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ||* (श्रीमद्भगवद्गीता १०. ८) अनुवाद- मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं | जिस प्रकार मूढ़ मतलब मूर्ख होता है बुद्धा मतलब बुद्धिमान उस प्रकार का बुद्धिमान व्यक्ति मेरे विषय में जो संबंध ज्ञान है, जानते हैं कि मैं किस प्रकार से सभी चीजों का स्त्रोत हूं। भावसमन्विता अपने पूर्ण ह्रदय के साथ वह मेरे भजन में लग जाएगा। जो व्यक्ति मेरे विषय में संबंध ज्ञान को जानता है, इस प्रकार से व्यक्ति अपना ह्रदय लगा कर के जब नाम जप करेगा, अपना हृदय लगाने का मतलब यह है कि व्यक्ति मेकेनिकल तौर पर केवल अपने मन को जो बार-बार कहीं भी जाता है वहां से उठाकर ले आने का प्रयास ही नहीं करेगा। एक जप् रिट्रीट के अंदर महात्मा प्रभु यह बात कहते हैं जब तक भावनात्मक तौर पर जुड़ाव नहीं होगा तब तक यह लगने वाला नहीं है। केवल मन से यह नहीं होने वाला है अर्थात जब तक हम भावनात्मक तौर पर भगवान से जुड़ने वाले नहीं हैं तब तक हमारा मन भगवान में संलग्न होने वाला नहीं है। उस जप के अंतर्गत केवल योगी की तरह प्रयास ही है। जब तक जप के अंदर भक्ति का मिश्रण नहीं हो जाता तब तक उसमें भक्ति नहीं होती है। फिर भक्ति योग की जो योग्यताएं हैं वह हमको प्राप्त होने वाली नहीं है। भक्ति योग की विशेषता यही है कि व्यक्ति बहुत आसानी से अपने मन को भगवान में लगा लेता है और यह आसानी से तभी संभव हो पाएगा जब हम अपने जप में भावनाओं के साथ भक्ति को इंवॉल्व करें और यदि भक्ति को इंवॉल्व नहीं करेंगे तब हम बार-बार ऐसे ही प्रयास करते रह जाएंगे मन को पुनः कंट्रोल करने में बहुत दिक्कत होगी। इसीलिए इमोशनल कनेक्ट के विषय में भी या भावनात्मक तौर पर जुड़ने के लिए भी आठवे श्लोक में भगवान कहते हैं भावसमन्विता जिनके अंदर सही में संबंध ज्ञान प्रकट है। *अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते* यदि इस संबंध ज्ञान का व्यक्ति के अंदर पूरी तरह से ज्ञान है तब निश्चित रूप से उनके अंदर इस प्रकार की भावना आनी ही चाहिए क्योंकि तभी जाकर व्यक्ति पूरी तरह से भाव् समन्विता अपने हृदय को भगवान में लगा पाएगा। बाइबल के अंदर भी जीसस क्राइस्ट यह बात कहते हैं। इसी प्रकार से श्रील प्रभुपाद भी इस बात को कहते हैं कि हम अपनी भावनाओं को भगवान के साथ जोड़ेंगे । कैसे इसका क्या तरीका है जिससे कि हम अपनी भावनाओं को भगवान के साथ जोड़ पाए ? इसमें दो बातें होती हैं एक तो सेंटीमेंटल और दूसरा सेंटीमेंट्स, सेंटीमेंटल का अर्थ है व्यक्ति के अंदर किसी भी प्रकार का संबंध ज्ञान नहीं है केवल ऊपरी तौर पर ही वह अपनी भावनाओं को जोड़ने का प्रयास करता है तब यह टिकने वाला नहीं है वह केवल भावुकता है उसको सेंटीमेंटल कहा जाता है, वैसा भावुकता का प्रदर्शन नहीं है। भक्ति में प्रेम का मतलब है कि सेंटीमेंट्स होना ही है क्योंकि उन्हीं सेंटीमेंट्स के कारण ही व्यक्ति अपने प्रेम को प्रकट करता है। जैसे उदाहरण के लिए वैदिक संप्रदाय में एक पत्नी तब तक नहीं खाती थी जब तक पति नहीं खा लेता था यदि मान लीजिए पति को रात में आने में बहुत अधिक लेट हो गया तब तक पत्नी रुकी रहेगी जब तक कि उसका पति भोजन नहीं कर लेता और उसके उपरांत ही वह ग्रहण करेगी। पति को खिला कर फिर अंत में पत्नी खाएगी, इसमें यदि लॉजिकल तौर पर या इंटेलेक्चुअल तौर पर पत्नी को देखें तो इसमें कोई लॉजिक ही नहीं बनता है इनको रुकने की क्या जरूरत पड़ी, खाना बन गया तो परोस कर खा लीजिए। पति जब बाद में आएंगे तब वह अपना खाना परोस करके खा लेंगे इसमें क्या, किंतु यह जो सेंटीमेंट है इससे दोनों के बीच में इमोशनल बॉन्डिंग बनता है और वह बॉन्डिंग ही दोनों के बीच में महत्वपूर्ण है। इस प्रकार से ही सेंटीमेंट्स होते हैं। जबकि सेंटीमेंटल जो होता है उसका कोई आधार नहीं होता वह केवल भावुकता है किंतु सेंटीमेंट का अर्थ यह है जो कि पूर्ण रूप से संबंध ज्ञान के ऊपर आधारित है जब संबंध ज्ञान के आधार पर व्यक्ति अपना संबंध भावनात्मक तौर से भगवान के साथ में बनाएगा तभी यह संभव हो पाएगा जो मैंने कहा, मय्यासक्तमनाः,मदाश्रयः , इस प्रकार से संबंध ज्ञान के आधार पर जुड़ने का क्या महत्व होता है। क्योंकि कई बार लोग सोचते हैं कि इस नाम जप में हमें क्या करना है हमें तो केवल बोलना ही है , लेकिन प्रभुपाद ने केवल इतना ही नहीं कहा, बल्कि प्रभुपाद ने हमको भावनाओं के विषय में भी बताया है जैसे उदाहरण के लिए नाम जप हमें किस प्रकार से करना चाहिए। जैसे कि एक छोटा बच्चा जो है वह अपनी मां को पुकारता है जो अपनी मां को खो चुका है अथवा उसके लिए रोता है उसी प्रकार से व्यक्ति को भी भगवान का नाम पुकारन चाहिए , किंतु प्रश्न फिर यह उठता है कि बच्चा रोएगा कब, अगर उनको यह नहीं पता कि मां के साथ क्या संबंध है? यदि किसी मां के साथ संबंध के विषय में ही जानकारी नहीं है तो वह क्या ऐसी मां के लिए के लिए रोएगा ? कभी कोई भी स्त्री के लिए तो फिर रोने वाला नहीं है। बल्कि जिनके साथ वह अपने मां के संबंध को पहचानते हैं उसी के लिए रोयेगा उसी प्रकार से ही जब तक हमें यह संबंध ज्ञान क्लियर नहीं है तब तक यह रोना नकली ही है। यह सुपरफिशियल होगा क्योंकि वह संबंध को पहचान ही नहीं पा रहे इसीलिए अपने आपको संबंध ज्ञान के ऊपर आधारित करना और अपने पूर्ण ह्रदय के साथ में भगवान के साथ स्वयं को जोड़ना, तभी संभव हो पाएगा। इसीलिए यह रोना असलियत में तभी संभव हो पाएगा जब हम को संबंध ज्ञान पूरी तरह से क्लियर होगा। इसीलिए प्रार्थनाओं के विषय में प्रभुपाद जी भी कहते हैं किसी भी व्यक्ति को कि उसका भगवान के साथ में क्या संबंध है इसके विषय में उसको पूर्ण जानकारी होनी चाहिए उसी के आधार पर व्यक्ति अपनी भावनाओं को व्यक्त करता है। उसी को प्रार्थना कहा गया है वह हवा में नहीं होता। फिर आगे प्रभुपाद जी कहते हैं कि यह जो भावनाएं हैं वह बहुत अधिक गहरी अथवा गंभीर होनी चाहिए और यह स्वाभाविक होता है यह कोई ऊपरी तौर से दिखावे के लिए नहीं है। इसको कहीं बाहर से उठाकर नहीं लाया जा सकता और हमारी स्थिति क्या है इस विषय में चैतन्य महाप्रभु कहते हैं। *जीवेर ' स्वरुप ' हय-कृष्णेर ' नित्य-दास ' । कृष्णेर ' तटस्था-शक्ति ' ' भेदाभेद-प्रकाश ' ।।* (चैतन्य चरितामृत 20.108) अनुवाद : कृष्ण का सनातन सेवक होना जीव की वैधानिक स्थिती है , क्योंकि जीव कृष्ण की तटस्था शक्ति है और वह भगवान् से एक ही समय अभिन्न और भिन्न है । इस प्रकार जब व्यक्ति अपने संबंध ज्ञान के माध्यम से अपनी भावनाओं को बहुत गंभीरता के साथ भगवान के समक्ष रखता है तब उसी को प्रार्थना कहा जाता है और जब यह प्रार्थना हमारी नाम जप के साथ में जुड़ती है तब जाकर हमारा भगवान के नाम जप के साथ भावनात्मक संबंध बनता है। उसी संबंध के आधार पर व्यक्ति का मन स्वत: ही लगेगा और जब आप उन प्रार्थनाओं के साथ में भगवान के नाम का जप करेंगे तो काफी देर तक आप अपने मन को भगवान के नाम के साथ में लगाकर कर सकते हैं अर्थात यदि संबंधित ज्ञान क्लियर नहीं है और भावुकता के आधार पर व्यक्ति जप करने लगता है तब आप देखते हैं की भावनाएं तो होती हैं किंतु मन नहीं लगने वाला। तब नाम आपको सुनाई नहीं देगा, नाम आपको केवल तभी सुनाई देगा जब संबंध ज्ञान के आधार पर जब हम अपनी भावनाओं को जोड़कर प्रार्थनाओं के साथ में नाम जप करते हैं। जो कि साधना कह लाएगी जैसे कि कई बार लोग कहते हैं कि वे प्रार्थना तो करते हैं लेकिन उन्हें नाम ही नहीं सुनाई देता। लेकिन जो बेसिक बातें प्रभुपाद ने हमको बतायी हैं जो कि श्रवण करना बहुत अधिक आवश्यक है। श्रवण करने में ही, यह प्रार्थना, हमें मदद करनी चाहिए। हमारी प्रार्थना हमें भगवान के नाम को सुनने मैं मदद करने के लिए होनी चाहिए। तब जाकर वह प्रमाणिक माना जाता है नहीं तो वह केवल भावुकता ही होगी। इस प्रकार से जब व्यक्ति करता है तब उसका नाम जप में मन लगता है। इसलिए प्रभुपाद जी भी यह बात कहते हैं जब हम भावनात्मक तौर पर अपना संबंध बना पाएंगे तब हमारे मन के विचलित होने की बहुत ही कम संभावना होगी और उस अवस्था में आपको भगवान का नाम भी बहुत अच्छी प्रकार से सुनाई पड़ेगा। इस प्रकार से जब व्यक्ति नाम जप करेगा तो उनका नाम जप बहुत अधिक बेहतर होने की संभावना रहेगी। इसीलिए हमारे आचार्यों ने भी हमें अनेक प्रकार की प्रार्थनाएं दी हैं। तभी तो भक्ति विनोद ठाकुर भी यह बात कहते हैं ना कि *मंत्र अर्थ चिंतन, नाम जप करने के दौरान मंत्र अर्थ चिंतन करना चाहिए यह अर्थ क्या है तब गोपाल गुरु गोस्वामी भी यह बताते हैं कि हमने अर्थ दिया है भगवान के नाम पर रघुनाथ दास गोस्वामी जी ने दिया है जीव गोस्वामी ने दिया है इस प्रकार से अनेक आचार्य ने नाम के अर्थ के विषय में बताया है और यह अर्थ यही प्रार्थना है। जब इस प्रकार के अर्थ पर मनन करते हुए व्यक्ति जप करता है तभी ठीक है, अन्यथा यह अर्थ भी कोई मैकेनिकल तौर पर नहीं है यह भी स्वाभाविक और गंभीरता से ही होती है और यह कैसे होगा? इसके विषय में भी जब हम उस प्रार्थना को अपने जीवन के साथ में जोड़ कर देख पाएंगे और जब उस रिलेशन के साथ, संबंध के साथ, व्यक्ति उस प्रार्थना को व्यक्त करेगा तभी उसमें वह बॉन्डिंग आ पाएगी नहीं तो, वह भी एक मैकेनिकल प्रोसेस बन जाएगा। इस स्थिति में कभी भी कोई जप संभव नहीं है क्योंकि उसमें भक्ति नहीं है। प्रभुपाद जी कहते हैं कि हम जब यह प्रार्थना करते हैं वह भाषा भी या भावनाएं भी अप्रमाणिक नहीं होनी चाहिए। वह भी प्रमाणिक होनी चाहिए जो कि हमारे आचार्यो के द्वारा पहले ही दी जा चुकी हैं जबकि यहां प्रभुपाद, उसे स्वाभाविक बता रहे हैं किंतु वह यह भी कह रहे हैं कि वह हमारे आचार्य के द्वारा पहले से ही दी गई है। इसीलिए हमें ऐसी प्रार्थनाओं को ढूंढना चाहिए जो बहुत निकट से हमारी वास्तविक स्थिति से संबंधित या हमारी वर्तमान स्थिति से संबंधित हो। जैसे उदाहरण के लिए कोई सोचे कि एक भजन है राधा कृष्ण प्राण मोरा युगल किशोर उस भजन को भक्त इस प्रकार से गाते हैं "चामर ढुलाए हरि मुखे चन्द्र" मुझे कब इस प्रकार का सौभाग्य प्राप्त होगा मुझे आप का मुख चंद्र देखने को प्राप्त होगा किंतु यह हमारे लिए बहुत अधिक रिलेवेंट नहीं है क्योंकि हमारी स्थिति क्या है ?क्योंकि वहां पर तो नरोत्तम दास ठाकुर रो रहे हैं उनको इस प्रकार का मौका चाहिए ऐसा करके वह रो रहे हैं, प्रार्थना कर रहे हैं। हम भी रोते हैं किंतु हम इसलिए रोते हैं अरे मुझे क्यों पकड़ा दिया इस प्रकार से चामर ढूलाने के लिए, इसकी सेवा मुझे क्यों दे दी गई है और कोई नहीं मिला क्या, मुझे ही पकड़ा दी गई है। हम इस प्रकार से रोएंगे तो हम लोग रिलेट नहीं कर पाएंगे। हमारे लिए इस प्रकार से जैसे "जानिए शुनिया विष खाइनु" मैं जानबूझकर इसके विषय में जानते हुए भी और बार-बार सुनने के बाद भी विष खा रहा हूं भगवान और इस प्रकार से विष में लुप्त होने के कारण मैं आपका नाम जप नहीं कर पा रहा हूं। जब की आपने अपने नामों के अंदर ही अपनी सारी शक्ति को समाहित कर दिया है किंतु फिर भी मैं नहीं कर पा रहा हूं। *नाम्नामकारि बहुधा निज - सर्व - शक्तिस् तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः । एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ।।* (चैतन्य चरितामृत अन्त्य २०.१६) अनुवाद " हे प्रभु , हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् , आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है , अत : आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द , जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं । आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं । हे प्रभु , यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं, किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हूँ, अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है । इस प्रकार से व्यक्ति को अपने स्तर की बातों को उठाना होगा, इस प्रकार की प्रार्थना को जोड़कर जब व्यक्ति नाम जप करेगा तो निश्चित रूप से वह बहुत आसानी से अपने मन को संलग्न कर पाएगा अन्यथा इस प्रकार का सही एटीट्यूट अथवा मूड नहीं है तो फिर यह संभव नहीं है। अब हम यही पर समाप्त करना चाहेंगे। हरे कृष्ण !

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